सद्गुरु: युद्ध के बाद पांडव राजा बनकर हस्तिनापुर में बस गए। युधिष्ठिर ने न्यायपूर्वक राज किया। लेकिन जैसे-जैसे समय बीता, वे अपने हाथों हुई लाखों मौतों को और उस संघर्ष को भूल गए, जिससे उनको और बाकियों को गुज़रना पड़ा था। सबसे बढ़कर कृष्ण के रूप में एक अवतार की मौजूदगी और उनकी बताई बातें – सब कुछ धुँधला पड़ गया। राज्य के रोजमर्रा के मामले उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो गए।
वे अच्छा काम कर रहे थे लेकिन अच्छा करने और दैवी प्रभाव में काम करने के बीच फर्क होता है। अगर जीवन में कृपा हो, तो एक मामूली साधु भी महान हो जाएगा। सोने, हीरे या रेशम के ढेर से शोभा नहीं आती। आप जिस तरह से खुद को रखते हैं, उससे आपमें शोभा आती है। और ख़ुद को उस तरह से रखना तभी हो पाता है, जब दिव्यता आपके साथ हो।
वे सफल हो गए, उन्होंने जीत हासिल की, उन्होंने एक अश्वमेध यज्ञ किया और पूरे इलाके पर अपना शासन फैला लिया। काफी हद तक, सिर्फ युधिष्ठिर ने कृष्ण का हर शब्द याद रखा था और वह अपनी जिम्मेदारियों के साथ यथासंभव उसे जीने की कोशिश कर रहे थे। बाकी भाई धीरे-धीरे राजा बन गए, उन्हें राजा के आस-पास रहने और राजा के भाई बनकर रहने में आनंद आने लगा। वे बहुत अभिमानी नहीं थे, किसी पर अत्याचार नहीं करते थे – वे बस ऐश से जी रहे थे।
Whatever competence and capability you may have will be crippled and not bear fruit when you are arrogant.
जब वे बूढ़े होने लगे, उन्होंने कहा, ‘परीक्षित एक शानदार युवक बन गया है। अब हमें उसका राज्याभिषेक करके अपना जीवन सँवारने की कोशिश करनी चाहिए।’ याद रहे, वे कृष्ण के साथ रहते थे, वे ईश्वर की मौजूदगी में रहते थे, फिर भी उन्हें अपना जीवन खुद सुलझाना था। परीक्षित अभिमन्यु का बेटा और अर्जुन का पोता था। उन्होंने उसे कुरु वंश का राजपाट सौंप दिया और पांडवों ने द्रौपदी के साथ वानप्रस्थ जाने का फैसला किया। जब वे हस्तिनापुर से निकले, तो लोग बड़ी संख्या में इकट्ठा हो गए। वे लोग बहुत लंबे समय तक वहाँ रहे थे। पुरानी पीढ़ी के कई लोगों ने उन्हें तमाम समस्याओं से जूझते और सफलतापूर्वक उनसे निकलते हुए देखा था। छत्तीस साल तक राज करने के बाद, उनका प्रस्थान साम्राज्य के लिए एक महत्वपूर्ण घटना थी।
युधिष्ठिर बोले, ‘चलो मंदार पर्वत पर चढ़ते हैं।’ उन्होंने पैदल चलना शुरू किया और लगातार कई सप्ताह चलते रहे। एक दिन जब चढ़ाई खड़ी थी, द्रौपदी फिसलकर नीचे गिर पड़ी। चारों भाई व्याकुल होकर चिल्लाए, ‘द्रौपदी गिर गई!’ लेकिन युधिष्ठिर ने मुड़कर भी नहीं देखा – वह चढ़ाई चढ़ते रहे। जब वे उनके पास पहुँचे, तो भीम ने पूछा, ‘द्रौपदी को अपने जीवन में कितना कुछ सहना पड़ा है। वह सुख-दुख में हमारा साथ देती रही है। वह क्यों गिर गई? उसने क्या गलत किया?’ युधिष्ठिर बोले, ‘उसने अपने पाँचों पतियों से बराबर प्रेम करने का वादा किया था, लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई। उसने हमेशा अर्जुन से प्रेम किया और एक पत्नी के रूप में उसके साथ ही रहना चाहती थी। हमारे साथ उसने सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया। उसका प्रेम सिर्फ अर्जुन के लिए था। और जब उसे यह पता चला कि कर्ण भी कुंती पुत्र है, तो वह सोचने लगी कि वह उसे भी क्यों नहीं पा सकती। इन दो चीज़ों के कारण, उसका पतन हुआ।’
