योग और विवेक

धर्म और स्वधर्म : दोनों में अंतर क्या है?

सद्‌गुरु धर्म के वास्तविक अर्थ को समझाते हुए धर्म और स्वधर्म के बीच का अंतर बता रहे हैं, साथ ही कर्म करने से पहले खुद को योग में स्थापित करने के महत्व को भी समझा रहे हैं।

प्रश्नकर्ता: नमस्कार सद्‌गुरु! महाभारत में श्री कृष्ण स्वधर्म के बारे में बात करते हैं। धर्म और स्वधर्म में क्या अंतर है?

स्वधर्म: भौतिक नियमों से परे जीवन को जीना

सद्‌गुरु: धर्म मज़हब नहीं है, जैसा कि आजकल इसे समझा जाता है। धर्म का मतलब है ‘नियम’। एक परम नियम है जो हर जीवन को, चेतन और अचेतन को, यहाँ तक कि निर्जीव चीजों को भी नियंत्रित कर रहा है। स्व का मतलब हैं ‘स्वयं’, इसलिए स्वधर्म का मतलब है ‘स्वयं का नियम’। यह खुद के स्वभाव और वो कैसे काम करता है, इस बारे में है। जैसे भौतिक के लिए नियम हैं, स्वयं के लिए भी नियम हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि आपको स्वयं के नियम के अनुसार जीना चाहिए, भौतिक नियम के अनुसार नहीं। 

अगर आप भौतिक नियमों के अनुसार जीवन जीते हैं, तो आज हम मित्र हो सकते हैं और कल शायद कुछ और हो जाएँ। शायद कल हम झगड़ रहे हों। यह केवल राष्ट्रों, समुदायों और सामाजिक तबकों में ही नहीं हो रहा, बल्कि सबसे करीबी रिश्तों- पति और पत्नी के बीच, पिता और पुत्र के बीच, माँ और बच्चों के बीच भी हो रहा है। क्योंकि यह भौतिक नियम है। आप वहाँ बैठे हैं, मैं यहाँ बैठा हूँ, अगर हमें अच्छा लगेगा, हम गले मिलेंगे, लेकिन अगर हम एक दूसरे के सर पर बैठ जाते हैं, यह नहीं चलेगा।

स्व का मतलब हैं ‘स्वयं’, इसलिए स्वधर्म का मतलब है ‘स्वयं का नियम’।

मान लेते हैं वहां एक मच्छर बस बैठा हुआ है, आप शायद उसे छोड़ देंगे। लेकिन अगर वो आपको डंक मारने लगे, आप फ़ौरन उसे हथेली से मसल देंगे। भौतिक का यही स्वभाव है। वैसे ही जब अर्जुन विलाप करते हैं, ‘मैं अपने भाइयों, अपने पितामाह और अपने गुरु को कैसे मार सकता हूँ, जो युद्ध क्षेत्र में मेरे विपरीत खड़े हैं?’ तब श्री कृष्ण कहते हैं, ‘एक योद्धा के रूप में तुम्हारा धर्म युद्ध करना है। अगर तुम भाग जाते हो, तुम्हें एक कायर के रूप में देखा जाएगा, एक शांति-प्रिय व्यक्ति के रूप में नहीं। तुम्हे शांति की बात पहले करनी चाहिए थी। अब जब तुम युद्ध के मैदान में हो, तुम्हें उन्हें मारना होगा। यह तुम्हारा या उनका फैसला नही है, भौतिक की प्रकृति ऐसी ही है।’

सीमाओं को तोड़ने से पैदा होती मुश्किलें

भौतिक का अस्तित्व सीमाओं के साथ है। अगर सीमाओं को तोड़ा जाता है, तो मुश्किलें आती हैं। मान लेते हैं आपका दुश्मन अपनी सीमा पार करता है, मुश्किल आती है। आपके पड़ोसी, मित्र, जीवनसाथी, संतान, बल्कि दुनिया में हर किसी के साथ यही होता है। हर किसी के लिए सीमा है, बेशक वे आपको कितने भी प्रिय क्यों न हों। भौतिक संसार में चीज़ें सही तरीक़े से केवल तभी चल सकती हैं जब हम सीमाओं का पालन करते हैं। सीमा का कोई भी उल्लंघन हिंसा पैदा कर सकता है। शुरुआत शब्दों से हो सकती है, जिसके बाद धक्का मुक्की होगी, और फिर मार-पीट तक बात जा सकती है। यह मत सोचिए कि आपके साथ ऐसा नहीं होगा। समय आने पर आप भी ऐसा ही करेंगे। भौतिक का यही तरीक़ा है।

