ईशा संस्कृति

भक्ति की लय :

ईशा संस्कृति का छात्र कैसे एक पारंगत मृदंगम वादक बन गया

ईशा संस्कृति के पूर्व छात्र और मृदंगम वादक अश्विन सुब्रह्मण्यम, एक शिष्य के जीवन की एक दुर्लभ झलक हमें दिखलाते हैं और साझा कर रहे हैं अपनी यात्रा - लय के लिए अपनी दीवानगी के शुरुआती दिनों से लेकर इस भारतीय शास्त्रीय ड्रम की जटिलताओं को सीखने और मंच पर अपनी प्रस्तुति देने तक की।

एक मृदंगम कलाकार का जीवन

आश्रम में जिधर ईशा संस्कृति है, उधर से ढोल के बजने और खिलखिलाने की आवाज़ें आ रही हैं। महाशिवरात्रि उत्सव से पहले, युवा कलाकार अपनी मंच प्रस्तुतियों की तैयारी कर रहे हैं, जहां वे उन भारतीय शास्त्रीय कलाओं को प्रदर्शित करेंगे, जो सालों से उनके जीवन का अंग रही हैं। जब विद्यार्थी ब्रेक लेने और बॉल गेम का मज़ा लेने जाते हैं, तो अश्विन दो मुंह वाले ड्रम, मृदंगम में विशेषज्ञता हासिल करने वाले ईशा संस्कृति के पूर्व छात्र के रूप में अपना अनुभव हमारे साथ साझा करने आ जाते हैं।    

भारतीय शास्त्रीय संगीत या नृत्य की एक उल्लासमय प्रस्तुति के दौरान, भले ही दर्शक नर्तकों की मुद्राओं की सुंदरता या गायकों की आवाज़ की मिठास पर ध्यान दें, लेकिन इस अनुभव को पूर्ण बनाने में एक प्रतिभाशाली मृदंगम कलाकार के कौशल की जरूरत पड़ती है।

यह दो मुंह वाला ड्रम कर्नाटक संगीत प्रस्तुतियों और भरतनाट्यम नृत्य प्रस्तुतियों के लिए मुख्य ताल वाद्य यंत्र है। ‘लाइव ऑर्केस्ट्रा नर्तक या गायक को ऊर्जा देता है और पूरी प्रस्तुति के मिजाज में इजाफा करता है,’ अश्विन यह कहते हुए साझा करते हैं, ‘उदाहरण के लिए, नर्तक किसी खास जगह पर उदासी व्यक्त करने की कोशिश कर रहा है। उस समय मंच के बगल में मौजूद संगीतकार को उदासी की उस गहराई को पकड़कर उसे दर्शकों तक पहुंचाने में सक्षम होना चाहिए।’

लय में आना

एक लाइव प्रस्तुति के दौरान इतनी बारीक बातों को समझने में सक्षम होना कोई छोटी उपलब्धि नहीं है, और यह लय और ताल के प्रति स्वाभाविक झुकाव के साथ सालों के गहन प्रशिक्षण का नतीजा है। 5 साल की उम्र में अपने माता-पिता के साथ यहाँ आने के बाद से अश्विन ईशा योग केंद्र का हिस्सा रहे हैं। ‘मेरे पिता थोड़ा मृदंगम बजाते हैं, इसलिए मेरा भी ताल और वाद्ययंत्रों की ओर झुकाव था। लेकिन आश्रम में ज़्यादा रहने से मेरे भीतर लय और ताल समा गया। मैं इसे लगातार सुनता था, इसलिए मेरे अंदर उसके लिए दीवानगी पैदा हो गई।’

2005 में ईशा होम स्कूल के पहले बैच में शामिल होकर अश्विन उसमें अच्छी तरह रम गए। लेकिन कुछ साल बाद, बदलाव आने वाला था, ‘जब 2008 में ईशा संस्कृति खुली, तो मेरे पिता चाहते थे कि मैं इसमें शामिल हो जाऊं। शुरू में मैंने दृढ़ता से मना कर दिया लेकिन अंत में एक साल की ट्रायल अवधि के लिए तैयार हो गया।

