चर्चा में

सद्‌गुरु के प्रेरक संस्मरण: शुरुआती कार्यक्रम की कुछ यादें 

23 सितंबर 1982 को चामुंडी हिल पर सद्‌गुरु को आत्मज्ञान का अनुभव हुआ और तब से ही उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया ताकि वे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों तक अपना अनुभव पहुँचा सकें। हर व्यक्ति को अपनी चरम प्रकृति तक पहुँचने में मदद करने की अपनी कोशिश में उन्होंने  ईशा योग कार्यक्रमों को आयोजित करना शुरू किया। इसके प्रति उनकी गहन प्रतिबद्धता ने उन्हें कभी-कभी हास्यास्पद और कभी कठिन परिस्थितियों में भी पहुँचा दिया। सद्‌गुरु हैदराबाद में अपने पहले कार्यक्रम की कुछ घटनाएँ बताते हैं।

बैंक में . . . आकर्षण बिंदु बनना

सद्‌गुरु: यह 1983 की घटना है। हैदराबाद की वो पहली क्लास मुझे खास तौर पर याद है। मैं जब वहाँ पहुँचा, तब शहर में किसी को भी नहीं जानता था। किसी ने मुझे बताया था कि वहाँ एक बैंक मैनेजर है जो मेरी मदद कर सकता है। तो मैं उनसे मिलने पहुँच गया। वो कामकाज का दिन था, मैंने दो घंटे तक वहाँ इंतजार किया। फिर मैं उनके ऑफिस में चला गया। मैंने उन्हें बताया कि मैं यहाँ एक ‘इंट्रोडक्शन प्रोग्राम’ देने के लिए आया हूँ। उन्होंने कहा, ‘वो मुझे बता चुके हैं। बैठिए।’ मैंने कहा, ‘ठीक है।’

वो अपने काम में लगे रहे। बीच में जब दो मिनट का ब्रेक दिखा, मैं खड़ा हो गया। मैं डेनिम और एक पुरानी सी शर्ट पहने हुए था। बैंक मैनेजर के ऑफिस में बिना उसकी इजाज़त के, मैंने अपना परिचय देना शुरू कर दिया। वो भौंचक रह गए। मैं बोलता गया। पंद्रह मिनट तक मैंने अपना परिचय दिया। तभी एक कर्मचारी फाइल के साथ अंदर आया। मैंने उसे देखते ही कहा ‘रुको।’ वो वहीं रुक गया और मेरा परिचय सुनने लगा।

आतिथ्य हासिल करना

परिचय के बाद, मैंने बैंक मैनेजर से कहा, ‘मैं एक होटल में ठहरा हूँ, लेकिन मैं वहाँ नहीं रह सकता क्योंकि मैं दो महीने रुकने का सोचकर आया हूँ। इसलिए मुझे किसी के घर में रुकना होगा।’

उन्होंने परखते हुए मुझे ऊपर से नीचे तक देखा। उस समय मैं समझ नहीं पाया, लेकिन बाद में समझ में आया कि वे मुझे ऐसे क्यों देख रहे थे। दरअसल उनके घर में चार लडकियाँ थी, और मैं एक जवान लड़का था। वो सोच रहे थे कि मुझे घर ले जाएँ या नहीं। फिर वो बोले, ‘ठीक है, मेरे साथ घर चलिए।’ मैं केवल डिनर के लिए निमंत्रित था। वहाँ उनकी पत्नी और चार लड़कियाँ थीं- सबसे बड़ी उन्नीस साल की और सबसे छोटी नौ साल की थी। भोजन के दौरान मैंने अपना थोड़ा और परिचय दिया। तब उन्होंने कहा, ‘जाइए और तुरंत अपना सामान ले आइए।’

मैंने रात में ही होटल छोड़ा और उनके घर रहने आ गया। मैं उनके साथ लगातार ढाई महीने रहा। पूरा परिवार एक तरह से मेरा अपना हिस्सा बन गया था।

एक सिपाही की सेना

मैं अपनी मोटरसाइकिल पर पैंफलेट्स, अपना स्पीकर, अपना माइक्रोफोन सब रखे एक जगह से दूसरी जगह जा-जाकर इन्ट्रोडक्शन देता था। वहाँ दस लोग हैं या पंद्रह लोग, एक सौ लोग या फिर पाँच सौ लोग- नंबर से मुझे फर्क नहीं पड़ता था। मुझे याद है एक दिन तो मैंने 37 जगह अपना इन्ट्रोडक्शन दिया था।

