क्या आप कभी-कभी थका हुआ महसूस करते हैं और जीवन को सम्पूर्णता में नहीं जी पाते? इस लेख में सद्गुरु खुद को हमेशा ‘ऑन’ रखने या कहें 'सम्पूर्णता में जीने' के बारे में स्पष्ट करते हुए बताते हैं कि कैसे आप अपनी भावनात्मक क्षमता का फ़ायदा उठाकर अपने जीवन में एक आनंदपूर्ण माहौल बनाए रख सकते हैं।
प्रश्नकर्ता: नमस्कारम सद्गुरु, मेरा प्रश्न हमेशा ‘फुल-ऑन’ रहने के बारे में हैं। जब हम आश्रम में होते हैं तब मैंने ऐसा कुछ अनुभव किया है जिसे मैं ‘हमेशा फुल-ऑन’ रहना कह सकता हूँ। लेकिन जब मैं अपने रोज़मर्रा के जीवन में चला जाता हूँ जहाँ मेरा परिवार, काम और काम-ख़त्म करने की समय-सीमा है, तो यह अनुभव कहीं खो जाता है। इस ‘फुल-ऑन’ को कैसे बरकरार रखा जाए। क्या मुझे ऊँचे स्तर के कार्यक्रम करने चाहिए?
सद्गुरु: ‘फुल-ऑन’ का मतलब यह नहीं है कि आप बाहरी चीजों के सेवन से उत्तेजित रहें। मुख्य बात ये है कि आप अपने अनुभव के स्तर पर ‘फुल-ऑन’ या कहें कि सम्पूर्ण रहें। गतिवधि की दृष्टि से ‘फुल-ऑन’ के कोई मायने नहीं हैं। आप चाहें जितना काम कर लें, कुछ ज़्यादा और कुछ बेहतर करने की गुंजाइश हमेशा रहेगी। सवाल यह है कि क्या आपके जीवन का अनुभव सम्पूर्ण है? अनुभव में सम्पूर्णता का परम उद्देश्य यह है कि आप हर चीज़ को उसी रूप में अनुभव करें जैसे वह है।
हरेक चीज को उसी रूप में अनुभव करने में शामिल है - आपकी साँसें, पेड़-पौधे, आपका भोजन और सम्पूर्ण ब्रह्मांड। इस ब्रह्माण्ड में होने वाली एक घटना को वैज्ञानिक ‘एंटैंगल्मेंट’ यानी ‘उलझन’ के नाम से बुलाते हैं। हालांकि योग ने सदैव इसके लिए 'सामंजस्य' शब्द का उपयोग किया है। सम्पूर्ण ब्रह्मांड सामंजस्य में है, तालमेल में हैं। कुछ भी असम्बद्ध नहीं है। हर एक परमाणु इस जगत की हर दूसरी वस्तु के साथ तालमेल में है। नहीं तो इस प्रकार का जटिल तंत्र काम नहीं करता। तो अगर आप उस सामंजस्य की स्थिति में आ जाएं तो मैं कहूंगा कि आप ‘फ़ुल ऑन’ यानी सम्पूर्णता में हैं। लेकिन अभी वो बहुत दूर मालूम होता है।
उसी तरह यह मेरा मन है और वह आपका मन है। हो सकता है कि कुछ समय हम एक दूसरे से सहमत हों और सोचें कि हम एक ही हैं, लेकिन अगले ही पल आप देखेंगे कि यह मेरा मन है और वह उनका मन है। लेकिन मेरा जीवन और आपका जीवन जैसा कुछ नहीं होता है। जीवन एक ब्रह्मांडीय घटना है। यह एक जीवित ब्रह्मांड है। इसमें से मैंने थोड़ा सा ग्रहण किया है, आपने थोड़ा सा ग्रहण किया है। आपके जीवन का अनुभव कितना गहरा है ये इस बात पर निर्भर करता है कि आपने इसे कितना ग्रहण किया है। इसलिए योग प्रणाली ऐसी क्रियाएँ और रीतियाँ बताती है जिससे आप जीवन की एक बड़ी संभावना बन सकें।
ज्यादा काम करने से, ज्यादा सोचने से या दूसरों से बेहतर चीजें इकट्ठी कर लेने से नहीं, बल्कि यहाँ केवल एक जीवन बनकर रहने से आपकी मौजूदगी व्यापक हो सकती है। ये संभव है लेकिन इसके लिए कुछ तैयारी आवश्यक है। यह साबुन के बुलबुले उड़ाने जैसा है - आपको अभ्यास करना होगा। अगर हम साबुन के बुलबुले उड़ा रहे हों और मान लीजिए मेरा बुलबुला आपसे बड़ा बन जाए, तो मैं कह सकता हूँ - उस बड़े बुलबुले को देखो, वो मेरा है। लेकिन अगले ही पल दोनों बुलबुले फट जाएं, तब मैं ये दावा नहीं कर सकता कि ‘यह मेरी हवा है।’ अब सारी हवा एक ही है।
