सम्राट और नाग: कहानी प्रतिकार एवं प्रतिशोध की

महाभारत – भाग 80
कृष्ण और पांडव जा चुके थे और क्षत्रियों की नई पीढ़ी हस्तिनापुर में रहने लगी थी जहाँ का सम्राट अर्जुन का पौत्र था। लेकिन अर्जुन की नागों से दुश्मनी उसके वंशजों तक चल रही थी, क्योंकि अतीत की छाया वर्तमान पर मंडराती है। तो क्या ये हिंसा हमेशा चलती रही? अगर नहीं तो फिर कैसे और किसने तोड़ा इस प्रतिशोध के चक्र को? 

शाप से मुक्ति असंभव

सद्‌गुरु: पांडव और उनकी पीढ़ी जा चुकी थी। परीक्षित का राज्याभिषेक हो चुका था। परीक्षित का अर्थ है  जिसे परखा गया हो, या वो जिसकी जन्म के पूर्व परीक्षा ली गई हो। वो एक मृत शिशु था। कृष्ण ने वास्तव में उसे अपना जीवन दिया था। उसे इस तरह बड़ा किया गया था कि वह बड़ा होकर एक राजा बने और शासन करे। 

एक दिन, वह शिकार के लिए बाहर निकला और प्यास से व्याकुल हो गया। वहाँ एक कुटिया थी जहाँ एक योगी ध्यानमग्न बैठे हुए थे। परीक्षित ने योगी से कहा, ‘मुझे प्यास लगी है- मुझे पानी दीजिए।’ योगी ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह दूसरी ही अवस्था में थे। राजा नाराज़ हो गया। जब कोई राजा आपसे आग्रह करे तो आपको उसका पालन करना होता है। उसने चारों ओर देखा और उसे एक मरा सांप दिखा। उसने उसे तीर की नोंक से उठाया और योगी के गले में डाल दिया।

तभी योगी का एक शिष्य वहाँ आ गया। जब उसने ये अपमान देखा, तो वह इतना क्रोधित हो गया कि उसने राजा को शाप दे दिया, ‘तुमने आज मेरे गुरु का जो अपमान किया है, उसके कारण आज से सात दिनों के अंदर तुम सांप के काटने से मर जाओगे। परीक्षित घबरा गया। वह वापस हस्तिनापुर भागा और एक खम्भे के ऊपर एक छोटा सा स्थान बनवाया जहाँ वह रह सकता था, ताकि कोई साँप ऊपर न चढ़ सके।

हस्तिनापुर में लोग बातें करने लगे, ‘हमारे राजा को क्या हो गया है? इनके पिता महा पराक्रमी अभिमन्यु थे। इनके पितामह संसार के सर्वश्रेष्ठ क्षत्रिय अर्जुन थे। फिर हमारे महाराज डरकर ऐसे मचान पर क्यों रह रहे हैं? ये कैसे पुरुष हैं?’ लेकिन राजा सांप के काटने से मृत्यु के भय से सात दिनों तक मचान पर ही रहा। सातवें दिन उसका विश्वासपात्र सेवक उसके लिए फल लेकर आया। जैसे ही उसने फल को काटा उसमें से एक छोटा सा सांप बाहर निकला जिसका आकार तुरंत ही बढ़ गया और उसने राजा को गले पर डस लिया। रक्षकों के आकर उसे बचाने के पहले ही राजा की सर्पदंश से मृत्यु हो गई।

प्रतिशोध का विद्वेषपूर्ण चक्र

जब परीक्षित के पुत्र जन्मेजय ने देखा कि एक नाग के काटने से उसके पिता की मृत्यु हुई है, तो बेहद क्रोधित होकर उसने पंडितों को बुलाया और कहा, ‘अब मुझे सर्प-सत्र-यज्ञ करना है।’ इस यज्ञ में मंत्रोच्चारण से आस-पास के सारे साँप आ-आकर यज्ञ कुंड में गिरकर मर जाते थे। तो, वो अपने पिता की मृत्यु के बदले में सभी साँपों की आहुति देना चाहता था। पंडित भी ख़ुश थे क्योंकि नागों से उनकी अपनी नाराज़गी थी। इसलिए उन्होंने यज्ञ प्रारंभ किया और धीरे-धीरे सभी सांप पास खिंचकर अग्नि में भस्म होने लगे। इस प्रकार सैकड़ों साँप मारे गए।

