जीवन-रहस्य

सद्‌गुरु के साथ दीपक चोपड़ा का संवाद

कर्म से मुक्ति नहीं, दूरी ज़रूरी है

विख्यात लेखक और वैकल्पिक चिकित्सा के जाने-माने चेहरे दीपक चोपड़ा ने 29 अप्रैल 2021 को सद्‌गुरु के साथ एक खोजपूर्ण बातचीत की। इस बातचीत के दौरान ऑनलाइन दर्शक भी शामिल हुए। यह कार्यक्रम सद्‌गुरु की नई किताब, ‘कर्मा: ए योगीज़ गाइड टू क्राफ्टिंग योअर डेस्टिनी’, के लिए एक डिजिटल बुक टूअर का हिस्सा था। इस रहस्यमय विषय पर आध्यात्मिक गुरु से बात करने के लिए दीपक चोपड़ा इस किताब को बहुत बारीकी से पढ़कर पूरी तरह तैयार होकर आए थे।

कर्म – अथाह भाग्य या परम मुक्ति

दीपक चोपड़ा: मैं पूरी ज़िन्दगी कर्म का विद्यार्थी रहा हूँ। मैंने उपनिषदों में पढ़ा है कि कर्म का रहस्य अथाह है। फिर भी, कई जगह आप पढ़ते हैं कि यह मुक्ति का अंतिम प्रमाण है। मुझे आपकी किताब पढ़कर बहुत आनंद आया। इसलिए मैं आपसे पूछना चाहता हूँ कि सूक्ष्म स्तरों पर कर्म से आपका क्या मतलब है और आपकी राय में कर्म वास्तव में मुक्ति का प्रमाण क्यों है?

सद्‌गुरु: आप कौन हैं - यह कर्म का परिणाम है। चलिए इसे सूचना तकनीक के शब्दों में समझते हैं – कर्म आपका सॉफ्टवेयर है। यह सॉफ्टवेयर आपको वह बनाता है, जो आप हैं। आप जो दीपक हैं उसके पीछे आपके अनुभव, आपकी जानकारी और आपके ऊपर हुए असर हैं। अगर ये सब साफ कर दिए जाएँ, तो कोई ‘दीपक’ नहीं होगा।

अभी जो ‘दीपक’ है, वह याद्दाश्त के इन आठ रूपों का मिश्रण है – यह ‘आप’ हैं।

जो खुद को ‘दीपक’ बताता है, उसका अस्तित्व एक व्यक्ति के रूप में सिर्फ याद्दाश्त के कारण है। आम तौर पर हम इसे याद्दाश्त के आठ रूपों – तात्विक स्मृति, आणविक स्मृति, विकास-मूलक स्मृति, आनुवांशिक स्मृति, व्यक्तिगत कर्म स्मृति, संवेदी स्मृति, व्यक्त और अव्यक्त स्मृति के रूप में देखते हैं। अभी जो ‘दीपक’ है, वह याद्दाश्त के इन आठ रूपों का मिश्रण है – यह ‘आप’ हैं। जिसे आप ‘मैं’ समझते हैं, वह सिर्फ कर्म काया या कर्म शरीर है।

कौन सी चीज़ मुझे मैं बनाती है?

दीपक चोपड़ा: यह बहुत दिलचस्प है क्योंकि जब मैं ख़ुद को देखता हूँ, तो मैं खुद को नहीं पाता। मेरी कई पहचानें हैं - एक भ्रूण, निषेचित अंडे, शिशु, वयस्क के रूप में कई सारी पहचानें रही हैं...

सद्‌गुरु: उसे एक भ्रूण के रूप में देखने के बजाय, वह आपके माता-पिता की स्मृति का एक मिश्रण है। वहाँ से, स्मृति, स्मृति और स्मृति ही आपको बनाती है।

दीपक चोपड़ा: हाँ, लेकिन फिर यह सब अस्थायी है, है न? कोई स्थायी ‘मैं’ नहीं है, है क्या?

