रस वैद्य
सद्गुरु पूर्व की कीमियागिरी या रसविद्या ‘रस वैद्य’ का राज बता रहे हैं - जो पारे को ठोस करने और ऊर्जा प्रदान करने का आत्मपरक विज्ञान है।
रस वैद्य
सद्गुरु: आजकल ‘मंदिर’ शब्द बहुत ही विकृत और दूषित हो गया है। जब आप ‘मंदिर’ कहते हैं, तो लोग सोचते हैं, ‘कौन सा धर्म?’ मंदिरों की जरूरत इंसानों को है, ईश्वर को नहीं। तो इंसानों को किस तरह के मंदिरों की जरूरत है? जो उनका पोषण करे और उन्हें अपनी परम प्रकृति तक ले जाए। मंदिर का संबंध ईश्वर से नहीं है, यह ‘मानव पशु’ को एक दिव्य संभावना की ओर अग्रसर करता है।
दुनिया में इसे लेकर बहुत सी गलतफहमियां हैं। भारत में लोगों को खुद अपना भगवान बनाने की आजादी है क्योंकि यह एकमात्र ऐसी संस्कृति है, जहां लोगों ने समझ लिया है कि ईश्वर उनकी अपनी रचना है। हमारे पास तैंतीस करोड़ देवी-देवता हैं। और यह तब था, जब हमारी आबादी तैंतीस करोड़ थी। हम ईश्वर बनाने की तकनीक जानते हैं।
जब आप मिट्टी को भोजन में बदलते हैं, तो इसे खेती कहते हैं। भोजन को हाड़-मांस में बदलना पाचन कहलाता है। इस हाड़-मांस को फिर से मिट्टी में बदल देना, दाह-संस्कार होता है। ये सब भिन्न-भिन्न तकनीकें हैं। इसी तरह अगर आप किसी पदार्थ या जगह को दिव्य स्पंदन में बदल सकते हैं, तो इसे प्राण-प्रतिष्ठा कहा जाता है। प्राण-प्रतिष्ठा का एक पूरा विज्ञान है। आप किसी भी वस्तु में ऊर्जा डाल सकते हैं। मान लीजिए, आपने हाथ में एक फूल लिया। अगर आप संवेदनशील हैं तो महसूस कीजिए कि इस फूल को हाथ में पकड़ने पर वह कैसा महसूस होता है। फिर सिर्फ दस-बीस सेकेंड के लिए मुझे दे दीजिए। मैं उसे हाथ में लेकर आपको वापस कर दूंगा। इसके बाद वह आपके हाथ में बिल्कुल अलग महसूस होगा। मगर कुछ समय बाद, वह फिर से सिर्फ एक फूल होगा। लेकिन अगर आप किसी खास सामग्री से बने कुछ खास रूपों में ऊर्जा डालते हैं, तो वे एक तरह से शाश्वत रूप बन जाते हैं। पारा इसी तरह की एक महत्वपूर्ण सामग्री है।
जब हम किसी पदार्थ को ऊर्जा प्रदान करते हैं, तो इसके लिए हम अधिक से अधिक सघनता वाली सामग्री चाहते हैं। पारा सबसे सघन पदार्थों में से एक है और यह द्रव्य रूप में होता है। यह एकमात्र तरल धातु है। एक बार इसे ऊर्जा प्रदान करने पर यह दस, पंद्रह हजार सालों तक ऐसा ही रहेगा। अगर सही वातावरण बनाए रखा जाए, तो ये एक लाख सालों तक ऐसा ही रहेगा।
इसके पीछे यह उद्देश्य और विज्ञान व तकनीक है कि इससे तैयार ऊर्जा रूप वह करेगा जो आप लंबे समय तक करना चाहते हैं। यही वजह है कि ज्यादातर लिंग पारा आधारित होते हैं। तीर्थकुंड में पारे के लिंग ठोस किए गए पारे से बने हैं। यह 99.2 फीसदी शुद्ध पारा है, 0.8 फीसदी अशुद्धता इसलिए है क्योंकि प्रयोगशालाएं उसे हटाने में सक्षम नहीं हैं। आधुनिक रसायन विज्ञान के अनुसार, आप सामान्य तापमान पर पारे को ठोस नहीं कर सकते। आप पारे को ठोस रूप तभी दे सकते हैं, अगर आप उसे -38 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान पर ले जाएं। मगर मैं उसे अपने हाथ में लेकर ठोस और तरल रूप दे सकता हूं। यह भारतीय रसायन विज्ञान है। यह किसी भी स्थान को ऊर्जा प्रदान करने का एक तरीका है। हमने देखा है कि जो लोग ठोस पारा रूपों को अपने घर ले गए हैं, उनकी सेहत, मानसिक स्थिति और यहां तक कि आर्थिक स्थिति पर असाधारण फर्क पड़ा है।