तब आस्तिक नामक एक नाग ने आकर जन्मेजय से कहा, ‘यह क्रूर यज्ञ बंद करो। तुम्हारे पिता को उनके घमंड और मूर्खता का दंड मिला था। उन्होंने एक योगी का अपमान किया था, इसीलिए उनके शिष्य ने उन्हें श्राप दिया था। तुम्हारे पितामह ने नगर बसाने के लिए खांडव वन जला दिया था। उन्होंने वहां के सभी नागों को जला दिया था और जिसने भी भागने की कोशिश की उसे अपने बाणों से समाप्त कर दिया था। केवल तक्षक बचकर भाग सका था। इतने वर्षों से तक्षक अपने कुल का अंत करने वाले से बदला लेने की प्रतीक्षा कर रहा था, और उसने अपना बदला पूरा किया।

अगर तुमने इन नागों का अंत कर दिया तो कई नाग अनाथ हो जाएंगे, फिर वो भी बदला लेने की शपथ लेंगे। ये बदले और प्रतिशोध का चक्र चलता रहेगा। इस चक्र को यहीं ख़त्म कर दो। मैं तुम्हें ये इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि मेरे पिता मानव हैं और माता नाग। इस वजह से मैं आधा इंसान और आधा नाग हूँ। कृपा करके मेरा विश्वास करो, मैं धर्म की बात कर रहा हूँ।

जन्मेजय ने पूछा, ‘मेरे पितामह के बारे में ये कैसी कथा तुम मुझे सुना रहे हो? तुम ये सब कैसे जानते हो?’ आस्तिक ने उत्तर दिया, ‘बेहतर होगा कि आप ऋषि वैशम्पायन से पूछें। वही सारी कथा अच्छी तरह से बता सकते हैं। उन्होंने ऋषि वैशम्पायन को, जो वेद व्यास के शिष्य थे और सबसे पहले उन्होंने ही वेद व्यास से महाभारत की कथा सुनी थी, बुलावा भेजा। ऋषि वैशम्पायन ने महाभारत की पूरी कथा जन्मेजय को सुनाई। वही कथा हम आज भी सुनते हैं। कहा जाता है कि महाभारत का मूल लिखित संस्करण कहीं नहीं है, क्योंकि वह इतना अद्भुत था कि देवताओं को लालच आ गया और वे उसे चुराकर ले गए।

अंतिम शिक्षा

यज्ञ को रोक दिया गया, और आस्तिक को बड़ा गर्व हुआ, ‘मैंने यज्ञ को रुकवा दिया और नागों का संहार होने से बचा लिया।’ तभी एक सारमा नामक कुत्ता वहाँ से गुजरा और बोला, ‘आस्तिक ने यज्ञ को नहीं रुकवाया है। जिस समय यज्ञ शुरू हुआ था उस समय जन्मेजय और उसके पुत्रों ने, मेरे बच्चों पर यज्ञ को दूषित करने का झूठा इल्ज़ाम लगाकर उन्हें पत्थरों से मारा था। तभी मैंने जन्मेजय को शाप दिया था कि ये नाग-यज्ञ सफल नहीं होगा। यही कारण है कि यज्ञ बीच में ही रोक दिया गया।

आप लोगों के लिए मुख्य शिक्षा यही है कि अपने बारे में जरूरत से ज्यादा मत सोचिए। हमें अपने हिस्से का काम करना चाहिए, और यह केवल छोटा सा हिस्सा है। हम आज जो भी और जैसे भी हैं, उसे हमेशा बहुत से आयाम प्रभावित कर रहे होते हैं।