प्रश्न: सद्गुरु, आजकल यह आम बात हो गई है कि जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, डिप्रेशन हम सब के भीतर एक क़ुदरती भावना बन जाती है और लोगों पर बुरा असर डालती है। हम इस स्थिति से कैसे निबटें?
सद्गुरु: एक बार जब आप यह मान लेते हैं कि डिप्रेशन एक कुदरती प्रक्रिया है, तो उससे बाहर निकलने का कोई रास्ता नहीं रह जाता। जब आप छोटे थे, तो डिप्रेशन में नहीं, आनंद में रहना आपके लिए कुदरती चीज थी।
डिप्रेशन का स्रोत
अवसाद एक प्रकार का कष्ट है। अगर आप आनंद नहीं, कष्ट बन गए हैं तो इसकी वजह यह है कि आपकी जीवन-ऊर्जा का एक बड़ा हिस्सा विवशता में घटित हो रहा है, चेतना में नहीं। वह एक तरह से बाहरी हालात की प्रतिक्रिया के तौर पर घटित हो रहा है। जब आपका जीवन विवशता से चलता है, तो डिप्रेशन बहुत स्वाभाविक है क्योंकि बाहरी हालात कभी भी सौ फीसदी आपके काबू में नहीं होते। दुनिया में बहुत सारी चीजें घटित हो रही हैं, अगर आप विवशता में प्रतिक्रिया करते हैं, तो उसमें खो जाना और दुखी होना स्वाभाविक है। आप जीवन के जितने संपर्क में होंगे, उतने ही दुखी होंगे।
जब लोग अपने बाहरी जीवन को संभाल नहीं पाते, तो वे अपने जीवन के अलग-अलग पहलूओं से भागने लगते हैं। मगर वह भी काबू से बाहर हो जाता है। आपका एक हिस्सा लगातार विस्तार की खोज में रहता है – आप लगातार सीमाओं और अपने क्रियाकलाप के क्षेत्र को बढ़ाना चाहते हैं। आपका एक दूसरा हिस्सा भी है, जो हर बार निराश हो जाता है, जब कोई चीज आपके हिसाब से नहीं चलती। डिप्रेशन अपनी उम्मीदों के पूरा नहीं होने पर होता है।
भीतरी गड़बड़ को ठीक करना होगा
लोग कई तरह से डिप्रेशन पैदा करते हैं। जिस भी चीज़ को वे कीमती मानते हैं, अगर आप उनसे वह चीज छीन लें, तो वे डिप्रेस्ड हो जाएंगे। बहुत से लोगों, खास तौर पर संपन्न समाज में त्रासदी यह है कि उनके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं है। डिप्रेशन का मतलब है कि कहीं न कहीं एक निराशा घर कर गई है। अगर आप देश के कुछ बहुत गरीब गांवों में चले जाएं जो वाकई दरिद्र हैं, उनके चेहरे पर आपको आनंद दिखेगा क्योंकि उन्हें उम्मीद है कि उनका कल बेहतर होगा। संपन्न समाजों में वह उम्मीद ख़त्म हो गई है। डिप्रेशन इसलिए आता है क्योंकि बाहर इस्तेमाल होने वाली हर चीज की व्यवस्था कर ली गई है।
लोगों के पास भोजन है, घर है, कपड़े हैं, सब कुछ है, मगर फिर भी कुछ गड़बढ़ है। उन्हें पता नहीं है कि गड़बड़ क्या है। एक गरीब आदमी सोचता है, ‘कल अगर मुझे नए जूते मिल जाएं, तो सब कुछ ठीक हो जाएगा।’ अगर उसे एक जोड़ी नए जूते मिल जाएं, तो वह चेहरे पर परम आनंद लिए हुए एक राजा की तरह चलेगा। संपन्न समाज में बाहरी चीजें ठीक होती हैं मगर अंदर गड़बड़ होता है, इसलिए निराशा और अवसाद पैदा होते हैं। जिस तरह हम बाहरी चीजों को ठीक करते हैं, उसी तरह अंदर भी ठीक करना चाहिए। फिर दुनिया खूबसूरत होगी। जिसे हम आध्यात्मिक प्रक्रिया कहते हैं, वह सिर्फ यही है – सिर्फ आपके जीवन के बाहरी पहलुओं को ही न ठीक नहीं करना, बल्कि आपके व्यक्तित्व से सम्बंधित पहलूओं का भी ख्याल रखना। अगर उसका ध्यान नहीं रखा जाएगा तो आपके पास सब कुछ होते हुए भी कुछ नहीं होगा।