तो शाम्भवी महामुद्रा खुद को बहुत ऊर्जावान बनाने के लिए या ज़्यादा काम करने के लिए नहीं है। वो फायदा तो बस एक नतीजा है। कभी नतीजे के लिए कार्य मत कीजिए। मान लीजिए आप एक आम का पेड़ लगाते हैं। तो आपको जो करना है वो बस इतना कि मिट्टी, खाद, पानी, धूप और पौधे के पोषण का ध्यान रखना है। अगर पौधा ठीक से बड़ा हो गया तो आम अपने-आप आएंगे।
समस्या यह है कि लोगों की रुचि केवल आम में है, पौधे में नहीं। और मिट्टी के नीचे जो है – जड़ें, उसमें तो किसी की बिलकुल भी रुचि नहीं है। अगर आपको केवल आम चाहिए तो आखिरकार सब कुछ केवल हवाई रह जाएगा। आप उन आमों को खा नहीं पाएंगे। जीवन इस तरह काम नहीं करता।
तो आपको केवल इस जीवन की क्षमता बढ़ानी है। ज्यादा काम करने की कोशिश मत कीजिए, नहीं तो ये आपको मार डालेगा। आज हर कोई तनाव, मानसिक बीमारी जैसी चीज़ों के बारे में इस तरह से बात कर रहा है जैसे ये कोई सामान्य चीज हो। यह इस हद तक बढ़ गया है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) कह रहा है कि मानसिक महामारी की आशंका है।
महामारी का क्या मतलब है? इसका बुनियादी अर्थ यह है कि अगर कुछ लोगों को एक समस्या है तो आखिरकार हम सब उस समस्या के घेरे में आ जाएंगे। जब हम मानसिक महामारी के बारे में बात करते हैं तो इसका मतलब है कि एक समय आएगा जब करीब-करीब सभी लोग पागल कहलाएंगे। ये स्थिति बहुत दूर नहीं है। जब लोग ये सोचने लगें कि दुख सामान्य बात है, इसका मतलब है कि वे पहले ही पागल हो चुके हैं।
यही तो पागलखाने में भी होता है। डॉक्टर को छोड़कर वहाँ सभी को लगता है कि वे सामान्य हैं। आपको ये समझना होगा कि आपको कष्ट किसी दूसरे की वजह से नहीं हैं। आपको कष्ट इसलिए है, क्योंकि आप नहीं जानते कि अपनी भावनाओं और विचारों को कैसे सँभाला जाए। अगर आपका एक भी हिस्सा वह न करे जो आप चाहते हैं तो आप कष्ट में रहेंगे। अगर आपकी कोई उँगली भी आपकी मर्ज़ी के बग़ैर आपकी आँख की तरफ़ बढ़ने लगे और आँखों को कोंचने लगे तो आपको कष्ट होगा, ये चीज आपको अंधा बना सकती है।
इसी तरह आज आपकी भावनाएं और विचार उछल रहे हैं, आपको कोंच रहे हैं जिससे आप केवल अंधे ही नहीं बल्कि बीमार हो रहे हैं। ये सब इसलिए हो रहा है क्योंकि आप जीवन को टुकड़ों में सँभालने की कोशिश कर रहें हैं, ये सोचते हुए कि इस हिस्से को या उस हिस्से को कैसे ठीक करूँ। पूर्ण विकसित होने का यह अर्थ नहीं है कि किसी पागल की भांति केवल काम करते जाएँ। पूर्ण विकसित होने का अर्थ है कि आपके जीवन का अनुभव सम्पूर्ण हो।
इसे इस तरह से देखते हैं। अभी संपूर्ण होने के बारे में मत सोचिए। केवल उसके लिए जरूरी माहौल तैयार कीजिए। संपूर्ण होने के लिए यह जरूरी है कि आपका स्वभाव आनंदमय हो। अगर आपकी भावनाएं और विचार आप जैसा चाहें वैसे काम करें तो आप आनंदमय होंगे। आनंद एक लक्ष्य नहीं है, आनंद इस जीवन को संवारने के लिए एक जरूरी माहौल है।
