निर्वाण षट्कम सिखाने में आने वाली चुनौतियां
8वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा रचित निर्वाण षट्कम के छह संस्कृत श्लोक, शायद आध्यात्मिक साधक की चाहत की सबसे शक्तिशाली अभिव्यक्ति हैं – चेतना और आनंद का एक रूप बनने की चाहत, या दूसरे शब्दों में कहें तो स्वयं शिव के साथ एक हो जाने की चाहत। हालाँकि निर्वाण षट्कम का अर्थ बेशक गहन है, लेकिन उसकी शक्ति उसके अर्थ में नहीं है, बल्कि उसके उच्चारण से पैदा होने वाली गूँज में है।
अलग-अलग भाषाओं और पृष्ठभूमि वाले 50 से ज्यादा देशों के प्रतिभागियों को संस्कृत श्लोक सिखाना, प्रोजेक्ट संस्कृति टीम के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी, लेकिन उन्होंने इसे गंभीरता से लिया। यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रतिभागियों के मंत्र उच्चारण सुधार के लिए एक सपोर्ट सिस्टम उपलब्ध हो, टीम ने अलग-अलग शहरों में स्वयंसेवकों के समूहों को चुना और उन्हें प्रशिक्षित किया। एक मास्टर करेक्टर ने बताया कि स्वयंसेवकों के उच्चारण प्रशिक्षण के लिए उन्हें एक महीने तक हर दिन एक घंटा लगाना पड़ा ताकि वे स्वयंसेवक प्रतिभागियों के मंत्रों को ठीक करने में मदद कर पाएँ। वे इस प्रक्रिया के बारे में बताते हुए कहते हैं, ‘इस ट्रेनिंग ने ख़ुद मेरी एकाग्रता और फोकस को बहुत बढ़ाया, न केवल अलग-अलग ध्वनियों के लिए, बल्कि मेरी साधना और मेरी सभी छोटी-बड़ी गतिविधियों के लिए भी।’
चूंकि प्रोजेक्ट संस्कृति का पहला चरण पूरी तरह से ऑनलाइन था, इसलिए दूसरी बड़ी चुनौती थी - सामग्री को दिलचस्प और आकर्षक बनाने की। वीडियो के लिए कहानियों और दिलचस्प बातों की खोज करने के लिए कैसे ईशा आर्काइव्स और इंटरनेट को खंगालते रहे, इसके बारे में स्वयंसेवक सिद्धार्थ छावछरिया उत्साह के साथ बताते हैं। ‘इसे सुलभ बनाने के लिए हम चाहते थे कि यह वीडियो और इंटरैक्टिव सेगमेंट के साथ आकर्षक हो। हमने तकनीक, सुंदरता, स्क्रिप्ट, और निश्चित रूप से सही सामग्री का चुनाव करने सहित, हर पहलू पर ध्यान दिया।’ एक आकर्षक शैली में सात आकर्षक वीडियो बनाने के लिए हफ्तों तक लगातार काम करते हुए, सिद्धार्थ संस्कृति के छात्रों की सराहना करते हुए कहते हैं, ‘उन्हें प्रशिक्षण में खुद को पूरी तरह से झोंक देना और कार्यक्रमों का संचालन करते हुए देखना बहुत प्रेरणादायक था। बहुत ही रचनात्मक, जोशीले और उत्साही लोगों के समूह के साथ काम करने के लिए मिले इस अवसर की वजह से मैं खुद को भाग्यशाली महसूस करता हूँ।’
तीसरी बड़ी चुनौती थी, लाइव ऑडियंस के सामने बोलने के बजाय घंटों तक निर्जीव कैमरा लेंस के सामने बात करना सीखना। ‘शुरू में मैं बहुत संकोच में रहता था, लेकिन जब वह संकोच ख़त्म हो गया, तो मुझे लगा कि मैं प्रतिभागियों को लंबे समय से जानता हूँ। मैंने उनके चेहरे नहीं देखे, लेकिन ऐसा लगता था कि मैं उन्हें निजी तौर पर जानता हूँ। वह शिक्षा कि मैं पूरे संसार की माँ हूँ, मेरे भीतर दौड़ती रही और निर्वाण षट्कम की कक्षा को लेकर मेरा नजरिया पूरी तरह बदल गया। जब मैं वहाँ बैठा था, तो ऐसा नहीं लगा कि यह मैं हूँ। शब्द बस बाहर निकलते गए और वह अनुभव दिल को छूने वाला था,’ आदर्श बताते हैं।