एक सचेतन दुनिया : मानवता के उज्जवल भविष्य के लिए
मौजूदा कोविड-19 महामारी एक घातक रुझान का संकेत भर हो सकता है, जो मानव जीवन को विनाश की तरफ़ ले जा सकती है। सद्गुरु बता रहे हैं कि कैसे जिम्मेदारी और सामंजस्य से रहते हुए हम खुद को बचा सकते हैं और भावी संकट को रोक सकते हैं।
सद्गुरु: मैं कई वैज्ञानिकों से बात करता रहा हूँ, जो इस विषय पर शोध कर रहे हैं कि जेनेटिक्स और जीनोम कैसे काम करते हैं और उन्हें बाहरी हालात और साथ ही अपने आंतरिक माहौल के ज़रिए कैसे बदला जा सकता है।
कई वैज्ञानिक जेनेटिक्स, जीनोम के कार्यों को बाहरी व आंतरिक कारकों से जुड़ा पाते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि इनका आपस में संबंध है। सवाल यह है कि ये संबंध कितने प्रत्यक्ष हैं? इस पर विचार करना मेरा काम नहीं है, यह मेरा क्षेत्र भी नहीं है। मैं जीवन के बारे में इतना जानता हूँ कि धरती संवेदनशील है और हम जो कुछ भी करते है, वह बाकी सभी चीज़ों पर असर डालता है।
हमने सोचा कि पृथ्वी की कायाकल्प और क्षतिपूर्ति की क्षमता असीम है। लेकिन ऐसा नहीं है, वह इतनी अधिक नहीं है कि हर हाल में जीवन को सहारा दे पाए। अब भी इसे लेकर कोई गुमान न पालें कि आप पृथ्वी को बचा लेंगे, क्योंकि पृथ्वी संकट में नहीं है – मानव जीवन संकट में है। और दुर्भाग्य से, बहुत से दूसरे निर्दोष जीवन भी।
हम धरती मां को बर्बाद क्यों कर रहे हैं?
इससे पहले कि हम इस मुद्दे पर आएँ कि हम क्या कर सकते हैं, पहले यह समझते हैं कि इस पृथ्वी पर सिर्फ एक समस्या है – वह है मनुष्य। अगर आप इस समस्या को हल नहीं करते और समाधान लेकर नहीं आते हैं, तो यह सिर्फ संभावित आपदाओं को टालना होगा।
तो सवाल है कि इंसान के बारे में हमें क्या चीज सुधारने की जरूरत है? अभी, इंसान अपनी खुशी और खुशहाली के पीछे लगा हुआ है। लेकिन भले ही आप लोगों को आधी पृथ्वी को ठूँठ बनाने, हर जगह गड्ढा खोदने और अपने लिए 50 कमरों के घर बनाने की इजाजत दे दें, फिर भी वे खुश नहीं होंगे। खुशी की यह खोज ही सारे इंसानी क्रियाकलापों की जड़ में है। उनकी महत्वाकांक्षाएं, उनकी इच्छाएं, उनकी जीत – सबके पीछे अपने भीतर आनंद, संतुष्टि और पूर्णता पाने की तलाश है।
सच्ची खुशी और संतुष्टि का एकमात्र तरीका
हमें हर किसी को यह एहसास कराना होगा कि अगर हम आम खाना चाहते हैं, तो उसकी तलाश में मिट्टी खोदने का कोई मतलब नहीं है। मिट्टी खोदने से बल्कि आम का पेड़ बर्बाद हो जाएगा, और आम के उगने की कोई संभावना ही नहीं रह जाएगी।
जब बात इंसान की सेहत, खुशहाली, आनंद और संतुष्टि की होती है, तो अपने भीतर मुड़ना ही एकमात्र रास्ता है।
यही बात आनंद और संतुष्टि की हमारी तलाश पर लागू होती है – मानव अनुभव अंदर घटित होता है। सुख और दुख, दर्द और खुशी, कष्ट और परमानंद आपके भीतर ही पैदा होते हैं। आपको अपने भीतरी तंत्र को अपने हाथ में लेना है, न कि पृथ्वी को खोदना है। जब बात इंसान की सेहत, खुशहाली, आनंद और संतुष्टि की होती है, तो अपने भीतर मुड़ना ही एकमात्र रास्ता है।
