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आत्मज्ञान – उसे देखना जो आपके अंदर हरदम मौजूद है

क्या आत्मज्ञानी व्यक्ति सबकुछ जानता है? आत्मज्ञानी बनने के लिए किसी को क्या करना चाहिए? सद्‌गुरु इस रहस्य से पर्दा उठाते हैं और बताते हैं कि कोई आत्मज्ञान प्राप्ति के लिए कैसे आगे बढ़े।

सद्‌गुरु: आत्मज्ञान कभी घटित नहीं होता, ये हमेशा मौजूद है। आपकी जो साधना है वो बस यही जानने के लिए है कि वह बस यहीं मौजूद है। आप अपने अंदर दिव्यता को गढ़ने के लिए साधना नहीं कर रहे हैं। आप जो गढ़ेंगे वो केवल अहंकार है। लोग आत्म-विकास की बात करते हैं। आप शरीर, मन, अहंकार का विकास कर सकते हैं। आप आत्म का विकास कैसे कर सकते हैं? जो अधूरा है केवल उसे ही विकसित किया जा सकता है। यदि कोई चीज पहले से ही सर्वव्यापी और अनंत है उसे कैसे विकसित करें?

ज्ञान का मार्ग

साधना किसी चीज़ का निर्माण करने के लिए नहीं है, आपके भीतर दिव्यता का निर्माण करने के लिए भी नहीं। आत्म-ज्ञान के लिए भी नहीं। साधना आपकी आँखें खोलने का तरीका है, जगाने की प्रक्रिया है। अभी आप सत्य के एक स्तर पर अटके हुए हैं।  तो सवाल है कि क्या सत्य के दूसरे स्तर तक पहुँचना स्वतः हो सकता है? कुछ भी होने की जरूरत नहीं है। यहाँ जो भी है, उसमें अगर आप पूरी तरह शामिल हैं, आप उसके परे चले जाएंगे। या फिर अगर आप बिलकुल ही शामिल नहीं हैं, तो वो भी काम करेगा। ये दो तरीके हैं - या तो सौ प्रतिशत शामिल होना या फिर बिलकुल शामिल नहीं होना। तब आप अपनी वर्तमान वास्तविकता को छोड़कर अपने भीतर दूसरी वास्तविकता को देख पाएंगे।

साधना आत्म-ज्ञान के लिए नहीं है, यह आपकी आँखें खोलने का तरीका है।

कभी आत्मज्ञान की चाह मत कीजिए। जिस पल आप उसे चाहने लगते हैं, आप अपनी वर्तमान वास्तविकता में और गहरे धँस जाते हैं। अगर आप चाहेंगे, तो आप उलझ जाएंगे। जब आप बिना कुछ चाहे पूरी तीव्रता से अपनी साधना करते हैं, तब आगे संभावना है। यही आपको सीखना है। अक्सर, जब लोगों को कुछ मिलना नहीं होता है, तो उनमें तीव्रता नहीं आ पाती। पूरी आध्यात्मिक प्रक्रिया यही है। क्योंकि लोगों के पास एक ऐसा मन है जो उनको किसी भी ऐसी चीज़ में पूरी तरह से शामिल नहीं होने देता जिससे उनको कुछ मिलने की आशा न हो। इसी वजह से यह एक बड़ा संघर्ष लगता है। अगर आप बस यह हिसाब लगाना छोड़ दें कि ‘मुझे क्या मिलेगा?’ और फिर अपने आस-पास की हर चीज़ में ख़ुद को बस समर्पित कर दें, तो नब्बे प्रतिशत साधना एक झटके में पूरी हो जाएगी।

बुद्ध बड़ी तीव्रता के साथ खोजते रहे और कई तरह से ख़ुद को मूर्ख बनाते रहे। छः सालों की साधना में उन्होंने ख़ुद को लगभग खत्म ही कर लिया था। जब उन्हें इन सबकी व्यर्थता का अहसास हुआ, तभी उन्हें आत्मज्ञान मिला। उन्होंने देखा, ‘आख़िर चाहिए क्या? वो क्या है जो मैं खोज रहा हूँ? मैं अपने बारे में क्या जानना चाहता हूँ जब हर चीज़ यहीं है?’ दरअसल आत्म-ज्ञान जैसी कोई चीज़ नहीं होती, केवल आत्म होता है, बस। आत्म के बारे में ज्ञान का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह केवल स्थिर होना है। जब आप स्थिर हैं, हर चीज आत्म है।