आयुर्वेद और सिद्ध वैद्य जैसी भारतीय उपचार पद्धतियों में दैनिक आधार पर पारे का इस्तेमाल किया जाता है। सिद्ध वैद्य पारे के बिना काम नहीं कर सकते।
आम तौर पर, जिन मूर्तियों की प्राण प्रतिष्ठा मंत्रों, आदि से की जाती है, अगर आप एक निश्चित समय तक उसकी देखभाल नहीं करते, तो उसकी शक्ति घटने लगती है। यही वजह है कि किसी मूर्ति के जरा सा खंडित होने पर भी, उसे कुएं या नदी में डाल दिया जाता है क्योंकि घटती ऊर्जा वाले किसी आकार की मौजूदगी में आपको नुकसान हो सकता है। इसलिए उसे तुरंत लेकर ऐसी जगह डाल दिया जाता है, जहां इंसान उन तक नहीं पहुंच सकते। इसका मकसद यही है। मगर ठोस पारे से कोई आकार या रूप बनाए जाने पर, उसकी ऊर्जा कभी नहीं घटती, चाहे कोई उसकी देखभाल न करे। यह इसकी सुरक्षा है। पारे को ठोस रूप देते हुए उसे ऊर्जा प्रदान करने का पूरा विज्ञान रस वैद्य कहलाता है। यह एक आत्मपरक या सब्जेक्टिव विज्ञान है क्योंकि अगर आपको एक चीज को किसी और चीज में बदलना है, तो आपको उसमें कुछ जोड़-घटाव, तापमान में बदलाव, कुछ न कुछ करना पड़ेगा, वरना वह प्रक्रिया घटित नहीं हो सकती। मगर अब पारे को सामान्य तापमान पर बिना किसी जोड़ के ठोस किया जा सकता है। यह भौतिक, वस्तुपरक या ऑब्जेक्टिव विज्ञान नहीं हो सकता। यह व्यक्तिपरक या आत्मपरक या सब्जेक्टिव विज्ञान ही हो सकता है। आयुर्वेद और सिद्ध वैद्य जैसी भारतीय उपचार प्रणालियों में दैनिक आधार पर पारे का इस्तेमाल किया जाता है। सिद्ध वैद्य पारे के बिना काम नहीं कर सकते। पारा सिद्ध वैद्य में और कुछ आयुर्वेदिक उत्पादों में सबसे महत्वपूर्ण तत्व है। यह चलन हजारों सालों से चला आ रहा है। पारा खाना यौगिक पद्धति का एक हिस्सा है। हम जानते हैं कि वह हमारे सिस्टम में कैसे काम करता है। भारत में लोग गले में पारे की गोलियां पहने हुए मिलते हैं। बहुत से लोग सिर्फ ठोस पारे का एक टुकड़ा अपने शरीर से लगाते हुए गंभीर इम्युनोलॉजिकल बीमारियों से छुटकारा पा चुके हैं। इस धरती की हर चीज का इस्तेमाल अगर आप करना जानते हैं, तो वह आपकी खुशहाली के लिए काम करेगा। अगर आप नहीं जानते कि उसका इस्तेमाल कैसे करना है, तो वह आपके लिए जहर होगा। आज मैं सिर्फ पारे के कारण जीवित और सेहतमंद हूं। ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा पूरी करने के बाद, मेरा शरीर बहुत टूटी-फूटी स्थिति में था। जब मैं अमेरिका गया और कुछ ब्लड टेस्ट कराए, तो उन्होंने मुझे अजीब-अजीब बीमारियां बताईं। मुझे कहा गया, ‘आप ब्लू लाइट इमरजेंसी हैं। आपको हवाई जहाज में नहीं जाना चाहिए क्योंकि आप कभी भी मर सकते हैं।’ मगर मैं अब भी जीवित हूं, हवाई यात्राएं करता रहता हूं और ज्यादातर लोगों के अंदाजे से कहीं ज्यादा स्वस्थ हूं। मैं जितना सक्रिय रहता हूं, उतनी गतिविधियां बहुत कम लोग एक दिन में कर सकते हैं।
