सद्गुरु कृष्ण के बचपन के कुछ रोचक किस्से बताते हुए यह भी बता रहे हैं कि राधा और कृष्ण की भेंट सबसे पहले कैसे हुई और कैसे वे कृष्ण के जीवन और कृष्ण की कथाओं का अभिन्न हिस्सा बन गईं।
सद्गुरु: कृष्ण ने बड़े ही गर्व और ख़ुशी से कहा, ‘मैंने माखन चुराया, अगर मैं माखन नहीं चुराऊँ तो गाँव में कुछ उत्साह और मज़ा नहीं रह जाएगा। जब गांव वाले मेरी माँ से शिकायत करने आते हैं तो मैं उसके पीछे छिपकर गांववालों को प्यार भरी नज़रों से देखता हूँ और वे मुस्कुराने लगते हैं।’
जब कृष्ण 5-6 वर्ष के हुए तो वे अपनी शरारतों में और माहिर हो गए और गांववाले, जो अपने माखन से हाथ धो बैठते थे और भी परेशान हो गए। उनकी माँ के पास कई शिकायतें आने लगीं। ये सब यशोदा माँ के लिए अब थोड़ा ज़्यादा होने लगा था। जब यशोदा माँ उन्हें डांटती थीं तो वे कई प्रकार से छल करके उन्हें मना लेते थे। कभी-कभी वे अचानक रोने लगते, ज़मीन पर गिरकर शोर मचाते और किसी न किसी तरह से अपनी माँ का ध्यान अपनी ओर खींच लेते।
एक दिन कृष्ण को अच्छे से डांट पड़ी। वे धान कूटने की ओखल (लकड़ी का एक बड़ा सा टुकड़ा) के ऊपर बैठे थे। यशोदा माँ एक रस्सी लेकर आईं और बोलीं, ‘तुम बहुत बदमाश हो गए हो। तुम कब सुधरोगे? ये तुम्हें सबक़ सिखाने के लिए है।’ और उन्होंने कृष्ण को उस ओखल से बाँध दिया। पहले उन्होंने रोकर माँ का ध्यान अपनी ओर खींचने की कोशिश की, लेकिन माँ ने जब कोई ध्यान नहीं दिया तो वे गुस्सा हो गए और अपनी पूरी ताकत लगा दी।
ये उनकी आयु के किसी सामान्य बालक के लिए संभव नहीं था, लेकिन वे उस भारी ओखल को खींचकर बाहर ले आए। ये दोपहर का समय था। सारे गांववाले अपने-अपने कामों में व्यस्त थे और किसी की नज़र उन पर नहीं पड़ी। तो वे ओखल को खींचते-खींचते जंगल की तरफ निकल गए, क्योंकि सारे ग्वाले, उनके मित्र, और बड़े लोग वहीं होंगे। आखिरकार वे अपनी माता को सबक सिखाना चाहते थे, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि उनकी माता का इतना क्रोध ठीक नहीं था।
जब वे वन की ओर जा रहे थे तो रास्ते में 2 बड़े पेड़ों के बीच से गुज़रते हुए उनसे बंधा हुआ ओखल पेड़ों के बीच फंस गया। उन्होंने ओखल को इस ताकत से खींचा कि वे दोनों पेड़ जड़ से उखड़कर ज़मीन पर गिर पड़े। कृष्ण थक गए थे और उन्हें खरोचें भी आई थीं। वे बैठ गए और इंतज़ार करने लगे। उनकी माँ नहीं आईं। ऐसा लग रहा था कि उनकी माँ अब भी नाराज़ थीं या फिर उन्हें पता ही नहीं था कि वे बाहर निकल आए हैं, तो वे रोने लगे।
तब उन्होंने 2 लड़कियों की आवाज़ को अपनी तरफ आते हुए सुना। वे नहीं चाहते थे कि वे लड़कियाँ उन्हें रोते हुए देखें। वे ऐसा दिखाना चाहते थे कि वे तो बिलकुल ठीक हैं और उनकी माँ परेशान है। तो वे एक मधुर मुस्कान लिए वहीं बैठे रहे। एक छोटी लड़की और एक उससे थोड़ी बड़ी लड़की थी। कृष्ण ने पहचान लिया कि छोटी लड़की 'ललिता' थी जो उनके साथ खेलती थी। वे बड़ी लड़की को नहीं जानते थे जो करीब 12 साल की थी। लेकिन उन्हें वो बड़ी अच्छी लगी।
