जागरूक जीवन

अगर पेड़-पौधों में भी जीवन है तो उन्हें खाएँ कैसे ?

क्या आपको लगता है कि जानवरों और पेड़-पौधों में भावनाएं होती हैं? हो सकता है आप अपने इस्तेमाल के लिए साग-सब्जी उगाते हों और आप इस बात की दुविधा में हों कि जिन पेड़-पौधों की आप प्यार से देखभाल करते हैं, उनका सेवन कैसे किया जाए। इस लेख में सद्‌गुरु बताते हैं कि इस दुविधा को संवेदनशीलता और समावेश के साथ कैसे संतुलित किया जा सकता है।

प्रश्नकर्ता: सद्‌गुरु, मैं खुद को पेड़-पौधों की माँ समझती हूँ। मैं अपना खाना खुद प्राकृतिक तरीके से उगाती हूँ और मैं दूसरों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित करती हूँ। मुझमें जानवरों के प्रति भी एक माँ जैसा भाव है। जानवरों के भाव तो सहज जाहिर हो जाते हैं लेकिन मुझे यक़ीन है कि पेड़-पौधे भी प्रतिक्रियाएं व्यक्त करते हैं, कुछ के साथ तो मैं एक जुड़ाव भी महसूस करती हूँ। ऐसे में मैं उन्हें खा कैसे सकती हूँ?

सद्‌गुरु: आप पूछ रही हैं कि क्या आप अपने बच्चों को खा सकती हैं। उसे खाना जिसे आप अपने बच्चे के समान समझती हैं, अच्छा है, क्योंकि तब आप उन्हें ज्यादा नहीं खाएंगे। आप उन्हें नष्ट करने से बचेंगे और उसके प्रति ज़्यादा संवेदनशील रहेंगे जिसका आप उपभोग करते हैं।

समावेश की भावना के बिना सामर्थ्य: तबाही की तैयारी होगी

किसी भी इंसान को ऊँची संभावनाओं के लिए क्षमता प्रदान करने से पहले और उन्हें किसी भी विशेष क्रिया के लिए दीक्षा देने से पहले हम ये सुनिश्चित करते हैं कि वे अपने भीतर ये संवेदना लाएँ कि ‘मैं इस विश्व के लिए माँ समान हूँ।’ इसके बिना हम उन्हें कोई शक्तिशाली साधन नहीं देते हैं, क्योंकि समावेश की भावना के बिना मिली क्षमता एक खतरनाक वस्तु है। चाहे ये आपके व्यक्तिगत स्वभाव के बारे में हो या आपके परिवार, समाज, राष्ट्र, धर्म, जाति के स्तर पर हो - ये चीज़ें खतरनाक शक्तियां बन चुकी हैं। और इनकी वजह से ही पिछली कई सदियों में सबसे ज़्यादा लोगों की मृत्यु हुई है।

जब आप कहते हैं, ‘मेरा वर्ग, मेरी जाति, मेरा परिवार, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र, मेरा ये, मेरा वो,’ तो ये दरअसल समावेश का अभाव है। जब आपमें समावेश की भावना नहीं है तो बेहतर है कि आप में सामर्थ्य भी न हो। सामर्थ्य के अभाव में आप थोड़ा नुकसान करेंगे। लेकिन अगर क्षमता हो तो आप बहुत बड़ा नुकसान कर सकते हैं।

विश्व के लिए एक माँ बनकर रहना और प्रत्येक जीवन के लिए संवेदनशील होना बेहतर है।

आज एक पीढ़ी के तौर पर हम लोग अति-सामर्थ्यवान हैं। हज़ार साल पहले जो हज़ार लोग कर पाते थे आज एक आदमी कर लेता है क्योंकि हमें विज्ञान और तकनीक की वजह से क्षमता हासिल है। जब ऐसी स्थिति हो तो विश्व के लिए एक माँ बनकर रहना और प्रत्येक जीवन के लिए संवेदनशील रहना बहुत आवश्यक है। आप खाए बिना ज़िंदा नहीं रह सकते, इसलिए आपको खाना तो है। अगर आपको अपने बच्चों को खाना हो तो आप उन्हें कैसे खाएंगे? शुरुआत में आपको कष्ट होगा लेकिन बाद में आप समझौता कर लेंगे।

