सद्गुरु की मानसरोवर यात्रा
सद्गुरु समझा रहे हैं कि प्राचीन टेथिस सागर का एक अवशेष मानसरोवर ऐसा स्थान है, जिसने आध्यात्मिक विकास और संभवत: मानव प्रजाति के भौतिक विकास में भी एक अहम भूमिका निभाई।
सद्गुरु की मानसरोवर यात्रा
मैं अपने बचपन से ही इस तरह की बहुत सारी कथाएँ सुना करता था, जहाँ यक्ष, गण और देव कहीं से आते और किसी राजकुमारी से विवाह कर लेते, किसी राजकुमार को कोई परी अपने साथ ले जाती, ऐसा हो जाता, वैसा हो जाता - इस इसी तरह की प्यारी और रहस्यमयी कहानियाँ। मैं उन्हें पसंद करता था, उन्हें सराहता था, पर उन पर विश्वास करना मेरे बस में नहीं था। मैंने उनके एक भी शब्द पर कभी भरोसा नहीं किया पर मेरे भीतर अनेक स्त्रोतों से कई तरह की कहानियाँ जमा होती चली गईं क्योंकि मुझे वे पसंद थीं। मुझे उनके पीछे की कल्पना पसंद थी। पर जब मैं मानसरोवर गया, मैं पहली बार उन सब उन चीज़ों का घटते देख रहा था, जो मेरे अनुसार कभी संभव नहीं हो सकती थीं। मुझे उनके पीछे छिपी कल्पना बहुत भाती थी। धीरे-धीरे मैं सोचने लगा हूँ कि क्या वे सभी कथाएँ सच हैं। यह सोच कर मुझे लगता कि मैं ठीक नहीं कर रहा। पूरे संसार में मेरी प्रतिष्ठा एक ऐसे गुरु के रूप में है, जो बिल्कुल सटीक बात करते हैं - पूरी तरह से तार्किक, मेरे तर्क में कोई कमी नहीं निकाल सकता। पर अगर अब मैं उन चीज़ों के बारे में बात करूँ, जो मैंने मानसरोवर में देखीं तो मैं अपनी ही प्रतिष्ठा दाँव पर लगा रहा हूँ। मैं उड़नतश्तरियों के बारे में बातें करने वाले अजीब लोगों जैसा लगने लगूंगा …
यह स्थान अनेक प्रकार से आध्यात्मिक प्रक्रियाओं का फलक रहा है। यहाँ से कई रूपों में गूढ़ और रहस्यमयी विज्ञान उपजा है।
भारत के अनेक संस्कृत ग्रंथों में उन व्यक्तियों का उल्लेख मिलता है, जो यहाँ आए और न केवल आए, बल्कि यहाँ के स्थानीय लोगों से संपर्क भी साधे। मैं सदा उन्हें कल्पना की अति कह कर नकारता आया था। भारतीय बहुत अच्छे कथावाचक होते हैं। हमारे पास इस ग्रह की बहुत सुंदर कथाएँ हैं। महाभारत जैसी कथा तो कोई दूसरी हो ही नहीं सकती - कहानी के भीतर कहानी, कहानी के भीतर कहानी, फिर उसके भीतर भी एक कहानी...और एक कहानी! तो मैंने इसे भारत की कथावाचन शैली के रूप में सराहता था, इसे किसी तरह की वास्तविकता नहीं मानता था। मैंने कभी नहीं सोचा कि यह हकीकत भी हो सकती है। पर जब आप संसार में देखते हैं, अपने आसपास देखते हैं तो आपको एक सी कथाएँ दिखती हैं। उनमें से सभी, एक जैसी कहानियाँ तो नहीं सोच सकते, अवश्य ही उनमें से कुछ तो घटा ही होगा। बाइबिल में कुछ ऐसे ही किस्से हैं, यूनानी पुराणकथाएँ भी कुछ ऐसी ही हैं, बहुत हद तक एक सी और नाम भी कितने मिलते-जुलते.....