अगर आप उस माहौल का निर्माण न करें और सोचें कि हम किसी भी तरह से अपना आनंद हासिल कर लेंगे, तो जो आनंद मिलेगा वह बस इस बात से मिलेगा कि आपके आसपास के सब लोग आपसे कमतर हैं। यह आनंद नहीं है - यह एक बीमारी है। तो आपको अगले स्तर के कार्यक्रम करने चाहिए? एक क्षण में जो हो सकता है उसे करने में पूरा जीवन और कई कार्यक्रम लग जाते हैं क्योंकि अधिकाँश लोग किश्तों में आते हैं। अगर आप हमारे पास पूरी तरह से आएं तो हम ये आपके लिए एक क्षण में कर देंगे।
आपके लिए और आपके जैसे कई लोगों के लिए एक कार्यक्रम है – ‘भाव स्पंदन।’ ये पूरी तरह से भावनाओं की काया-पलट करने का कार्यक्रम है। पिछली पीढ़ियों की अपेक्षा आज की पीढ़ी को इसकी ज़्यादा ज़रूरत है। देखा जाए तो 21वीं सदी की पीढ़ी एक तरह से भावनात्मक क़ब्ज़ से जूझ रही है। वे हर तरह की बातें करेंगे, लेकिन अपने भीतर कुछ भी सही तरह से व्यक्त नहीं कर पाते। ये ठीक नहीं है। आपकी भावनाओं में एक मुक्त प्रवाह होना चाहिए क्योंकि भावना एक बहुत बड़ी शक्ति है।
लोगों के बीच ये गलत धारणा है कि भावुक होना एक कमज़ोरी की निशानी है। जैसे दुख एक भावना है वैसे ही आनंद भी एक भावना है। अब वो भावना सुखद है या दुखद, ये अलग बात है। भावना एक कमज़ोरी नहीं है, बल्कि एक शक्ति है जो मनुष्य को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करती है। आप में से अधिकांश लोगों के लिए आपकी सबसे बड़ी ताकत आपकी भावना है, न आपका शरीर, आपकी बुद्धि या आपकी ऊर्जा।
जब आप किसी चीज के प्रति भावनात्मक रूप से आवेश में होते हैं तभी आप पूरी गति से उस दिशा में जाते हैं। लेकिन इस पहलू को आज अभिव्यक्ति नहीं मिल रही है क्योंकि लोगों के मन में हिसाब करते रहने की प्रवृत्ति बहुत बढ़ गई है। आप जितना भी हिसाब करते हैं वह एक सीमित बुद्धि से आता है जो एक सीमित आंकड़ों के साथ काम करती है। आपके जितने भी निष्कर्ष इस दुनिया के प्रति और आपके आसपास के जीवन के प्रति हैं वे इसी पर आधारित हैं। यह ब्रह्मांड कुछ ऐसा है कि न तो वैज्ञानिक और न ही धर्मगुरु जानते हैं कि ये कहाँ शुरू हुआ और कहाँ समाप्त होगा।
ये करोड़ों टुकड़ों में बँटी किसी पहेली के समान है लेकिन आप केवल 5 टुकड़े खोज पाते हैं और निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि यह कैसा दिखेगा। ऐसा न करना ही सबसे अच्छा होगा। अगर आप अपनी बुद्धि को सक्रिय रखना चाहते हैं तो आपको ये समझना होगा कि आप दरअसल अपने जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते। क्या आप जानते हैं कि आप कहाँ से आए हैं और कहाँ जाएंगे? कुछ चीज़ें जो हमने समझी हैं, वो केवल सामाजिक तौर पर महत्वपूर्ण हैं, लेकिन अस्तित्व के स्तर पर आप अपने जीवन के बारे में कुछ नहीं जानते। अगर आप इस बात को समझ लें कि 'आप नहीं जानते' तो आपकी बुद्धि सतर्क हो जाएगी।
जब आपका शरीर सोता है तब भी आपकी बुद्धि को सतर्क रहना चाहिए। यह जीवन के लिए ज़रूरी है। अगर आप धर्म, दर्शन, सिद्धांत या अपने खुद के बनाए हुए नतीजों को मानकर अपनी बुद्धि को सोते रहने दें तो आप जीवन के सार को खो देंगे। जीवन कुछ ऐसा है कि आखिरकार हम सब हारने वाले हैं क्योंकि हमारे पास समय ही इकलौती संपत्ति है। बाकि सब केवल कल्पना है। हमारे पास केवल समय है और वह लगातार हमारे हाथों से निकलता जा रहा है। तो वैसे भी आप हारने वाले हैं - कम से कम आनंद में हारिए।