अगर हम यह बात हर इंसान तक नहीं पहुँचाते हैं, तो खुशी की तलाश हर चीज़ को नष्ट कर देगी। कोई भी कीड़ा-मकोड़ा या पशु-पक्षी ऐसा नहीं करते – वे हर चीज़ समझदारी से करते हैं, जो उनके जीवन के लिए जरूरी है। लेकिन इंसान जब कुछ करना शुरू करता है, तो यह भूल जाता है कि यह उसकी भलाई के लिए है और अनवरत उसे करते हुए हर किसी को कष्ट पहुँचाता है। क्योंकि वह सोचता है, ‘कल मैंने यह किया था, तो मुझे आज भी यह करते रहना है।’
मौजूदा महामारी सिर्फ एक शुरुआत भर हो सकती है
एक सचेतन दुनिया बनाना हमारी सबसे पहली जिम्मेदारी है। मैं उन सभी लोगों से प्रार्थना करता हूँ, जिनका इस धरती पर कोई पद-चिह्न या प्रभाव है, कि वे साथ आएँ। हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मानव आबादी उस समस्या की प्रकृति को समझे, जिसका सामना हम अगले छह से आठ सालों में करने वाले हैं।
वैज्ञानिक कहते हैं कि मौजूदा इकोलॉजिकिल परिस्थितियों में, हर दो से तीन साल में नई महामारियाँ आ सकती हैं और हर एक, दूसरे से खतरनाक हो सकती है। अगर हम सचेतन होकर खुद को नहीं सुधारेंगे, तो प्रकृति हमें सुधार देगी– लेकिन तब यह बहुत क्रूर होगा। अमेरिका और यूरोपीय देशों ने इसे झेला है, भारत अभी झेल रहा है और दुनिया के हर देश ने किसी हद तक इसे झेला है। अस्पतालों में बिस्तर न मिलने पर लोग अपने घर में ही, सड़कों पर, अस्पतालों के गलियारों में मर गए, अपने प्रियजनों के प्यार और देखभाल के बिना और मरने के बाद भी उन्हें यथोचित सम्मान नहीं मिला, जहाँ सामूहिक तौर पर अंतिम संस्कार किए गए।
अगर हम सचेतन होकर खुद को नहीं सुधारेंगे, तो प्रकृति हमें सुधार देगी
अब, कम से कम जब इतनी भयावह त्रासदी सामने आई है, तब यह महत्वपूर्ण हो गया है कि हम न सिर्फ इस महामारी से बाहर आएँ, बल्कि इस धरती पर ऐसा माहौल तैयार करें जो सभी जीवों के अस्तित्व के लिए अनुकूल हो। इंसानों के सचेतन बर्ताव के बिना ऐसा संभव नहीं है। अगर इंसान ने अपनी चेतना को नहीं जगाया, तो हमारे पास तमाम तकनीकें होते हुए भी हम कहीं नहीं पहुँच पाएँगे। जब कैंसर जैसी बीमारी हो, तो हमें बैंड-ऐड पर अपना समय और ऊर्जा बर्बाद नहीं करनी चाहिए। पृथ्वी को कैंसर से बड़ी बीमारी है, लेकिन वह अपना कायाकल्प करने में सक्षम है, अगर आप उसे शांति से छोड़ दें।
जनसंख्या वृद्धि : महत्वपूर्ण बिंदु जिस पर कोई ध्यान नहीं देना चाहता
आप पृथ्वी को शांति से कैसे छोड़ सकते हैं? धरती पर सबसे बड़ी खरोंच खेती और फिर खनन है। इन दोनों चीज़ों को कम करने के लिए, हमें अपने खाने और स्वस्थ होने का तरीका बदलना होगा। हमें सचेतन होकर या निष्क्रियता से मानव आबादी को घटाना होगा, चाहे आप जैसे भी करें – न कि महामारी से मानव-जाति का विनाश करते हुए, या एक खास उम्र के बाद लोगों को मारते हुए, जो कि अभी हो रहा है।