उन्होंने फिर चलना शुरू कर दिया। थोड़े आगे जाने पर नकुल गिर पड़ा। बाकियों ने पूछा, ‘वह क्यों गिरा?’ युधिष्ठिर बोले, ‘नकुल को सबसे सुंदर पुरुष माना जाता था। उसे अपने रूप पर बहुत गर्व था। उसके घमंड ने उसे गिरा दिया।’ वे आगे चलते रहे। फिर सहदेव गिर पड़ा। उन्होंने पूछा, ‘ऐसा क्यों हुआ? वह तो शायद ही मुँह से कोई शब्द निकालता था।’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘हाँ, वह शायद ही कुछ बोलता था, लेकिन ऐसा अपनी विनम्रता के कारण नहीं करता था, बल्कि इसलिए क्योंकि वह दंभी था।’ फिर भीम गिरा। अर्जुन ने पूछा, ‘भीम क्यों? वह तो इतना प्यारा, पवित्र इंसान था।’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘अपने पेटूपन के कारण, वह इंसान की तरह नहीं, सूअर की तरह खाता था। और उसे दूसरों को कष्ट में देखकर मज़ा आता था।’
अगर आप दूसरे लोगों के कष्ट से खुश होते हैं, चाहे वे जो भी हों, तो आप अपने ही ताबूत में कील ठोक रहे हैं। कई बार ऐसा हो सकता है कि आपके किसी काम से किसी को कष्ट हो, लेकिन आपको उससे खुश नहीं होना चाहिए। अगर आप सोचते हैं कि आप किसी दूसरे के कष्ट से खुश होकर अपने लिए खुशहाली ला सकते हैं, तो यह झूठी खुशी है और भीम की स्थिति वही थी। युधिष्ठिर ने कहा, ‘उसे लगता था कि उसे दूसरे लोगों के कष्ट का मज़ा लेना है, वरना वह पूरी तरह सफल नहीं है। इसलिए वह गिर गया।’
फिर अर्जुन गिर पड़ा, अब प्रश्न पूछने वाला कोई नहीं था। युधिष्ठिर बुदबुदाए, ‘उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ धर्नुधर होने का घमंड था, जबकि वह नहीं था। वह एक महान धर्नुधर था, लेकिन सर्वश्रेष्ठ नहीं। सर्वश्रेष्ठ बनने के लिए, उसने किसी और का अंगूठा कटवा दिया, वह इसके लिए कुछ भी करने को तैयार था। फिर भी वह हमेशा चिंतित रहता था, ‘मान लो कल को कोई तगड़ा युवक आकर मुझसे बेहतर तीर चला लेता है, फिर मैं क्या करूँगा?’ वह लगातार इसी असुरक्षा के साथ जीता था। इसलिए वह गिर गया।’
युधिष्ठिर अकेले चलते रहे। फिर इंद्र ने उन्हें लेने के लिए अपना वाहन भेजा। कहते हैं, कि अगर आप अंत तक पूरी तरह सदाचारी रहते हैं, तो आप सशरीर देवलोक में प्रवेश कर सकते हैं। इसका अर्थ है कि आप उसका आनंद ले सकते हैं। अगर आप अपने शरीर के बिना देवलोक जाते हैं और अच्छा खाना खाने की कोशिश करेंगे, तो वह नष्ट हो जाएगा।
तो, युधिष्ठिर को उनके भौतिक शरीर के साथ बुलाया जाने वाला था। वाहन आया और देवलोक के दूतों ने कहा, ‘आइए, हम आपको लेने आए हैं। लेकिन यह कुत्ता कौन है?’ युधिष्ठिर ने मुड़कर देखा तो उनके पीछे एक कुत्ता था। उन्होंने पहचान लिया कि यही कुत्ता हस्तिनापुर की सड़कों पर निकलने पर उनके आस-पास दौड़ता रहा था। वह बोले, ‘यह कुत्ता हस्तिनापुर से यहाँ तक मेरे साथ आया है। हर कोई गिर पड़ा, लेकिन वह यहाँ तक आया है, तो शायद वह इसका हकदार है। उसे मेरे साथ आने दीजिए।’ लेकिन उन लोगों ने मना कर दिया, ‘देवलोक में कोई कुत्ता नहीं आ सकता!’
आगे जारी...