सद्‌गुरु: जब मैं छोटा था, तो कु़दरत के बीच अकेले में बहुत समय बिताता था। उस समय मेरी उम्र क़रीब ग्यारह साल रही होगी, अगर मुझे घर में ही कहीं खुले पैसे रखे दिखाई दे जाते, तो मैं अपने लिए पाव-रोटी के टुकड़े और कुछ उबले अंडे खरीदता और घर में यह लिख कर चला जाता कि मैं किस दिन वापस आऊँगा। फिर मैं जंगल में ओझल हो जाता। मैं जंगलों में यूँ ही भटकता, पेड़ों पर सोता, थैला भर कर साँप पकड़ता और जब मेरा भोजन ख़त्म होता, तो अपने-आप ही वापस आ जाता। जब मैंने शुरूआत में, ऐसा दो-तीन बार किया, तो सारे शहर में बड़ा हंगामा हुआ, पुलिस में रिपोर्ट लिखवाई गई और वे मुझे हर जगह खोजते फिरते रहे। इस तरह मेरे साथ दो-तीन बार होने के बाद, मेरे माता-पिता ने मेरी चिंता करनी छोड़ दी। वे जान गए थे कि मैं जब भी घर छोड़ कर जाऊँगा तो अपने-आप ही वापस आ जाऊँगा।

मैं घने अंधकार के बीच, जंगल में दिन-रात चलता रहता।

मेरे पास उस समय कोई टॉर्च या रोशनी करने का कोई दूसरा साधन भी नहीं होता थ। मैंने जंगलों में घूमना और सादे तरीके से जीना सीखा। जब मैं तीसरे दिन के आस-पास जंगल से बाहर आता, तो तन पर मैले कपड़े होते और वे पूरी तरह से कीचड़-माटी से लथपथ दिखते! मेरी जवानी के दिनों में भी, ऐसा ही जारी रहा। मुझे जब भी अवसर मिलता, मैं बस जंगलों में घुस जाता और लगातार उनमें भटकता रहता और पेड़ों पर सोता।