शिव ने अपनी तीसरी आंख कैसे खोली, इसके बारे में एक कहानी है। भारत में, कामदेव नामक प्रेम और वासना के देवता हैं। काम का अर्थ है वासना। वासना एक ऐसी चीज है जिसका सामना ज्यादातर लोग सिर उठा कर करना पसंद नहीं करते। आप इसके चारों ओर कुछ सौंदर्यशास्त्र चाहते हैं, इसलिए आप इसे प्यार बना देते हैं! कहानी यह है कि काम एक पेड़ के पीछे छिप जाता है और शिव के दिल पर एक तीर मार देता है। शिव कुछ विचलित हुए; और उन्होंने अपना तीसरा नेत्र खोला जो कि अग्नि से भरपूर है और काम को जलाकर भस्म कर दिया। यह वह कहानी है, जो आम तौर पर सभी को सुनायी जाती है।
लेकिन कृपया आप अपने आप से पूछें, कि आपकी वासना आपके भीतर से पैदा होती है या किसी पेड़ के पीछे से ? यह निश्चित रूप से आपके भीतर ही उत्पन्न होती है। वासना केवल विपरीत लिंग के बारे में नहीं है। हर इच्छा वासना है, चाहे वह कामुकता की हो, शक्ति की हो या पद की। वासना का अनिवार्य रूप से मतलब है कि आपके भीतर अपूर्णता की भावना है, किसी ऐसी चीज की लालसा जो आपको महसूस कराती है, "यदि मेरे पास वह नहीं है, तो मैं पूर्ण नहीं हूं।"
इसी पर आधारित, शिव और काम की कहानी का योगिक आयाम है। शिव योग की दिशा में काम कर रहे थे, अर्थात् कि वे न केवल पूर्ण होने की दिशा में काम कर रहे थे, बल्कि अनंत होने की ओर भी काम कर रहे थे। शिव ने अपना तीसरा नेत्र खोला और अपनी वासना, अर्थात काम को उभरते हुए देखा और उसे जला दिया। राख धीरे-धीरे उनके शरीर से बाहर निकल गई, यह दर्शाते हुए कि भीतर सब कुछ सदा के लिए शांत कर दिया गया था। तीसरा नेत्र खोलकर, उन्होंने अपने भीतर एक आयाम का अनुभव किया जो भौतिकता से परे है, और भौतिकता की सभी बाधाएं दूर हो गईं।
तीसरा नेत्र एक ऐसी आंख के बारे में है, जो भौतिक नहीं है - वह देख सकती है । यदि आप अपने हाथ को देखें, तो आप इसे देख सकते हैं क्योंकि यह प्रकाश को रोक देता है और इसे परावर्तित कर देता है। आप हवा को नहीं देख सकते, क्योंकि यह प्रकाश को नहीं रोकती। लेकिन अगर हवा में थोड़ा सा धुंआ हो, तो आप इसे देख पाते हैं; क्योंकि आप केवल वही देख सकते हैं जो प्रकाश को रोकता है। आप ऐसी कोई चीज़ नहीं देख सकते हैं, जो प्रकाश को गुजरने देता है। यह दो ऐन्द्रिय नेत्रों का स्वभाव है।
ऐन्द्रिय आंखें केवल उसे समझ सकती हैं, जो भौतिक है। जब आप किसी ऐसी चीज को देखना चाहते हैं, जिसकी प्रकृति भौतिक नहीं है, तो देखने का एकमात्र मार्ग ‘भीतर’ की ओर है। जब हम “तीसरे नेत्र” का उल्लेख करते हैं, तो हम प्रतीकात्मक रूप से कुछ ऐसा देखने की बात कर रहे हैं जिसे दो ऐन्द्रिय नेत्र आंखें नहीं देख सकतीं।
दूसरा पहलू यह है कि ऐन्द्रिय आंखें कर्म के कारण बहुत अधिक दूषित होती हैं। कर्म का अर्थ है – पूर्व में किये गए कर्मों की स्मृति। आप जो कुछ भी देखते हैं वह कर्म स्मृति से प्रभावित रहता है। आप इसमें कुछ नहीं कर सकते। अगर आप किसी को देखते हैं, तो आप सोचेंगे, “वह अच्छा है, वह अच्छा नहीं है, वह अच्छा है, वह बुरा है।“ आप किसी भी चीज को उसके वास्तविक रूप में नहीं देख सकते क्योंकि कर्म स्मृति इस दृष्टि और आपकी देखने की क्षमता को प्रभावित करती है। यह आपको वही सब कुछ दिखाएगा जैसा आपका कर्म है और आपकी पिछली स्मृतियाँ हैं।
सब कुछ ठीक वैसा ही देखने में सक्षम होने के एक ऐसी दृष्टि ज़रूरी है - जो गहराई तक देख पाए, और जिस पर याद्दाश्त का कोई असर न हो। परंपरागत रूप से भारत में, जानने का मतलब किताबें पढ़ना, किसी की बात सुनना या जानकारी इकट्ठा करना नहीं है। जानने का अर्थ है जीवन में एक नया दृष्टिकोण लाना या अंतर्दृष्टि खोलना। कोई भी सोच और दार्शनिकता आपके मस्तिष्क में स्पष्टता नहीं ला सकती है। आपके द्वारा बनाई गई तार्किक स्पष्टता आसानी से विकृत हो सकती है। कठिन परिस्थितियाँ इसे पूरी तरह से अस्त-व्यस्त कर सकती हैं।
पूर्ण स्पष्टता तभी आती है जब आपकी आंतरिक दृष्टि खुलती है। दुनिया की कोई भी स्थिति या व्यक्ति आपके भीतर की इस स्पष्टता को विकृत नहीं कर सकता। सच्चे ज्ञान के उत्पन्न होने के लिए, आपके तीसरे नेत्र को खुलना होगा।
संपादक की टिपण्णी : इस लेख में, सद्गुरु तीसरा नेत्र खोलने के दो तरीकों के बारे में बात कर रहे हैं।