सद्गुरु: बुनियादी तौर पर, शिक्षा पाने का अर्थ है कि आप अपने क्षितिज का विस्तार कर रहे हैं। आप सीमित दायरे से उठ कर, अपना विस्तार करना चाहते हैं। दुर्भाग्यवश, आजकल लोगों को जो शिक्षा प्रदान की जा रही है, वह उनकी सूचना क्षमताओं का विकास करने के बावजूद, उनके बोध तथा आसपास के जीवन को शामिल करने के लिहाज़ से उन्हें सीमित बना देती है।

कुछ पीढ़ियों पहले, हर जगह, ख़ासतौर पर भारतीय संस्कृति में, लोग विशाल संयुक्त परिवारों में रहते थे। यहाँ तक कि आज भी, कुछ ऐसे परिवार हैं, जिनमें 200-300 लोग एक साथ रहते हैं। अगर इतने लोग हमेशा एक साथ रहेंगे तो आपको हर क्षण, उनके साथ, उनके निकट रहने का अवसर मिलेगा, ऐसे में आपको सबके साथ मिल कर रहना सीखने की जरुरत होती है। इसके अभाव में, आप लोगों के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए, नहीं रह सकते।

धीरे-धीरे, पश्चिमी शिक्षा के प्रवेश के साथ, लोगों ने दूसरों के साथ शामिल होना छोड़ दिया और अपने-आप में ही रहने लगे हैं। हमने अपने सारे नाते-रिश्तेदारों को त्याग दिया और कहते हैं, ”परिवार का अर्थ है; मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे। मेरे माता-पिता को तो शामिल कर सकते हैं पर पत्नी के माता-पिता; उन्हें शामिल नहीं किया जा सकता।“ जब माता-पिता बहुत वृद्ध हो जाते हैं तो हमें लगने लगता है कि वे भी हमारे हर काम में बाधा बन रहे हैं, तब हम कहते हैं कि हमारे परिवार में केवल मैं, मेरी पत्नी और मेरे बच्चे ही शामिल हैं।”

धीरे-धीरे, जैसे-जैसे शिक्षा लोगों के जीवन में एक अहम भूमिका निभाने लगी है, पहले जो प्रभाव केवल पश्चिमी समाजों में था, वो अब भारत के विशाल नगरों में भी दिख रहा है। इसका इतना असर दिखने लगा है कि अब दो लोग भी, एक साथ आराम से नहीं रह पाते। उनके लिए अलग घर चाहिए। वे केवल सप्ताहांत में मिलते हैं, पर अगर इससे ज्यादा समय साथ बिताना पड़े तो उनके रिश्ते में कुछ नहीं बचता - फिर तो घमासान युद्ध छिड़ने की संभावना आ जाती है। हमने खुद को हर चीज़ से इस तरह काट लिया है कि अकेलापन ही, दुनिया की सबसे बड़ी समस्या बनती जा रही है।

दुर्भाग्यवश, समाज जितने शिक्षित हो रहे हैं, उनकी मांगें उतनी ही अविश्वसनीय होती जा रही हैं।

प्रत्यके व्यक्ति के चाहतें इतनी बढ़ रही हैं, कि उसे पूरा करने के लिए हर व्यक्ति के लिए एक पूरा ग्रह चाहिए होगा। हम सभी एक ही ग्रह पर नहीं रह सकते। यह हमारी वर्तमान शिक्षा की देन है। ऐसा नहीं कि हमारी शिक्षा के पाठ्यक्रम में कुछ कमी है, दरअसल इसे देने का तरीका ही अनुचित है।

ऐसा नहीं कि सुचना से लोगों का नुक्सान होता है, लेकिन उसे देने का तरीका और सन्दर्भ नुक्सान पहुंचाता है।

इस समय सारी शिक्षा प्रक्रिया जीवन यापन से जुड़ी है। शिक्षा को इस रूप में नहीं होना चाहिए। क्षितिज का विस्तार करना शिक्षा का उद्देश्य होना चाहिए। लोग अपने आर्थिक स्तर को लेकर इतने बेसुध हो गए हैं, कि हमने शिक्षा को संसार से धन ऐंठने का साधन बना लिया है। इसे बदलना होगा। अगर लोग अपनी बुद्धिमानी को ठीक से व्यवस्थित रख सकें, तो वे कहीं भी अपना जीवन यापन कर सकते हैं। हम न केवल स्नेही और अद्भुत वयस्क तैयार करना चाहते हैं, बल्कि ऐसे वयस्क तैयार करना चाहते हैं जिनमें लचीलापन भी हो। अगर आप उन्हें नर्क में भी डाल दें, तो वे उसे धीरे-धीरे स्वर्ग में बदल दे, उनके भीतर इतनी लोच और योग्यता होनी चाहिए।