सस्टेनेबल संस्कृति
शिल्पा रेड्डी: मैं कई सालों से ईशा योग केंद्र आ रही हूँ। यहाँ सब कुछ सस्टेनेबल और इको फ्रेंडली है। यह संस्कृति आख़िर कैसे विकसित की गई?
आनंद: सद्गुरु हमें यही सिखाते हैं कि हमारी जीवन शैली ऐसी हो कि हम सिर्फ उन्हीं चीज़ों का उपयोग करें, जो बहुत जरूरी हैं, सिर्फ सामान के मामले में नहीं, बल्कि हम क्या देखते हैं और क्या बोलते हैं, उस मामले में भी। वह हमेशा कहते हैं कि आप जितना बोलते हैं, उसे अगर कम कर सकें, तो आपकी कुशलता बढ़ जाएगी। इसी तरह, अगर हम योग केंद्र में जिन चीज़ों का उपयोग करते हैं, चाहे वे कपड़े हों, भोजन या दूसरे संसाधन – हमें कोई कमी नहीं होती है, लेकिन साथ ही, हम सिर्फ उतना ही इस्तेमाल करते हैं, जितना बहुत जरूरी होता है।
यह कोई थोपी गई चीज़ या कोई नैतिक दायित्व नहीं है बल्कि यह एक जागरूकता है – इस बात के प्रति कि हम जो भी इस्तेमाल करते हैं, उसका पृथ्वी पर एक निश्चित प्रभाव पड़ता है। यह कोई शिक्षा नहीं है। आप हमारे किसी सत्संग में सद्गुरु को सस्टेनेबिलिटी के बारे में बात करते नहीं पाएँगे। यह एक अनकही संस्कृति है, जिसे शुरू से ही ईशा योग केंद्र में विकसित किया गया है। यहाँ का माहौल ही ऐसा है कि नए लोग स्वाभाविक रूप से वही करने और इस्तेमाल करने लगते हैं, जो जरूरी है।
बिना बर्बादी वाली जीवनशैली
शिल्पा रेड्डी: आप कचरे का प्रबंधन कैसे करते हैं?
आनंद: हम कचरे को दो भागों में बाँटते हैं – एक जिन्हें रिसाइकिल किया जा सके और दूसरा जिन्हें रिसाइकिल नहीं किया जा सके। रिसाइकिल किए जाने वाले कचरे में, कंस्ट्रक्शन टीम देखती है कि क्या वे किसी चीज़ का दोबारा इस्तेमाल कर सकते हैं, साथ ही एक एस्थेटिक्स डिपार्टमेंट भी है जो इस तरह के कचरे से कुछ ख़ूबसूरत और उपयोगी चीज़ें बनाता है। आप देखेंगे कि हमारे फर्नीचर और सजावट में बेकार चीज़ों का खूब इस्तेमाल होता है। चाहे वह कोई नारियल की रस्सी हो या पौधों का अपशिष्ट, उसे जगह की सजावट में शामिल किया जाता है। इसका मकसद सिर्फ कचरा कम करना नहीं है – बल्कि यह देखना है कि हर चीज़ को एक सुंदर तरीके से इस्तेमाल किया जा सकता है।
रिसाइकिल न हो सकने वाले कचरे में बायोडिग्रेडेबल कचरा होता है, जो मुख्य रूप से रसोईघर का कूड़ा और हमारे बाथरूम तथा टॉयलेट का कूड़ा होता है। रसोईघर के कूड़े में पका हुआ और कच्चा कूड़ा होता है। हम बारीकी से यह जाँचते हुए कि हमें हर दिन कितने लोगों को भोजन परोसना है, पके हुए भोजन की बर्बादी को कम करने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। भोजन के कूड़े के अलावा, बाथरूम और टॉयलेट के पानी का बायोडिग्रेडेबल कचरा होता है।
बाथरूम के पानी को उपचार की विस्तृत प्रणाली की जरूरत नहीं होती क्योंकि उसमें ठोस कचरा नहीं होता। वह ग्रे वाटर ट्रीटमेंट से गुज़रता है और इस प्रकार से उपचारित पानी का इस्तेमाल हमारे खेतों में किया जाता है, जहाँ हम प्राकृतिक चीज़ें उगाते हैं। टॉयलेट के कचरे के लिए, हमारे पास बहुत सावधानी से चुनी गई इको-फ्रेंडली सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट टेक्नोलॉजी है। टॉयलेट वेस्ट को तोड़ने के लिए बैक्टीरिया और दूसरे माध्यमों का इस्तेमाल किया जाता है। फिर इस उपचारित पानी का इस्तेमाल भी खेती के कामों में किया जाता है।
शिल्पा रेड्डी: वाह, यह बहुत ही प्रेरणादायी है! तो, वास्तव में कुछ भी बेकार नहीं जा रहा।
आनंद: हाँ। उदाहरण के लिए, ईशा योग केंद्र में मौसमी कामों के लिए सेवादार आते हैं। हमारा हाउसकीपिंग डिपार्टमेंट व्यवस्थित तरीके से पुराने कपड़े इकट्ठा करता है, जिसे हम अच्छी तरह धोने और इस्तिरी करने के बाद ही देते हैं। इसके बाद इन कपड़ों को यहाँ काम करने वाले सेवादारों को दे दिया जाता है, जिनके पास नए कपड़े खरीदने के साधन नहीं हैं।
प्राकृतिक और नवीकरणीय ऊर्जा
शिल्पा रेड्डी: क्या आप योग केंद्र में प्राकृतिक ऊर्जा का उपयोग करते हैं?