दोनों ने आकर उनसे पूछा, ‘तुम्हें क्या हुआ? कौन है जिसने तुम्हें इस तरह बाँध दिया? कितना निर्दयी है वह!’ वह 12 साल की लड़की राधा थी। जिस क्षण से राधे ने उस 7 वर्ष के बालक पर अपनी नज़रें डालीं, वे हमेशा के लिए उसकी आँखों में बस गए, चाहे वे शरीर से वहाँ मौजूद हों या न हों। राधे और कृष्ण एक दूसरे के साथ ऐसे जुड़ गए थे कि आज इतने वर्षों के बाद भी हम उन दोनों को अलग-अलग नहीं देख सकते। 16 वर्ष की उम्र के बाद उन्होंने राधे को अपने जीवन में दोबारा कभी नहीं देखा।
कृष्ण ने अपने जीवन में इतने बड़े-बड़े काम किए और इतने लोगों से मिले लेकिन वे 9 साल जो उन्होंने 7 से 16 वर्ष का होने तक राधे के साथ बिताए, उन्होंने राधा को अपना अभिन्न अंग बना लिया। राधे के शब्दों में, ‘मैं उनमें जीती हूँ, वे मुझमें जीते हैं, और मुझे बस यही चाहिए। मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वो कहाँ हैं, किसके साथ हैं। वे केवल मेरे साथ ही हैं, वे कहीं और नहीं हो सकते।’ जिस क्षण से उसने इस 7 साल के नन्हें से बालक को देखा था, वे एक दूसरे से अभिन्न हो गए थे। यहाँ तक कि आज 3000 साल बाद भी आप इन दोनों को अलग-अलग नहीं कर सकते।
तो राधे ने उन्हें उस ओखली से खोलने की कोशिश की। कृष्ण ने कहा, ‘ऐसा मत करो, मैं चाहता हूँ कि मेरी माँ इसे खोले जिससे कि उनका क्रोध शांत हो जाएँ। अगर तुमने इसे खोला तो हो सकता है कि वो क्रोधित ही रह जाएं। अगर वे मुझे खोजते हुए आईं और इसे खोला तो इससे उनका क्रोध शांत हो जाएगा। फिर उन लड़कियों ने पूछा, ‘क्या हम तुम्हारे लिए कुछ और कर सकते हैं?’ कृष्ण ने ललिता से कहा, ‘जाओ मेरे लिए थोड़ा पानी ले आओ।’ वे उसे कुछ देर के लिए दूर हटाना चाहते थे।
राधे और कृष्ण साथ-साथ बैठे रहे - एक 7 साल का बालक और एक 12 साल की लड़की। और वे दोनों उस पहली भेंट में ही कई मायनों में एक दूसरे में मिल गए। इसके बाद कोई उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं कर पाया। जीवन उन्हें इस तरह अलग-अलग दिशा में ले गया कि 16 वर्ष की आयु के बाद उन्होंने राधे को कभी नहीं देखा लेकिन वे फिर भी एक ही रहे।
कृष्ण को अपनी बांसुरी पर बड़ा गर्व था जो निश्चित रूप से बड़ी सम्मोहक थी। वे बड़ों के लिए मुरली के जादूगर थे। वे जब भी अपनी मुरली बजाते थे तो गांववाले, गायें और बाकी पशु उनके आस-पास इकठ्ठा हो जाते थे। लेकिन जिस दिन से वे वृन्दावन छोड़कर राधे से शारीरिक तौर पर दूर चले गए, उस दिन के बाद उन्होंने कभी मुरली नहीं बजाई। उन्होंने अपनी मुरली राधे को दे दी और उस दिन के बाद राधे मुरली बजाने लगी।
राधा-कृष्ण की ये बाल-लीला एक नए आध्यात्मिक मार्ग की शुरुआत थी। राधे-पंथी राधे की आराधना करते हैं, कृष्ण की नहीं। क्योंकि उन्होंने अपने प्रेम और समावेश के भाव में कृष्ण को अपना अभिन्न अंग बना लिया था। वे कहते हैं, ‘राधे के बिना कृष्ण नहीं है।’ इसका उल्टा नहीं, ऐसा नहीं है कि, ‘कृष्ण के बिना राधे नहीं हैं, बल्कि राधे के बिना कृष्ण नहीं हैं।’
यह सद्गुरु एक्सक्लूसिव श्रृंखला – ‘लीला: कृष्ण की बाल लीलाएं’ से लिया हुआ एक अंश है। इसकी सम्पूर्ण श्रृंखला के लिए सद्गुरु एक्सक्लूसिव को सब्सक्राइब करें।