ईशा संस्कृति का पाठ्यक्रम ईशा होम स्कूल से काफी अलग था। संगीत और नृत्य का अभ्यास पाठ्येतर गतिविधियों के रूप में करते हुए और साथ में पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित करने से अब अश्विन पूरे दिन भारतीय शास्त्रीय कलाओं की पेचीदगियों को सीखने में लग गए। ‘अचानक मैं लंबे समय तक संगीत, भरतनाट्यम नृत्य और कलारीपयट्टू कर रहा था। हम लगातार व्यस्त दिनचर्या के साथ इस गतिविधि में इतने रमे हुए हैं, कि ऐसा लगता है मानो हमने कल ही शुरुआत की हो।’

वह सत्संग अश्विन को अब भी साफ-साफ याद है, जिसमें सद्‌गुरु ने उनके बैच का परिचय कराया था और उन्हें ईशा संस्कृति के कपड़े दिए थे, वह साझा करते हैं, ‘मैं उस पल को बहुत सँजोकर रखता हूँ। वह मेरे लिए एक नई शुरुआत थी। तब से वे 10 साल यूँ ही उड़ गए और मुझे रूपांतरित कर गए।’

मंच के किनारे से चमक बिखेरते हुए

शुरू में, अश्विन ने ईशा संस्कृति में सभी विषय लिए, और आखिरकार मृदंगम में विशेषज्ञता हासिल की। जब किसी कला रूप में महारत हासिल करने की बात आती है तो स्वाभाविक प्रतिभा केवल शुरुआत होती है। अश्विन कहते हैं, ‘मुझे बहुत सारी बारीकियां सीखनी थीं। क्योंकि मैं फ्री सोलो ड्रमिंग नहीं कर रहा हूँ, जिसकी एक निश्चित संरचना और नज़रिया है।’ कई कलाकार सेंटर स्टेज रहते हुए स्पॉटलाइट में रहना चाहते हैं, लेकिन अश्विन की भूमिका सूक्ष्म प्रकृति की है, जिसके बिना भारतीय शास्त्रीय संगीत की प्रस्तुति पूरी नहीं होगी। उनकी ट्रेनिंग में संगीतकारों और नर्तकों के साथ अभ्यास करना, उनके साथ इस तरह से बजाना सीखना शामिल था, जो दर्शकों के लिए एक तालमेल भरा सामंजस्यपूर्ण अनुभव पैदा करे।

मंच के किनारे होने की अपनी चुनौतियाँ होती हैं, और इसके लिए व्यक्ति को बहुत ग्रहणशील होने और तीव्र गति से रेस्पॉन्ड करने की जरूरत होती है। ‘मेरे लिए, सबसे चुनौतीपूर्ण चीज़ किसी नृत्य प्रस्तुति के लिए एक संगत के रूप में बजाना है,’ वह ईमानदारी से साझा करते हैं, ‘क्योंकि आप वहाँ अपना संगीत बजाने के लिए नहीं हैं - आप कलाकार को सपोर्ट कर रहे हैं। साथ ही, आप मृदंगम की सुंदरता को सामने लाते हैं।’ इस वाद्य यंत्र के लिए अपने प्यार और सराहना से, अश्विन दूसरे कलाकारों के साथ बैठकर संगीत रचना को महसूस करते हैं, नृत्य की ताल और कलाकारों की अभिव्यक्ति को पहचानते हैं, और उसी के अनुसार बजाते हैं। ‘संगीत और नृत्य में हमेशा तालमेल होना चाहिए,’ वे मुस्कुराते हुए कहते हैं।

हमेशा एक छात्र

लय की मूल बातों से शुरू करते हुए, जिसमें बहुत सारा गणित शामिल है, अश्विन ध्वनियों और मौन का अभ्यास, गणना और विश्लेषण करते हैं, जब तक कि वे उनके साथ घुल-मिल नहीं जाते। वे कहते हैं, ‘अगर गायक या नर्तक कुछ ऐसा कर रहा है, जिसकी पहले से योजना नहीं है तो आपको उसे तुरंत समझना होगा और उसी के अनुसार बजाना होगा।’ ईशा संस्कृति में, छात्र व्यवस्थित तरीके से इस प्रक्रिया में विकास करते हैं, क्योंकि वे कई अलग-अलग विशेषज्ञता और नज़रिए वाले अलग-अलग शिक्षकों के संपर्क में आते हैं।

