पहाड़ों से मिलन
सद्गुरु: हिमालय - ये भव्य पर्वत, बचपन से मुझे मोहित करते रहे हैं। बहुत सी किताबें और तस्वीरें मेरे सामने आती रहीं जिन्होंने हिमालय पर ट्रेकिंग की मेरी इच्छा की आग को और भड़काने का काम किया। हालाँकि इन पर्वतों ने कईयों की धार्मिक आशाओं और आध्यात्मिक लालसाओं को प्रेरित किया है, लेकिन मैंने कभी उन्हें इस नज़रिए से नहीं देखा।
सितम्बर 1993 की बात है। मैं हरिद्वार पहुँच गया और बिना जाने कि कहाँ जाना चाहिए, मैं बद्रीनाथ की ओर चल पड़ा। पहाड़ों से गुज़रते हुए, उन्हें निहारते हुए सोलह घंटे की वह बस यात्रा सबसे यादगार रही। ऐसा लगा जैसे माँ के गर्भ में वापस जाने का रास्ता मिल गया है। आज भी मुझे उस रास्ते का करीब-करीब हर मोड़ याद है। जब मैं बद्रीनाथ पहुंचा अँधेरा हो गया था और ठंढ लग रही थी। कोई गरम कपड़ा नहीं- मैंने सिर्फ जींस, टी-शर्ट और जूते पहने थे। बर्फबारी शुरू होने के पहले किसी तरह मैंने सर छिपाने के लिए जगह ढूंढ़ ली।
अगले दिन, मैं एक कप चाय के लिए बाहर निकला - लगता था ठंड से बचने का यही एकमात्र सहारा था। ठिठुरते हुए, हाथ बांधे मैं ‘टी-कड़ै’ यानी चाय की दुकान पर गया। मेरे कमरे की चाभी जो मैंने हाथ में रखी थी, ठंड से हाथ सुन्न हो जाने के कारण फिसलकर ज़मीन पर गिर गई। मैं उसे उठाने के लिए झुका, फिर जब मैंने वापस ऊपर देखा तो जो दृश्य सामने था उसका वर्णन एक बेहतरीन कवि भी अच्छी तरह नहीं कर सकता। मैं एक घाटी में था जहाँ घुप्प अंधेरा था, लेकिन बर्फ से ढके पहाड़ की सफ़ेद चोटी पर सुनहरी धूप बिखरी हुई थी। इसने मुझे पूरी तरह से मंत्रमुग्ध कर दिया। जो वहाँ मेरे सामने था उसके आगे, मैंने जो कुछ सुना, पढ़ा, देखा और मन में सोच रखा था, वो सब बिल्कुल बेमानी थे। जवाब में मेरे पास केवल मेरे आँसू थे - और तब मैंने जान लिया कि ये पुर्नमिलन के आँसू हैं।