ऋगवैदिक काल से ही, हम उस समय से ही ऐसे लोगों के बारे में पढ़ते आए हैं, जो सितारों से आते थे, शायद किसी अंतरिक्षयान में बैठ कर आते होंगे। संस्कृत ग्रंथों में अक्सर आकाश में विचरण करने वाले प्राणियों का भी वर्णन आता है - स्थानीय समाजों में उनका योगदान, वे इस ग्रह पर कैसे आए - बहुत सारी कहानियाँ। सुमेरियन सभ्यता में भी ऐसे ही शब्द और कहानियाँ हैं, अरेबिया और अफ्रीका के उत्तर हिस्सों की कुछ सभ्यताओं से भी ऐसी कथाएँ सुनने को मिलती हैं। उत्तरी अमेरिका में कैसी कहानियाँ रही होंगी, हमें यह पता नहीं चल सकता क्योंकि वे सभ्यताएँ पूरी तरह से मिटा दी गई हैं। वे भी अपनी सभ्यता में ऐसे ही शब्द और ऐसी ही कथाएँ रखते होंगे। मैंने ऐसी बहुत सी कथाएँ सुनीं और यही मानता रहा कि यह तो मानवीय मस्तिष्क की कल्पना की अति है।
मानसरोवर में इन प्राणियों की बहुत सारी गतिविधियाँ एक साथ चल रही हैं। विशेष तौर पर सुबह के ढाई बजे से ले कर पौने चार बजे तक का समय, इन घटनाओं के लिए चरम होता है। मानो घड़ी देख कर, सही समय पर कोई काम हो रहा हो और बिल्कुल सही समय पर पौने चार बजे, वे सारी गतिविधियाँ बंद हो जाती हैं।
मानवसरोवर टेथिस सागर का ही शेष-भाग है। जो पहले सागर था, वह अब समुद्र तल से 14900 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। इन सैंकड़ों-हज़ारों सालों के दौरान जल तो मीठा हो गया, पर अब भी वहाँ आपको सागर की विशेषताएँ दिख सकती हैं। इनके अलावा, और भी कई प्रकार के जीवनों का लेन-देन जारी है... हम कई सालों से वहाँ जा रहे हैं, और वह मुझे अपनी ओर आने के लिए एक तरह से विवश करता रहा है। दुर्भाग्यवश वहाँ मेरे प्रवास बहुत ही कम समय के लिए रहे हैं। वहाँ हमेशा हमारे साथ बहुत सारे लोगों का दल रहता है, जो अपनी ही असुविधाओं और समस्याओं से जूझते रहे - सर्दी, ऑक्सीजन की कमी, बस वही सब चीज़ें। पर हमने जितना भी ध्यान उस ओर दिया, हमें उससे बहुत अच्छे परिणाम मिले हैं।
जैसा कि मैं बारंबार कहता हूँ, मैं आध्यात्मिक रूप से शिक्षित नहीं हूँ। मैं कोई ग्रंथ या शिक्षाएँ नहीं जानता। मैं केवल जीवन के इस रूप (अपनी ओर संकेत करते हैं) को उसके मूल से उसकी परम प्रकृति तक जानता हूँ। जीवन के इस रूप को जानने के बाद, उसके आधार पर आप अन्य जीवन के अन्य रूपों को भी सही मायनों में जान सकते हैं।
हमने मानसरोवर में जो देखा, वह जीवन है, परंतु हम जीवन को उस तरह नहीं जानते। हम जीवन के जिन बुनियादी आधारों की बात करते हैं, वे या तो व्यक्तिगत हैं या सामूहिक, उन्होंने अपनी वैयक्तिक्ता खो दी है। वही हमारी आध्यात्मिक प्रक्रिया का आधार भी है। और यहाँ का जीवन या तो चेतन है या अवचेतन। परंतु मानसरोवर में, मैंने जो देखा, वह इन सभी मापदंडों को नकारता है। यह व्यक्तिगत होने के साथ-साथ, परस्पर विलीन भी है। यह अवचेतन होने के साथ-साथ प्रवृत्तियों के साथ गतिशील है, किंतु उतना ही सचेत भी है। इस बार, मैं इस बार में 100 प्रतिशत स्पष्ट हूँ - वे अधिकतर मनुष्यों की तुलना में कहीं अधिक सजग हैं, पर इसके साथ ही वे स्वयं को अचेतन के बीच भी बहने देते हैं। उनके बारे में कुछ भी कहना कठिन इसलिए है क्योंकि हम उनका वर्णन करने योग्य बोली नहीं जानते क्योंकि वह तर्क की सभी सीमाओं से परे है।