आनंद: शुरू में हम बिजली बोर्ड द्वारा आपूर्ति की जाने वाली बिजली पर निर्भर थे। लेकिन आज, हमारी ऊर्जा खपत का लगभग पचास से साठ प्रतिशत नवीकरणीय ऊर्जा से आता है। हमने अधिकांश छतों पर सौर पैनल लगाए हैं। हम बिजली के विकल्प के तौर पर और वाटर हीटिंग के लिए सौर ऊर्जा का इस्तेमाल कर रहे हैं। दूसरा पहलू यह है कि हम योग केंद्र में तेज़ रोशनी को प्रोत्साहित नहीं करते हैं, क्योंकि सद्गुरु ने हमें निर्देश दिया है कि हम अपनी आँखों को अंधेरे में देखने के लिए ट्रेंड करने की कोशिश करें।
ऐसी बहुत सी जगहें हैं, जहाँ हम जानबूझकर फ्लड लाइटिंग या स्ट्रीट लाइटिंग नहीं करते हैं। यह केवल बिजली या सस्टेनेबिलिटी के बारे में नहीं है – यह सचेतन रूप से जीने के बारे में है, जो स्वाभाविक रूप से बिजली की खपत को भी कम करता है। साथ ही, हम लोगों की सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करते हैं। जहाँ बहुत जरूरत होती है, वहाँ हम रोशनी की व्यवस्था करते हैं।
सद्गुरु यह भी कहते हैं कि मानव प्रणाली को इस तरह से रखा जा सकता है कि काम की जगह के वातावरण को अनुकूलित करने के लिए एयर कंडीशनिंग का इस्तेमाल करने के बजाय, आप अपने शरीर को ठंड और गर्मी का सामना करने के लिए अनुकूलित कर सकें। हर तरह से, वे हमें योग की परंपरा की तरफ ले जाते हैं, जहां चेतना में जीना, स्वाभाविक रूप से एक सस्टेनेबल जीवन शैली को जन्म देता है।
रागी
भोजन के बारे में जागरूकता
शिल्पा रेड्डी: भोजन और पोषण को लेकर आश्रम में क्या किया जाता है?
आनंद: इस देश में पारंपरिक रूप से कई तरह के मोटे अनाज उगाए जाते रहे हैं। ये कैल्शियम, मैग्नीशियम और दूसरे सूक्ष्म पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं, जो हमारी सेहत के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं। लेकिन पिछले पचास-साठ वर्षों से यह गलत धारणा रही है कि मोटा अनाज गरीब आदमी का भोजन है। लोग सफेद चावल खाना पसंद करते हैं, जिसमें कोई पोषण नहीं होता है। वह सिर्फ स्टार्च होता है। अगर हम इस मानसिकता को बदल सकें और कुछ सौ साल पहले तक एक संस्कृति के रूप में हम जो खा रहे थे, उसे वापस ला सकें, तो इससे डायबिटीज को रोकने में मदद मिलेगी और भरपूर पोषण भी मिलेगा।
दूसरा पहलू यह है कि मोटे अनाजों को धान की फसल के मुकाबले सिर्फ दस से बारह प्रतिशत पानी की जरूरत ही पड़ती है, जिसका मतलब है कि हमें धान और गेहूँ उगाने के लिए अपने भूजल को बर्बाद करने की जरूरत नहीं है। जैसा कि सद्गुरु कहते हैं, अगर हम अपने आहार में कम से कम तीस प्रतिशत इस तरह के देशी मोटे अनाजों को शामिल करने लगें, तो खेती में भी धान और गेहूँ के मुक़ाबले मोटे अनाज को ज़्यादा बढ़ावा मिलेगा। यह पर्यावरण के लिए भी अच्छा होगा।
हमारा पहनावा
आनंद: सद्गुरु कहते हैं कि हमें ऐसे कपड़े पहनने चाहिए, जो प्राकृतिक, जैविक सामग्री से बने हों। आजकल, बाँस, सूत, पटसन, जूट और दूसरे प्राकृतिक रेशों से बने कपड़े मिलते हैं। सिंथेटिक पॉलि-फाइबर का इस्तेमाल कम करने की काफी गुंजाइश है। एक तिहाई भूमि का इस्तेमाल प्राकृतिक रेशों को उगाने के लिए किया जाना चाहिए जिनसे कपड़े बनाए जा सकते हैं। इन कपड़ों को देश के भीतर बेचा जा सकता है, और भारत के लिए निर्यात की भी बड़ी संभावना है। आजकल अधिकांश कपड़े पॉलिएस्टर और दूसरे सिंथेटिक मिश्रणों से बने होते हैं, जिनसे दूर रहना हमारी अपनी और पृथ्वी की खुशहाली के लिए जरूरी है।
एक सचेतन दुनिया का निर्माण
आनंद: अगर हम आपके आहार में तीस से पैंतीस प्रतिशत फल, तीस से पैंतीस प्रतिशत मोटे और पारंपरिक अनाज शामिल कर दें और ऑर्गेनिक कपड़ों की तरफ चले जाएँ, तो हम मनुष्य की खुशहाली के साथ-साथ पृथ्वी को भी सस्टेनेबल बना सकते हैं। सद्गुरु इसी नज़रिए की बात कर रहे हैं, एक सचेतन ग्रह बनाने की। यह इकोलॉजी को अर्थव्यवस्था से जोड़ने और यह कोशिश करने के बारे में है कि हम इन सभी तत्वों को किसी नियम या नैतिक दायित्व के रूप में न थोपते हुए समावेशी तरीके से कैसे शामिल कर सकते हैं। अपनी जीवनशैली को बदलकर ही हम आगे बढ़ सकते हैं। यही वह तरीका है जो सद्गुरु हमें चुनने के लिए कहते हैं, क्योंकि हमारे पास चुनने की आजादी है।