देखना बनाम जानना

जब कोई ज्ञानी हो जाता है तो वो बिल्कुल मूर्ख बन जाता है क्योंकि अब वो कुछ नहीं जानता, और वह कुछ जानने की परवाह भी नहीं करता। बाकी सब लोग बहुत कुछ जानते हैं। एक आत्मज्ञानी कुछ नहीं जानता लेकिन हर चीज़ जैसी है, उसे उसी रूप में देखता है। बाक़ी लोग हर चीज़ जानते हैं, लेकिन जो उनके सामने है और जो उनके भीतर है, उसे नहीं देख पाते हैं। एक बार अगर आप सब कुछ स्पष्ट देखने लगे तो कुछ जानने में आपकी रुचि नहीं रहेगी, क्योंकि आपकी जानकारी, आपके द्वारा निकाला गया नतीजा है। अब आपको केवल देखना है। आप कुछ भी जान नहीं सकते, क्योंकि यहाँ वास्तव में जानने लायक कुछ है ही नहीं।

एक आत्मज्ञानी कुछ नहीं जानता लेकिन हर चीज़ जैसी है, उसे उसी रूप में देखता है।

आप जो हवा अपनी सांस में लेते हैं उसमें जानने लायक क्या है? एक वैज्ञानिक कहेगा, इसमें ऑक्सीजन, कार्बन डाईऑक्साइड, वगैरह है। ये सब आपको जीवन नहीं देंगे। कैसे सांस लेना है ये जानने से जीवन घटित नहीं होता। कुछ दूसरे मक़सद के लिए आप ऑक्सीजन, नाइट्रोज़न, हाईड्रोजन आदि के बारे में जान सकते हैं। लेकिन जीवन के घटित होने के लिए आपको जानने की ज़रूरत नहीं है। हमें मालूम है कि इसे सांस में कैसे लेना है, कैसे अपने भीतर रखना है, कैसे छोड़ना है और इसके साथ क्या करतब करना है। यही जीवन को समृद्ध करता है।

बस वह करना, जिसे किए जाने की ज़रूरत है 

हर यंत्र जो आप बनाते हैं, वो केवल आपके जीवन के विस्तार एवं गहराई के लिए है। यदि वह मक़सद पूरा नहीं होता तो आप जो भी बना रहे हैं, वह कोई मायने नहीं रखता। एक इमारत बनाने के लिए हमें बिजली, पंप, आदि की जरूरत होती है। ये सब तभी फायदेमंद हैं जब वो हमारे जीवन का विस्तार करें। नहीं तो उनके बिना दुनिया ज्यादा अच्छी होगी। बस एक पेड़ के नीचे रहना कहीं ज़्यादा अच्छा होगा। अगर आप इमारत में जरूरत से ज़्यादा काम करें ये आपका पूरा जीवन ले लेगा। लेकिन एक पेड़ पर ‘जरूरत से ज़्यादा काम करने’ जैसा कुछ नहीं होता है। पेड़ बस वहाँ है, और आप भी उसके साथ उसी पेड़ के नीचे रह सकते हैं ।

आप सोच सकते हैं, ‘ये कैसी जिंदगी है?’ लेकिन दूसरे लोग कौन सा बेहतर जीवन जी रहे हैं? जब आप तुलना करते हैं केवल तभी कोई बेहतर लग सकता है। दूसरे लोग सोच सकते हैं कि आप बेहतर हैं, लेकिन जीवन के स्तर पर देखें तो, कोई क्या बेहतर कर रहा है? खाना, सोना, बच्चे पैदा करना - केवल यही कर रहे हैं न लोग। हमें कुछ ऐसा करना है जिससे दुनिया में सुविधाएँ बढ़ाई जा सकें, लेकिन आख़िर किस सीमा तक  - यह हमें ज़रूर पता होना चाहिए। क्योंकि इन सुख-सुविधाओं के साथ हमनें कई बीमारियों को बुला लिया है- शरीर और मन दोनों में। अगर हम जरूरत से ज़्यादा करेंगे, तो ये आत्मघाती होगा।

संपूर्ण स्वतंत्रता

ख़ुद को जानना ही वो संतुलन है। तब आप किसी चीज़ के साथ या उसके बिना, एक पूर्ण मानव की तरह जीवन जी सकते हैं। तब बाहर आप केवल वही करेंगे जो परिस्थिति की मांग है, आप खुद के लिए कुछ नहीं करेंगे। यही मुक्ति आपको मिलती है। जब आप अपनी ज़रूरत के लिए कुछ करते हैं, तो वो आपको बांधता है। धीरे-धीरे, अनजाने में, आप उसमें इतना उलझ जाते हैं कि बाहर आने का रास्ता ही नहीं रहता। लेकिन अगर आप सिर्फ़ इसलिए कुछ करते हैं, क्योंकि वह हालात की ज़रूरत है, तो एक दिन जब उसकी ज़रूरत नहीं रह जाती, आप वह काम छोड़ सकते हैं, और इसमें कोई बंधन नहीं होता है।

हम जिसे ज्ञान या आत्म-ज्ञान कहते हैं वो बस यही है। ये आपको ऐसी आज़ादी देता है कि आपका अस्तित्व पूर्ण हो जाता है। आपको ख़ुद को पूर्ण महसूस करने के लिए कुछ करने की, कुछ सोचने की, कुछ अनुभव करने की ज़रूरत नहीं है। आप स्वयं में पूर्ण हैं।