मानसरोवर में इन प्राणियों की बहुत सारी गतिविधियाँ एक साथ चल रही हैं। विशेष तौर पर सुबह के ढाई बजे से ले कर पौने चार बजे तक का समय, इन घटनाओं के लिए चरम होता है। मानो घड़ी देख कर, सही समय पर कोई काम हो रहा हो और बिल्कुल सही समय पर पौने चार बजे, वे सारी गतिविधियाँ बंद हो जाती हैं। यौगिक तंत्रों में हमें बताया जाता है कि 3ः40 से 3ः45 का समय ब्रह्म मुहूर्त का होता है, यह उठने का समय है। हमारे आश्रम के बहुत सारे ब्रह्मचारी अपनी साधना के लिए इसी समय उठते हैं। जब मैं करीब पंद्रह वर्ष का था, तभी से, भले ही मैं कहीं भी, दुनिया के किसी भी हिस्से में, किसी भी टाइम जो़न में क्यों न रहूँ, सुबह के 3ः45 पर अचानक मेरी आँख कुछ ही मिनटों के लिए खुल ही जाती है। कई बार उठ जाता हूँ तो कई बार उसके बाद सो भी जाता हूँ पर उस समय कुछ देर के लिए उठता अवश्य हूँ। मैं खुद को कभी इस चीज़ के लिए कोई कारण नहीं दे सका। और मानसरोवर में ठीक 3ः45 पर ये सारी गतिविधियाँ बंद हो जाती हैं। हम अभी तक इन चीज़ों के बारे में सब कुछ नहीं जान सके हैं, पर पिछले दो सालों की तुलना में बहुत कुछ समझ आने लगा है।
अनिवार्य तौर पर, शिव से जुड़े हर वर्णन से स्पष्ट पता चलता है कि वे इस ग्रह से कोई नाता नहीं रखते। दरअसल, शिव सूत्र में, उन्हें यक्षस्वरूपी कहा गया, इसका अर्थ है कि वे इस ग्रह से कोई नाता नहीं रखते।
इस बार, मानसरोवर मेरे सामने एक अलग ही रूप में आया और अपना नया ही आयाम प्रस्तुत किया। भले ही यह कोई विश्वास तंत्र या अनुष्ठान रहा हो, परंतु अनेक संस्कृतियों में, हज़ारों वर्षों से यह एक जीवंत प्रक्रिया रही है कि कुछ आध्यात्मिक पंथ, हिमालय और तिब्बत के कुछ हिस्सों में यात्रा कर, कुछ विशेष लोगों से भेंट करने जाते थे, जो सदा से वहीं रहते आए हैं, उनका मार्गदर्शन करते आए हैं। भारतीय योगी ऐसा ही करते आए हैं। बौद्धों ने भी यही किया और हिमालय के कुछ ख़ास हिस्सों में जा कर, अपने पिछले गुरुओं से भेंट करते रहे। मध्य एशियाई देशों के कई गुह्य विद्याओं के जानकार समूह भी सदियों से ऐसा ही करते आ रहे हैं। और मिडिल ईस्ट के ड्रूज़, जिन्होंने सदा यही माना कि उनके गुरु हिमालय से थे, वे भी इस तरह के दौरों करते आए हैं।
झील के नीचे, एक ऐसा स्थान है, वहाँ कुछ ऐसा घट रहा है, जो हमारी तार्किक कल्पन से भी कहीं परे है। इस प्रक्रिया को पूरी तरह से समझना बाकी है। एक विशाल कोटर के बीच कई तरह की जीवन प्रक्रियाएँ पनप रही हैं...