स्वधर्म का पालन करने के लिए, आपको अपने भीतर की ओर मुड़ना होगा।

श्री कृष्ण कहते हैं अगर आप यह संघर्ष नहीं करना चाहते हैं, तो आपको अपने स्वधर्म का पालन करना चाहिए, स्वयं के होने का तरीक़ा, जहाँ कोई सीमा नहीं है। फ़िर आप यहाँ बैठकर किसी और जगह हो सकते हैं, या फ़िर आप यहाँ बैठकर कहीं भी नहीं हो सकते हैं। जिसका मतलब है कि कोई उल्लंघन नहीं होगा, आप किसी की सीमा का अतिक्रमण नहीं करेंगे, न कोई दूसरा आपकी सीमा का अतिक्रमण करेगा। अगर आप इसका अनुभव करते हैं, तो मुझे आपको युद्ध करने के लिए बोलने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन अगर आप भौतिक नियमों में जीते हैं और युद्ध को नकारने की कोशिश करते हैं, तो यह काम नहीं करेगा, आपको लड़ना ही होगा।

स्वधर्म का पालन करने के लिए, आपको भीतर की ओर मुड़ना होगा। अगर आप भौतिक नियमों में जीते हैं, तो टकराव बस एक कदम की दूरी पर है। आपको उन्हें चकमा देना होगा, नहीं तो आप निश्चित तौर पर किसी से टकराएंगे। हर जीवन का अपना धर्म होता है। एक चीज जो किसी के लिए अच्छी है, शायद किसी दूसरे के लिए अच्छी न हो। राजा के लिए एक धर्म है, एक योद्धा के लिए दूसरा धर्म है। पति के लिए एक धर्म है, पत्नी के लिए दूसरा धर्म है। माता-पिता का एक धर्म है, संतान का धर्म कुछ और है। यह सब अलग-अलग स्वार्थ हैं, और लोगों के धर्म का टकराव किसी भी समय हो सकता है।

खुद को योग में स्थापित करना 

इसीलिए श्रीकृष्ण ने कहा है, ‘योगस्थ कुरु कर्माणि,’ जिसका मतलब है, ‘पहले खुद को योग में स्थापित करो, फिर कर्म करो।’ योग एक धर्म है, जिसका मतलब है एकत्व। पहले खुद को योग में स्थापित करें, फिर आपका जो भी धर्म है, उसे तय करें और इस तरह तय करें कि आप किसी भी समय किसी से न टकराएं। इसलिए, दुनिया में कोई भी कर्म करने से पहले खुद को योग में स्थापित करना चाहिए। जब कर्म की बात आती है, हम सब का धर्म अलग होता है।

दुनिया में कोई भी कर्म करने से पहले खुद को योग में स्थापित करना चाहिए।

आपको अपने धर्म को इस तरह बनाना चाहिए कि भीड़ के बीच से निकलने में भी आपको कम से कम बाधा झेलनी पड़े। किसी भी तरह से कुछ न कुछ बाधा और घर्षण तो होगा ही, लेकिन अगर आप बहुत ज़्यादा घर्षण पैदा करते हैं, तो आप कहीं नहीं पहुंचेंगे। इस संस्कृति में यह विवेक कहीं गहरा बैठा हुआ है। अभी हाल ही में जब दुनिया में हो रहे टकराव के बारे में पूछा गया तो इस देश के एक राजनीतिक नेता ने बस एक वाक्य में कहा, ‘यह युद्ध का युग नहीं है।’ क्योंकि हम छड़ी या तलवार से नहीं लड़ रहे, हमारे युद्ध के साधन ऐसे हैं कि यह युद्ध का युग नहीं रह गया। अगर आप चीज़ों का उस तरह से समाधान करना चाहेंगे, तो घर्षण सब कुछ जला देगा।

योग - वास्तविक स्वधर्म 

इस समय, लोग न्यूक्लीयर युद्ध की संभावना के बारे में बात कर रहे हैं, मानो यह किसी भी समय हो सकता है। अगर कोई एक दो गलतियां कर दे तो यह हमें उस दिशा में ले जा सकता है। इसलिए सबसे पहले खुद को योग में स्थापित करना होगा। योग-आसनों का मक़सद आपकी मांसपेशियों को मज़बूत बनाना नहीं है, बल्कि यह स्थिरता के लिए है। ‘स्थिर सुखम आसनम’ - आपका आसन आरामदायक और स्थिर होना चाहिए।  

अगर आप ब्रह्मांडीय चेतना को नहीं समझ सकते, तब भी आप इतना समझ सकते हैं कि हम सब एक ही मिट्टी से बने हैं, और हम इसी मिट्टी में मिल जाएंगे। हम सबके शरीर एक जैसी सामग्री से बने हैं। आप शायद खुद का अनुभव एक शरीर के रूप में कर रहे होंगे, लेकिन यह शरीर भी हर चीज़ के साथ एकत्व में है। हम सब एक ही हवा से सांस ले रहे हैं। एक बार जब आप इस बात के प्रति सचेतन हो जाते हैं कि यह सब एक ही है, फिर आप किसी भी दिशा में जाएं, आप अपने लिए ऐसा धर्म बनाएँगे जो आपको कम से कम प्रतिरोध के साथ जीवन से गुजरने में मदद करेगा। यही स्वधर्म है।