मैंने एक क्लास के लिए प्रतिभागियों को जमा किया। उस समय ईशा योग क्लास 14 दिनों की होती थी, पर मेरा सत्र एक साथ 8 बैचेज में चल रहा था- एक दिन में 4 और फिर अगले दिन चार – यानी एक दिन छोड़कर उनकी क्लासेज़ होती थीं। इस तरह से क्लासेज़ 28 दिन तक चलीं। हैदराबाद के अपने पहले प्रोग्राम में मैंने 8 बैचेज में 462 लोगों को शामिल कर लिया था।

मैं अपनी आँखे बंद करके भी अपने दिन बिता सकता हूँ, तो काम करने की जरूरत ही क्या है? जब मैंने पढ़ाना शुरू किया, तो दरी बिछाने से लेकर दरवाजा खोलने और साफ-सफाई तक हर काम एक व्यक्ति के द्वारा किया जा रहा था। मैं अपनी सेना का इकलौता सिपाही था।

पहली क्लास सुबह पाँच बजे चिक्काडपल्ली में होती थी, फिर अगली क्लास दस बजे अमीरपेट में, फिर दोपहर के सेशन के लिए वापस चिक्काडपल्ली और शाम का सेशन सिकंदराबाद में। दरी से लेकर माइक्रोफोन और स्पीकर सब मुझे अपनी मोटरसाइकिल पर एक जगह से दूसरी जगह ढोना पड़ता था।

हैदराबाद का ट्रैफिक बहुत खराब होता था। मैं अक्सर सुबह 9.30 पर एक जगह से निकलता और दूसरी जगह पहुँचने के लिए पागलों की तरह भागता था। वहाँ, क्लास चौथी मंजिल पर होती थी। सारा सामान चौथी मंजिल पर पहुंचाते हुए मैं खुद पसीने में तर-बतर हो जाता था। तब गर्मी का मौसम था और दरी बिछाने और सब करने के बाद मैं पसीने में डूब चुका होता था। मैं क्लास के लिए ऐसे नहीं जा सकता था, तो वहीं क्लास रूम में ही अपने कपड़े बदलता था।

अपनी जान की बाजी क्यों?

मैं हॉल में प्रोग्राम करते हुए इधर से उधर चलता रहता। माइक्रोफोन ज्यादातर काम नहीं करता था इसलिए मैं दिन में 12 घंटे ऊँची आवाज़ में, बिना रुके, बोलता रहता था। कभी-कभी तो रात में मेरे गले से खून आने लगता था। उस गर्मी में कहीं भी मुझे तरल पदार्थ दिखता तो मैं पी लेता था। प्रोग्राम के आधा खत्म होते तक मुझे कुछ हो गया और मुझे तेज़ बुखार आने लगा।

वहाँ एक विशाल महात्मा गाँधी हॉल था, जहाँ सुबह 4 बजे हठयोग का प्रोग्राम होता था। मैं वहाँ भोर में पहुँचा और वहाँ एक आदमी ने मुझे परिचय देने के लिए 5 मिनट का समय दिया। मैंने वहाँ खड़े होकर 5 मिनट का इन्ट्रोडक्शन दिया, तब तक मैं सर से पैर तक पसीने में भीग चुका था। उस आदमी ने मुझे देखा। उसे आयुर्वेद का भी ज्ञान था इसलिए मैंने उससे अपने बुखार का उपाय पूछा।

उसने मुझे जल धौति करने को कहा, मतलब सात ग्लास नमक का पानी पीना और उल्टी करके बाहर निकालना। मैंने इसे पिया और उल्टी कर बाहर भी निकाला। मैंने 4 दिनों तक ऐसा किया। मुझे कमज़ोरी महसूस हो रही थी और बुखार अभी भी चढ़ रहा था। मैंने पहले अपनी क्लास ख़त्म की, फिर सीधे डॉक्टर के पास गया और कुछ एंटीबायोटिक दवाइयाँ खाई।

इस बुखार ने अगली क्लास में बहुत से लोगों को भर्ती करवा दिया। मैं एक होटल की छत पर बने रेस्टोरेंट में लोगों को संबोधित करने गया। वहाँ करीब 200 लोग थे। मैं बुखार के कारण सिर से पैर तक पसीने में सराबोर था। लेकिन मैंने अपना परिचय जारी रखा, और वहाँ जमा लोगों में से आधे लोगों ने क्लास के लिए नाम लिखा लिया।

वो इसलिए आए क्योंकि सबने सोचा, ‘आखिर ये क्या चीज़ है जिसके लिए ये आदमी अपनी जान दांव पर लगा दे रहा है? हम नहीं जानते वो क्या सिखाने वाला है। लेकिन इस हालत में भी ये यहाँ खड़ा होकर साफ बात कर रहा है। बात भी मतलब की कर रहा है- हम भी चलकर देखते हैं कि ये है क्या चीज़।’ 

और फिर सारी क्लासें फ़ुल हो गईं।