यह स्थान अनेक प्रकार से आध्यात्मिक प्रक्रियाओं का फलक रहा है। यहाँ से कई रूपों में गूढ़ और रहस्यमयी विज्ञान उपजा है। पिछले 800-900 सालों के भीतर जनांकिक संबंधी बदलाव भले ही आए हों, परंतु भारत प्रारंभ से ही एक ऐसा देश रहा, जिनके आधारभूत देव शिव ही रहे हैं। जैसा कि सभी जानते हैं, शिव के हज़ारों मंदिर हैं और उनके बारे में कितनी कथाएँ कही-सुनी जाती हैं, परंतु उनके बाल्यकाल की एक भी कथा सुनने में नहीं आती। उनके कोई माता-पिता नहीं हैं। वे किसी के गर्भ से नहीं जन्मे - यह हमारी संस्कृति का स्थापित तथ्य है। वे कहीं और से आए हैं। और हम यह भी जानते हैं कि जिन्हें उनके मित्र, सहायक या गण कहा जाता है, वे सदा ही बौने, भूत-प्रेत तथा विकृत अंगों वाले प्राणी रहे हैं। वे सदा ऐसे जीवों की संगति में रहे, जो मनुष्य नहीं थे। मनुष्य भले ही उन्हें पूजते हैं, पर उनकी संगति मनुष्यों के साथ कभी नहीं रही। उन्हें कभी वृद्धावस्था नहीं आई, उन्हें कभी मृत्यु नहीं व्यापी। और बारंबार ऐसी कथा भी कही जाती है कि कोई भी स्त्री उनकी संतान की माता नहीं बन सकती। उनकी दो संतानें हैं और दोनों ही तांत्रिक देह से उपजी हैं। आप जानते हैं कि गणेश को किस तरह चंदन के उबटन से रचा गया और सुब्रमण्य, मुरूगन या स्कंद - जैसे हम उन्हें अलग-अलग नामों से जानते हैं - उन्हें छह अप्सराओं ने छह अलग कोखों में रख कर जन्म दिया। अप्सरा भी इस ग्रह से संबंध नहीं रखती। इन छह शरीरों को मिलाकर कैसे एक बनाया गया इसके पीछे पूरी कथा है। अनिवार्य तौर पर, शिव से जुड़े हर वर्णन से स्पष्ट पता चलता है कि वे इस ग्रह से कोई नाता नहीं रखते। दरअसल, शिव सूत्र में, उन्हें यक्षस्वरूपी कहा गया, इसका अर्थ है कि वे इस ग्रह से कोई नाता नहीं रखते। मैंने कभी इन बातों को सच नहीं माना था, परंतु मानसरोवर से आने के बाद और वहाँ जो घट रहा है, उसका साक्षी बनने के बाद, यह सब मेरे लिए एक वास्तविकता बनता चला गया, जिसके बारे में सोचते ही मेरी देह में कंपकपी हो रही है।
वे जो भी कर रहे हैं, वहाँ बुनियादी सामग्री के तौर पर नीले रंग का प्रयोग हो रहा है और इसे एक पवित्र स्थान की तरह रखा गया है। और मुझे आपको बताने की जरुरत नहीं है, कि इस संस्कृति में हर महत्वपूर्ण भगवान को नीले रंग की देह के साथ ही दिखाया जाता है।
जब हम इस बार गए, तो एक नई ही वास्तविकता सामने आई। वहाँ कुछ ऐसा घट रहा है, जो वास्तव में उल्लेखनीय और अवर्णनीय है। झील के नीचे, एक ऐसा स्थान है, वहाँ कुछ ऐसा घट रहा है, जो हमारी तार्किक कल्पना से भी कहीं परे है। इस प्रक्रिया को पूरी तरह से समझना बाकी है। एक विशाल कोटर के बीच कई तरह की जीवन प्रक्रियाएँ पनप रही हैं। इनमें से कुछ को तो हम जीवन की तरह जानते हैं, और बहुत कुछ को बिल्कुल नहीं जानते। वे जो भी कर रहे हैं, वहाँ बुनियादी सामग्री के तौर पर नीले रंग का प्रयोग हो रहा है और इसे एक पवित्र स्थान की तरह रखा गया है। और मुझे आपको बताने की जरुरत नहीं है, कि इस संस्कृति में हर महत्वपूर्ण भगवान को नीले रंग की देह के साथ ही दिखाया जाता है। जो भी यौगिक पथ पर चला हो या किसी तरह की कोई साधना की हो, उसका आभामंडल स्वाभाविक रूप से नीला हो जाता है। मैंने मानसरोवर में जो देखा, उसे शब्दों में बांधना बेहद कठिन है क्योंकि इसकी तार्किक व्याख्या नहीं की जा सकती। यह जीवन है, परंतु यह उस तरह का जीवन नहीं है, जैसा हम इसे जानते हैं।
- यक्ष: स्वर्गिक प्राणी, माना जाता है कि ये एकांत स्थानों में निवास करते हैं
- गण: हिंदू पुरागाथाओं के अनुसार, शिव के सहायक, जो कैलाश में वास करते हैं
- देव: (संस्कृत में देव, इष्ट): हिंदू पौराणिकता के अनुसार अलौकिक जीव
- महाभारत: प्राचीन भारत के दो प्रमुख संस्कृत महाकाव्यों में से एक।