सद्‌गुरु: रूपांतरण की गुंजाइश होती है। जब मैं ‘रूपांतरण’ कहता हूँ तो मैं परिवर्तन की बात नहीं करता। रूपांतरण का मतलब है कि पुराना कोई अंश नहीं बचना चाहिए। ऐसा करना संभव है। यही वजह है कि खुद को रूपांतरित करने के लिए एक पूरा आध्यात्मिक विज्ञान है। सिर्फ अपना रवैया बदलकर, एक क्लब को छोड़कर दूसरे क्लब की सदस्यता लेकर, अपने रहने की जगह बदलकर आप अपना जीवन कुछ हद तक बदल सकते हैं। लेकिन यह रूपांतरण नहीं है।

खुद को रूपांतरित करने के लिए एक पूरा आध्यात्मिक विज्ञान है।

रूपांतरण का अर्थ है, संपूर्ण याद्दाश्त से कट जाना, जो आपके अस्तित्व के तरीके को बिलकुल अलग, एकदम नई चीज़ में रूपांतरित करता है। इसीलिए भारत में आत्मज्ञानी प्राणी को हम ‘द्विज’ कहते हैं, इसका अर्थ है, दो बार जन्म लिया हुआ। एक बार आप अपने माता-पिता की स्मृति से जन्म लेते हैं और वहाँ से आप और स्मृति इकट्ठा करते हैं। दूसरी बार आप कर्म की इस स्मृति से अलग होकर और बिलकुल नई संभावना पैदा करते हुए जन्म लेते हैं।

क्या कर्म की धारणा विज्ञान के साथ संगत है?

क्या कर्म की धारणा विज्ञान के साथ संगत है?

दीपक चोपड़ा: अभी आप आधुनिक विज्ञान की सबसे सुरक्षित धारणाओं को चुनौती दे रहे हैं, मैं आपको बताता हूँ कि मैं ऐसा क्यों कह रहा हूँ। मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ- जब मैं पाँच साल का था, तब मैंने आइस-स्केट करना सीखा था। कई साल बाद एक दिन मैं रॉकफेलर सेंटर से गुज़र रहा था। मैंने लोगों को आइस स्केट करते देखा, मैंने स्केट्स उठाए और स्केट करने लगा। और मुझे यह समझ में आया कि जिस दिमाग ने आइस स्केट करना सीखा था, वह ये दिमाग नहीं है जो अभी आइस स्केट कर रहा है – दिमाग का हर अणु, हर परमाणु बदल चुका है।

दिमाग खुद में कर्म का एक उत्पाद है और वह निश्चित रूप से चुनौतीपूर्ण है। और चेतना भी मस्तिष्क का अनुभव कर रही है। यह आधुनिक विज्ञान के लिए एक बहुत बड़ी चुनौती है, जो भौतिकवाद की बुनियादी धारणा में विश्वास करता है।

विकास-मूलक स्मृति हम सबकी एक जैसी हो सकती है, लेकिन हमारी आनुवांशिक स्मृति बिलकुल अलग-अलग होती है।

सद्‌गुरु: दीपक, मैं इस टिप्पणी में एक छोटा सा सुधार करना चाहूँगा। वह यह कि मुझे नहीं लगता कि आधुनिक विज्ञान इस बात से असहमत है कि स्मृति शरीर में, हर कोशिका में बसी होती है – क्योंकि जीन, क्रोमोसोम और डीएनए, ये सब स्मृति के परिणाम हैं। मेरी आनुवांशिक सामग्री मेरी स्मृति है, और आपकी आनुवांशिक सामग्री आपकी स्मृति है। विकास-मूलक स्मृति हम सबकी एक जैसी हो सकती है, लेकिन हमारी आनुवांशिक स्मृति बिलकुल अलग-अलग होती है। मुझे नहीं लगता कि विज्ञान इससे असहमत हो सकता है क्योंकि यह स्मृति का एक समूह है।

We may have a common evolutionary memory, but we have a distinctly different genetic memory.

मन का रहस्यमय चौथा आयाम

हम योग विज्ञान में इसे कुछ इस तरह देखते हैं कि एक बुद्धि है जो चाकू की धार की तरह है, जिसके बिना आप दुनिया में जीवन-यापन नहीं कर सकते – वह जितनी धारदार होगी, उतनी ही बेहतर है। यह बुद्धि आपकी पहचान की वजह से है। आपके पास जिस तरह की पहचान है, उसी के आधार पर आपकी बुद्धि काम करेगी। लेकिन बुद्धि आंकड़ों के बिना काम नहीं कर सकती। इसलिए मानस नाम की एक चीज़ होती है, जो एक तरह से स्टोररूम है जो हर तरह की स्मृति को सहेज कर रखती है।