अगर आपको उसे नष्ट करना पड़े जिसकी आप परवाह करते हैं तो आप उसे कम से कम नष्ट करेंगे। आप कभी भी जरूरत से ज्यादा नहीं करेंगे। अगर ऐसा आपके खाने के अलावा आपकी गतिविधियों और आपके क्रिया-कलापों के साथ भी हो, तो कई तरह से आपकी आस-पास की दुनिया ही बदल जाएगी। चीजों को ज़्यादा स्पष्ट करने के भ्रम में मत फँसिए। ये मत सोचिए कि जानवर चिल्ला सकते हैं तो वे प्रतिक्रिया दे रहे हैं, और पेड़-पौधे चिल्ला नहीं रहे तो उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती। किसने कहा कि वे चिल्लाते नहीं हैं। इस दुनिया का प्रत्येक जीवाणु अपने ही तरीके से चिल्ला रहा है।

जीवन के प्रति संवेदनशील बनिए

जब मैं ‘मिट्टी बचाओ’ यात्रा पर था तब हर कोई मुझसे पूछता था, ‘आपको ये सब कैसे पता? क्या आप कोई मिट्टी के वैज्ञानिक हैं या कोई पर्यावरण साइंटिस्ट हैं? मैं कोई मिट्टी का वैज्ञानिक नहीं हूँ और पर्यावरण साइंटिस्ट तो बिलकुल भी नहीं हूँ। मैं इस धरती पर मौजूद किसी भी एक कृमि की तरह हूँ। अगर आप किसी कृमि से पूछें तो क्या उसे पता नहीं होगा कि उसके आसपास की मिट्टी में क्या हो रहा है। वह निश्चित तौर पर जानता है क्योंकि ये उसके जीवन को प्रभावित करता है। ये आपके जीवन को भी प्रभावित करता है लेकिन इसे समझ पाने के लिए आप बहुत असंवेदनशील हो गए हैं।

आपका ध्यान इस ओर इसलिए नहीं जाता है क्योंकि आपके दिमाग में जो चल रहा है वो जीवन में होने वाली घटनाओं से कही ज़्यादा महत्वपूर्ण हो गया है। नहीं तो यह आसानी से आपकी नज़र में आ जाएगा। अगर आप किसी को अपने ही एक भाग के रूप में देखते हैं तो स्वाभाविक तौर पर आप संवेदनशील रहेंगे। पेड़-पौधों की माँ, जानवरों की माँ, जैसी बातों को छोड़िए – इस पहलू को देखने का यह एक बहुत ही नादानी भरा तरीका है। लेकिन क्या इस दुनिया में ऐसा कुछ है जो किसी भी तरह से वाक़ई आपका हिस्सा न हो। इतने साल जो आप जीवित हैं, आपको पता नहीं है कि आपकी साँसें किन-किन पेड़ों, जीव या जंतुओं में पहुँची हैं।

अगर आप किसी को अपने ही एक भाग के रूप में देखते हैं तो स्वाभाविक तौर पर आप संवेदनशील रहेंगे।

किसी न किसी तरह से आप हरेक चीज से जुड़े हुए हैं। जीवन के प्रति संवेदनशील होना और अपने आसपास के जीवन को अपने हिस्से के रूप में महसूस करना बहुत महत्वपूर्ण है। एक नारी के तौर पर आपको लगता है कि सबको समाहित करने का तरीका सबकी माँ बनना है तो वो ठीक है, लेकिन 'मम्मी' बनने की कोशिश न करें क्योंकि ये 'मम्मी' ज्यादातर मूर्खतापूर्ण काम करती है। वे आनुवंशिक और अंदरूनी तौर पर पूर्वाग्रहों से ग्रसित होतीं हैं। ये 'मम्मी' के स्वभाव में है कि अपने बच्चों के पक्ष में पूरी तरह से पूर्वाग्रहों में रहे, अपने बच्चों को सुरक्षित रखने के लिए उसके लिए ये ज़रूरी है।

ज़िंदा रहने की जद्दोजहद से आगे देखें:

आप किसी भी चीज का तब तक आनंद लेते हैं जब तक वो आपके पक्ष में है। जब वो आपके विपरीत हो जाता है तो आप देखेंगे कि ये कितना बुरा है। यही जीवन-संरक्षण की सहज-वृत्ति है। इसे हर जगह लागू मत कीजिए क्योंकि यह वृत्ति हमेशा ‘तुम बनाम मैं’ की होती है। मनुष्य के पास ऐसी बुद्धि है जो खुद को बचाए रखने की इस सहज-वृत्ति के आगे देख सकती है। उसके विकसित होने की आवश्यकता है। बुनियादी तौर पर दो चीजें आपके भीतर होती हैं - जीवित रहने की वृत्ति और विस्तार की प्रवृत्ति। 

आपको विस्तार की प्रवृत्ति को मज़बूत करना चाहिए न कि जीवित रहने की वृत्ति को। क्योंकि इस स्तर की बुद्धि और सामर्थ्य के साथ अगर आप जीवित रहने की वृत्ति को मजबूती देंगे तो ये बहुत ही घातक सिद्ध होगा।