पारा मेरे लिए जीवनदायी रहा है। इसके बिना मेरा शरीर वह नहीं होता, जो आज है।
पारा विष नहीं है। खास तौर पर दुनिया के पश्चिमी हिस्से में लोग पारे के जहर से डरते हैं। जहर सिर्फ इसलिए फैला था क्योंकि उद्योगों ने पारे का इस्तेमाल करके उसके मिश्रण नदियों में बहा दिए। यही मिश्रण जहरीले होते हैं। पारा इस धरती पर हमेशा से रहा है। इसने धरती को विषाक्त नहीं किया। यह धरती का एक हिस्सा है। जब आप उसका दुरुपयोग करते हैं, तब वह आपके लिए जहरीला बन जाता है। आप जो ऑक्सीजन लेते हैं, वह भी आपके लिए जहर हो सकता है। अगर आप अधिक मात्रा में ऑक्सीजन ले लें, तो आप कोमा में जा सकते हैं। इस धरती की हर चीज का इस्तेमाल अगर आप करना जानते हैं, तो वह आपकी खुशहाली के लिए काम करेगी। अगर आप नहीं जानते कि उसका इस्तेमाल कैसे करना है, तो वह आपके लिए जहर होगा। शिव को हमेशा नीलकंठ कहा जाता है। इसका मतलब है, जहर युक्त गला। अगर आपके गले में कोबरा लटकता रहता है, अगर आप कोबरा को किसी आभूषण की तरह पहनते हैं, तो आपके गले में उसने इतनी बार काटा होगा कि उसका नीला पड़ना स्वाभाविक है। मगर फिर भी इस व्यक्ति के पास जितनी क्षमताएं और ज्ञान था, उसकी बराबरी कोई और नहीं कर सकता था। तो जहर और अमृत क्या है, यह बस इस पर निर्भर करता है कि आप कौन हैं।
दक्षिण में, ऐसे मंदिर हैं, जहां नौ घातक विषों से मूर्ति तैयार की गई है। उन्हें नवपाषाण कहा जाता है। विषों का कॉकटेल एक साथ मिलकर बहुत आरोग्यकर और औषधीय हो जाता है। विष को अमृत में बदलने का विज्ञान बहुत गहन है। ऐसे विष, जो तत्काल आपकी जान ले सकते हैं, मगर उनका मिश्रण आपको पोषण देता है।
इन मूर्तियों के ऊपर से बहने वाला पानी लोग प्रसाद के रूप में पीते हैं, जो बहुत आरोग्यकर होता है। मगर धीरे-धीरे देवी-देवता की मूर्ति घिसने लगती है। आम तौर पर उनका जीवनकाल आकार के मुताबिक एक सौ पचास से दो सौ सालों के बीच होता है। धीरे-धीरे वे अपना आकार और रूप खोने लगते हैं क्योंकि हर दिन जैसे-जैसे उस पर पानी गिरता है, वह घिसने लगती है और लोग उस पानी को पीते हुए चैतन्य का अंश अपने अंदर लेते हैं। दुर्भाग्यवश, आजकल इन मूर्तियों को बदला नहीं जा रहा है। फिलहाल दुनिया में तार्किक तरीके से सोचने वाले लोग इंसान की प्रवृत्तियों या नजरिये को बदलते हुए खुशहाली लाने की कोशिश कर रहे हैं। आज की दुनिया में लोगों के पास सिर्फ यही समाधान है। ‘शांत रहो, अपना ध्यान रखो, चिंता मत करो, खुश रहो’ – इन चीजों पर जोर दिया जाता है। इस तरह खुशहाली कभी नहीं मिल सकती। नजरिया बदलते हुए आप एक हद तक अपने मकसद में सफल हो सकते हैं, मगर वह पूरी तरह कभी नहीं हो सकता क्योंकि दूसरे आयाम और शक्तियां भी आप पर काम कर रही होती हैं। उन्हें हल किए बिना आप कुछ खास चीजों से कभी मुक्त नहीं हो सकते। चाहे आप अपना नजरिया बदलने की कितनी भी कोशिश कर लें, आपका दिमाग खराब हो जाएगा क्योंकि आपके भीतर और बाहर बहुत सी दूसरी शक्तियां काम करती हैं। अगर उनसे नहीं निपटा गया, तो आप खुशहाली का वास्तविक अर्थ नहीं जान सकते।