मन के चौथे आयाम को ‘चित्त’ कहते हैं। यह ऐसी बुद्धिमत्ता है, जो स्मृति से अप्रभावित होती है। मैं ‘चेतना’ शब्द का इस्तेमाल नहीं करना चाहता क्योंकि हर कोई अलग-अलग रूप में इस शब्द का प्रयोग कर रहा है। इसलिए, हम इसे चित्त कहेंगे – एक बुद्धिमत्ता जो स्मृति से परे है।

जब आप चित्त को छूते हैं, तभी आपका रूपांतरण पूर्ण हो सकता है।

मन के ये तीनों भाग – बुद्धि, पहचान और मानस, हर व्यक्ति में अलग-अलग होते हैं। लेकिन जब चित्त की बात आती है, तो इसमें ‘तुम्हारा’ और ‘मेरा’ जैसा कुछ नहीं होता। चित्त ब्रह्मांड की जीवंत बुद्धिमत्ता है। थोड़ा चित् आपने ग्रहण किया, थोड़ा चित्त मैंने ग्रहण किया लेकिन आप इसे आपका या मेरा नहीं कह सकते। जब आप चित्त को छूते हैं, तभी आपका रूपांतरण पूर्ण हो सकता है।

सिर्फ नज़रिए का सवाल

याद्दाश्त एक सीमा है। मान लीजिए मैं आपको पहले से जानता हूँ, तो मैं जैसे ही आपको देखता हूँ, मैं सोचता हूँ, ‘ओह, यह मेरा दोस्त है।’ मान लीजिए आप मेरी स्मृति में नहीं हैं, फिर मेरे मन में आएगा, ‘यह शख्स कौन है?’ मेरी स्मृति सीमा बनाती है। स्मृति जीवन-यापन करने और ज्ञान की एक महान संभावना है। लेकिन साथ ही यह एक बाधा है, जिसे आप पार नहीं कर सकते, जब तक कि आप बुद्धिमत्ता के एक ऐसे आयाम को नहीं छूते, जो स्मृति से परे हो। जैसे ही आप स्मृति से परे के आयाम को छूते हैं, ‘आप’ और ‘मैं’ जैसा कुछ नहीं रह जाता। जीवन एक सार्वभौमिक अनुभव बन जाता है।

योग में, आप कभी अपने कर्म को सुलझाने की कोशिश नहीं करते – आप बस उससे दूरी बनाने की कोशिश करते हैं। इसे एक उदाहरण से समझें तो यह कुछ ऐसा है जैसे मान लीजिए कि आप गाड़ी से एयरपोर्ट जा रहे हैं और रास्ते में ट्रैफिक जाम है। देर हो रही है और आप ट्रैफिक के कारण खीझ रहे हैं। सामने आने वाली हर रेड लाइट आपको पागल बना रही है। फिर किसी तरह आप एयरपोर्ट पहुँच जाते हैं और उड़ान भर लेते हैं। जब विमान उड़ रहा है, आप ऊपर से वही ट्रैफिक देखते हैं। रेड लाइट्स की कतारें आपको बहुत अद्भुत और सुंदर लगती हैं, सिर्फ इसलिए क्योंकि उनसे एक दूरी है। हम जीवन को इसी तरह देखते हैं।

योग में, आप कभी अपने कर्म को सुलझाने की कोशिश नहीं करते – आप बस उससे दूरी बनाने की कोशिश करते हैं।

आपके शरीर में कर्म की स्मृति है, जिसे आप समझ नहीं सकते। वह स्मृति इतनी जटिल और अव्यवस्थित है कि इस जीवन में उसे सुलझाने की कोशिश करना बेकार है। जैसे-जैसे आप गहराई में जाएँगे, वह एक अंतहीन खाई बनती जाएगी। इसलिए, हम सिर्फ इस पर ध्यान देते हैं कि कर्म की स्मृति को एक तरफ कैसे रखें। किसी शख्सियत या पहचान से कोई समस्या नहीं है। समस्या सिर्फ यह है कि आप मजबूरी में उसमें फँस गए हैं। वरना, दुनिया सुंदर और रंग-बिरंगी इसीलिए है क्योंकि हम सभी अलग-अलग हैं।

In Yoga, you are never trying to sort out your karma – you just have to distance yourself from it.