फिलिप गोल्डबर्ग: मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि कर्म पर अपनी किताब में, आपने कर्म के बारे में कुछ आम गलतफहमियों को दूर किया है। एक तो यह कि अधिकांश लोग कर्म को पुरस्कार और दंड की एक व्यवस्था के रूप में देखते हैं, मानो वह किसी प्रकार की न्याय-व्यवस्था हो। और दूसरी यह कि यह एक तरह का भाग्यवाद है यानी सब कुछ पहले से ही तय है, जबकि हक़ीक़त इसकी उल्टी है। क्या आप इन पहलुओं के बारे में विस्तार से बता सकते हैं?
सद्गुरु: यह मज़ेदार है कि आपने ‘न्याय-व्यवस्था’ शब्द का इस्तेमाल किया। हाँ, लोग उसके बारे में बिलकुल ऐसा ही सोचते हैं। अधिकांश देशों की न्याय-व्यवस्था में, चाहे आपने कुछ भी किया हो, आपको अपना बचाव करने और अपनी बात रखने का एक मौका मिलता है। लेकिन इस प्रकार की न्याय व्यवस्था में, जिसकी आप बात कर रहे हैं, आपकी कोई भूमिका ही नहीं है – वे बस आपका सर फोड़ देंगे या आपको लटका देंगे। यह एक ‘कंगारू-कोर्ट’ की तरह है, न्याय-व्यवस्था नहीं। क्या कर्म किसी कंगारू कोर्ट की तरह है, जिसमें आपको उस काम को करने के लिए सज़ा दे दी जाती है, जो उनके ख्याल में आपने किया है? ऐसी कोई बात नहीं है। इंसान अपने अंदर बनने वाली तरह-तरह की स्मृतियों का एक संयोजन है। इसकी शुरुआत विकास-संबंधी स्मृति से हुई है- एक अमीबा से लेकर अब तक जितना भी विकास हुआ है, वह सारा आपके सिस्टम में किसी न किसी रूप में दर्ज है।