एक सचेतन दुनिया बनाने का अर्थ है, व्यक्तिगत तौर पर इंसान को रूपांतरित करते हुए इस पृथ्वी की दशा को रूपांतरित करना।
लोगों के लिए यह समझना महत्वपूर्ण है कि वे सिर्फ कुछ समय के लिए मानव प्रजाति के बैटन को थामे हुए हैं। आप सोशल मीडिया पर जितना विद्वेष, ईर्ष्या, नफरत, गुस्सा और डर देखते हैं, वह बहुत निराशाजनक है। यह दिखाता है कि हमने मानव चेतना को बढ़ाने के लिए मेहनत नहीं की है। एक सचेतन दुनिया बनाने का अर्थ है, व्यक्तिगत तौर पर इंसान को रूपांतरित करते हुए इस पृथ्वी की दशा को रूपांतरित करना।
हम ऐसे जी रहे हैं, मानो एक बम पर बैठे हों
हमने अपनी अर्थव्यवस्था, राजनीतिक व्यवस्था, धार्मिक प्रवृत्तियों और वैचारिक व दार्शनिक पहचानों को जिस तरह बनाया है, वह मुख्य रूप से हिंसक है और ये सभी पहलू एक संभावित बम हैं। वे या तो इंसान के खिलाफ हिंसक हैं या दूसरे जीवों के प्रति या फिर धरती माँ के प्रति। अगर हम सचेतन रूप से समाज का ढाँचा इस प्रकार बनाने की कोशिश नहीं करते कि वह जीवन और जीवन को सहारा देने वाली चीज़ों के साथ तालमेल में रहे, तो हम ऐसे हालात पैदा कर देंगे, जिसमें अगली कुछ पीढ़ियों को हमारी हरकतों का खामियाजा भुगतना पड़ेगा। क्या हम चाहते हैं कि आज के बच्चों और कल के अजन्मे जीवन के लिए यही हमारा कर्म हो? इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
एक सरल समाधान : अपनी और धरती की सेहत के लिए
जरूरत से ज्यादा खेती के कारण इस धरती की मिट्टी खराब हो रही है। वैज्ञानिकों का कहना है कि अगले 40-50 साल में हम अपनी जरूरत का भोजन नहीं उगा पाएँगे। यह समझना बहुत महत्वपूर्ण है कि मिट्टी को उपजाऊ या समृद्ध बनाना ही आगे का रास्ता है। और आप पेड़ों के हरित कूड़े और पशुओं के अपशिष्ट के बिना जमीन को समृद्ध नहीं बना सकते।
अगर हम अपने भोजन का तरीका बदल दें, तो धरती फलने-फूलने लगेगी। हम करीब 5.1 करोड़ स्क्वायर किमी जमीन पर खेती करते हैं, जिसमें से 4 करोड़ स्क्वायर किमी जमीन को पशुओं के चरने और उनका खाना या चारा उगाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
अगर हम माँस का उपभोग 50 फीसदी कम कर दें, तो धरती पर लगभग 2 करोड़ स्क्वायर किमी जमीन खाली हो जाएगी। आपका डॉक्टर आपको बताएगा कि अगर आप मांस खाना कम कर दें, तो आपकी सेहत बेहतर होगी और आपका मेडिकल बिल कम हो जाएगा।
अगर इस धरती पर मनुष्य की गतिविधि सीमित होगी, तो दूसरे जीवन रूप फलेंगे-फूलेंगे। हम इस 2 करोड़ स्क्वायर किमी जमीन को पेड़ों पर आधारित खेती करने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। पेड़ों पर आधारित खेती के साथ, आप लकड़ी के साथ धान, गेहूँ, जौ, सोयाबीन, सब्जियाँ और फल उगा सकते हैं। इस धरती पर हर मनुष्य को सबसे पौष्टिक और प्राकृतिक आहार मिल सकता है। कुल मिलाकर कहें तो हमें सिर्फ अभी के लिए नहीं, बल्कि भविष्य के लिए अपनी छोटी जरूरतों से परे देखते हुए मानवता के कल्याण के लिए काम करना होगा।