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शिव विनाशक क्यों हैं?

लोग आम तौर पर रक्षा और खुशहाली के लिए ईश्वर के पास जाते हैं, लेकिन यौगिक संस्कृति में शिव को विनाशकर्ता के रूप में पूजा जाता है। इस अजीब नज़रिये के पीछे की समझदारी का पता लगाते हैं।

प्रश्नकर्ता: मुझे लगा कि योग का सारा मकसद मुक्ति है, लेकिन फिर आदियोगी शिव को विनाशकर्ता क्यों माना जाता है? वह क्या विनाश करने की कोशिश करते हैं?

सद्गुरु: मान लीजिए, कोई आपसे कहे कि किसी दूसरे ग्रह से कोई दूसरी तरह का जीव आ रहा है। आप क्या सोचेंगे? ‘शायद उसके आठ हाथ होंगे। वह कुत्ते जैसा दिखता है या हाथी जैसा?’ आपकी सारी विचार प्रक्रिया सिर्फ उसी से निकलती है, जिसका आपने अब तक अनुभव किया है। तो हमें यह समझने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि मुक्ति क्या है क्योंकि जिसे हमने अब तक अनुभव नहीं किया है, उसे हम नहीं जान सकते।

विध्वंसक शिव का महत्व

पहले समझते हैं कि बंधन क्या है। अगर आप समझते हैं कि बंधन क्या है और उसे तोड़ने की कोशिश करते हैं, तो वही मुक्ति है। एक तरह से आध्यात्मिक प्रक्रिया एक नकारात्मक काम है। इसीलिए, भारत में हमने हमेशा शिव की पूजा विनाशकर्ता के रूप में की है क्योंकि यह खुद को खत्म करने का एक तरीका है। आप अभी खुद को जो समझते हैं – जो सीमित अनुपात आपने अपने व्यक्तित्व के रूप में अपने लिए बनाया है, अगर आप उसे खत्म कर सकते हैं, तो यह मुक्ति है।

आपकी सारी व्यक्तित्व, आप अपने बारे में जो कुछ भी सोचते हैं और खुद को जो भी मानते हैं, वह शरीर और मन के साथ जुड़ी आपकी गहरी पहचान के कारण ही आपको मिली है। यह पहचान इतनी मजबूत इसलिए हो गई है क्योंकि आप जीवन का अनुभव सिर्फ पाँच इंद्रियों से ही करते हैं। अगर पाँच इंद्रियाँ सो जाएँ, तो न आप, न ही दुनिया आपके अनुभव में होती है।

फिलहाल, इंद्रिय बोध के सीमित अनुभव से ही आप अपने आस-पास की दुनिया और साथ ही आपके भीतर जो है, उसका अनुभव कर पाते हैं। इसलिए आपका पहला काम भौतिक शरीर और मन से पहचान तोड़ना है, और यही काम योग करता है। योग में पहला कदम हमेशा यह होता है कि इंद्रिय बोध से परे कैसे जाएँ। एक बार आप इंद्रिय बोध से परे जीवन का अनुभव करने लगते हैं, फिर स्वाभाविक रूप से शरीर और मन से पहचान घटने लगती है और धीरे-धीरे गायब हो जाती है।

पहचान का नाश करने वाले शिव


योग के पहले गुरु शिव को एक विध्वंशक माना जाता है क्योंकि जब तक आप इस पहचान का नाश नहीं करते, जब तक आप उसे नष्ट नहीं करते, जो अभी आपके लिए सबसे ज्यादा कीमती है, तब तक वह घटित नहीं होगा, जो परे है, यह सबसे बड़ी बाधा है। यह एक बुलबुला है, जिससे आप बाहर नहीं निकलना चाहते। आप डरते हैं कि वह फूट सकता है। लेकिन साथ ही, आपके अंदर कुछ ऐसा है, जो अनंत होना चाहता है।

आप आध्यात्मिकता के बारे में जो सोचते हैं, वह एक अनंत बुलबुला पाने की चाह है। असल में एक असीम बुलबुले जैसे कोई चीज़ नहीं है। एकमात्र चीज़ बुलबुले में सुई चुभोना है। आपको इस बुलबुले को इतना बड़ा फुलाने की जरूरत नहीं है, कि उसमें सारा अस्तित्व समा जाए। अगर आप सुई चुभोकर उसे फोड़ देते हैं, तो आप असीम हो जाते हैं। सारी सीमाएँ खत्म हो जाती हैं।

लोग सोचते हैं कि शरीर और मन के साथ पहचान न जोड़ने का मतलब चीथड़े पहनना, न नहाना और बदबूदार होना और अपने आस-पास हर किसी के लिए समस्याएँ पैदा करना है। नहीं। पहचान न जोड़ना एक चीज़ है, उसका ध्यान न रखना अलग चीज़ है। आप उससे जुड़े हुए नहीं है, फिर भी आप वह हर चीज़ करते हैं, जो आपको उससे करनी है। जब आप ऐसे बन जाते हैं, फिर आप शरीर और मन की प्रक्रिया से मु‍क्त हो जाते हैं। आपके जीवन में सिर्फ यही दो सीमाएँ या बंधन हैं। अगर आप इन दोनों को पार कर लें, तो आप असीम हो जाते हैं। अगर आप खुद को एक असीम प्राणी के रूप में अनुभव करें, तो क्या आप खुद को मुक्त नहीं मानेंगे?

संपादक की टिप्पणी: आदियोगी शिव के बारे में कई और दिलचस्प कहानियाँ पढ़ने के लिए यहाँ क्लिक करें।

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