‘जब आप व्यक्तिगत रूप से किसी शिक्षक के साथ होते हैं, तो ऐसा नहीं है कि वे कुछ सिखाते हैं और आप उसे दोहराते हैं। आप वह सब कुछ देखते हैं जो वे करते हैं, वे कैसे वाद्य यंत्र की देखरेख करते हैं, कैसे उसे ट्यून करते हैं, किसी संगीत को बजाते समय उसे कैसे लेते हैं। आप यह देखते हैं और आत्मसात करते हैं,’ अश्विन साझा करते हैं।

इस संवेदनशीलता और छोटी-छोटी बारीकियों पर ध्यान देते हुए, आधिकारिक तौर पर ईशा संस्कृति में अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद भी, वह पाते हैं कि कई अलग-अलग तरीकों से सीखना अब भी उनके जीवन का हिस्सा बना हुआ है। पहली बार मंच संगत करते समय यह सोचकर कि क्या वह अच्छा बजा रहे हैं या नहीं, अपनी घबराहट को याद करते हुए, वह कहते हैं, ‘अब भी थोड़ी-बहुत घबराहट होती है, लेकिन वह कम हो गई है, और फोकस बढ़ गया है। मैं हमेशा देखता हूँ कि मैं कैसे खुद को माँज सकता हूँ, थोड़ा और बेहतर हो सकता हूँ। कोई प्रस्तुति खत्म करने के बाद, मैं हमेशा पीछे मुड़कर देखता हूँ कि मैं कहाँ बेहतर बजा सकता था।’ प्रस्तुतियों को अपनी कला में विकास करने के एक अवसर के रूप में देखते हुए, वह अपनी आँखों में उत्साह की चमक के साथ कहते हैं, ‘हर बार मंच पर आना पूरी तरह से एक नया अनुभव होता है। हर बार नया महसूस होता है।’

वह दूसरे मृदंगम कलाकारों के साथ बजाते हुए या उन्हें सुनते हुए अपने पहले ही मँजे हुए कौशल को और विकसित करते रहते हैं। ‘एक निश्चित चरण के बाद, जब आप अपनी पसंद के किसी संगीत को सुनते हैं, तो आप देख सकते हैं कि कलाकार क्या कर रहा है और आप उसे अपनी शैली में ढालकर बजा सकते हैं। इसके लिए आपको किसी से सीखने का इंतज़ार करने की जरूरत नहीं है। इस लिहाज से यह प्रक्रिया सदाबहार और कभी न खत्म होने वाली है।’

शास्त्रीय कलाओं को जीवंत रखने की कोशिश

‘पहले के समय में, मृदंगम की बॉडी मिट्टी से बनी होती थी, लेकिन बाद में उसे लकड़ी में बदल दिया गया, क्योंकि लोगों के जीवन का तरीका बदल गया,’ अश्विन बताते हैं। आज फिर, बदलते समय के साथ, बदलाव के संकेत मिलते हैं - इस बार कला के संचार के तरीके में, ताकि इसे ज्यादा दर्शकों तक पहुँचाया जा सके। प्रोजेक्ट संस्कृति के संगीत मॉड्यूल के हिस्से के रूप में, अश्विन ने ऑनलाइन पाठों को बनाने में मदद की जो भारतीय शास्त्रीय संगीत को दुनिया के कोने-कोने में ले जाते हैं।

‘चूंकि यह एक लाइव सत्र नहीं है जहाँ अलग तरीके से चीज़ें ग्रहण की जाती हैं, ऑनलाइन में हमें ज्यादा सावधान रहना होता है कि हम क्या कहने की कोशिश कर रहे हैं और इसे कैसे व्यक्त करें ताकि लोग उसे समझ सकें।’ अपनी कला में महारत के स्तर के साथ-साथ अपने काम के प्रति समर्पण से ईशा संस्कृति के छात्रों और पूर्व छात्रों को नए माध्यम में अपने कला रूपों की शुद्धता को बनाए रखने में मदद मिलती है।

हालांकि सिखाने का तरीक़ा बदल रहा है, लेकिन उसकी विषय-वस्तु प्राचीन काल से वैसी ही है। ‘हम ऐसे लोगों को थोड़ा-बहुत सिखा सकते हैं, जिनके पास इसमें लगाने के लिए बहुत ज्यादा समय नहीं है। हम जो कुछ सिखा सकते हैं, और उससे वे जो ग्रहण कर सकते हैं, यही एकमात्र तरीका है जिससे हम कला को बचा सकते हैं। हम कोशिश करते हैं कि लोग इसकी सुंदरता को देखें, और ये कला रूप लुप्त न हो जाएं।’