पिता की तैयारी चंद्रमा के लिए और बेटी की ब्रह्मांड के लिए
विशाल अंतरिक्ष की खोज से लेकर अपनी आंतरिक यात्रा की शुरुआत तक, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के प्रोजेक्ट डायरेक्टर डॉ. पी. वीरामुथुवेल का सफर शानदार और रोमांचक रहा है। जब हमने विल्लुपुरम, तमिलनाडु के इस वैज्ञानिक से बात की, तो उन्होंने आध्यात्मिकता और अंतरिक्ष की खोज के बीच के आपसी संबंध के बारे में हमसे बात की, साथ ही अपनी बेटी के शानदार विकास के बारे में भी बताया, जो ईशा संस्कृति की छात्रा है।
एक सपने का साकार होना
इंजीनियरिंग के छात्र के रूप में, मैंने एक सपना पाला था – इसरो में अंतरिक्ष के क्षेत्र में काम करने का। लेकिन मुझे वहाँ तक पहुँचने में कुछ साल लगे। मैकेनिकल इंजीनियरिंग में अपना एम.टेक. पूरा करने के बाद, मैंने कुछ साल एक प्राइवेट कंपनी में और फिर बेंगलुरु में हिंदुस्तान ऐरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) में काम किया। इस दौरान भी मैंने कभी अपने अंतिम लक्ष्य पर से, जो इसरो पहुँचना था, ध्यान नहीं हटाया।
2004 में आखिरकार मैंने अपना सपना पूरा किया। तब से मुझे इसरो जैसे बहु विषयी माहौल में ढेरों चुनौतीपूर्ण जिम्मेदारियों पर काम करने का सौभाग्य मिला। यह मेरे लिए सीखने का जबर्दस्त अनुभव रहा है क्योंकि मुझे सैटेलाइट्स, रिमोट सेंसिंग, मार्स ऑर्बिटर मिशन जिसे मंगलयान भी कहा गया, और हाल में चंद्रयान-2 और चंद्रयान-3 की भी कई परियोजनाएँ सौंपी गईं। इसी दौरान 2011 में मैंने आईआईटी मद्रास में दाखिला लिया और अपना पीएचडी पूरा किया।
चंद्र अभियान
मार्स ऑर्बिटर की कामयाबी के बाद, हमारा फोकस चंद्रमा पर गया और मुझे चंद्रयान-2 प्रोजेक्ट में, एसोसिएट प्रोजेक्ट डायरेक्टर नियुक्त किया गया। इसमें हमें निराशा का सामना करना पड़ा क्योंकि हम चंद्रमा की सतह पर सफलतापूर्वक सॉफ्ट लैंड नहीं कर सके। अब भारत सरकार ने मुझे एक और मिशन – चंद्रयान-3 दिया है। नवंबर 2019 में, इसरो के चेयरमैन और मेरे सेंटर के डायरेक्टर ने इस अगले चंद्र-अभियान के लिए मुझे प्रोजेक्टर डायरेक्टर नियुक्त किया।
यह मेरा सौभाग्य था कि इस महत्वपूर्ण और चुनौतीपूर्ण सफर की शुरुआत से पहले ईशा योग केंद्र में अपनी पत्नी के साथ व्यक्तिगत रूप से सद्गुरु से मिलने का मुझे मौक़ा मिला। मैंने इस परियेाजना की सफलता के लिए उनका आशीर्वाद और शुभकामनाएँ लीं। चंद्रमा की सतह पर सॉफ्ट लैंडिंग करने में अमेरिका, चीन और रूस के बाद इस उपलब्धि को हासिल करने वाला दुनिया का चौथा देश बनने का हमारा लक्ष्य है।
आंतरिक अनुभव बनाम अंतरिक्ष अनुसंधान
हालांकि अंतरिक्ष की खोज में काफी तरक्की हुई है और दुनिया भर के वैज्ञानिक अत्याधुनिक तकनीक की मदद से बाहरी अंतरिक्ष की खोज करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं, लेकिन बाहरी अंतरिक्ष के बारे में हमारा ज्ञान अब भी बहुत सीमित है, जबकि आध्यात्मिक गुरु हमारे आंतरिक और साथ ही बाहरी दुनिया के बारे में दिलचस्प और गहन जानकारी रखते हैं। मसलन, सद्गुरु जब भी बाहरी दुनिया की बात करते हैं, मुझे वह प्रेरणादायी लगता है क्योंकि वह अनुभवजन्य और हमारी अभी की समझ से परे होता है।
हालांकि हम चंद्रमा, मंगल और यहाँ तक कि शुक्र पर सैटेलाइट भेजते रहे हैं, फिर भी दूसरे ग्रहों के बारे में हमारी खोज और जो जानकारी हमने इकट्ठा की है, वह काफी सीमित है। मैंने बेहतरीन वैज्ञानिक जर्नल पढ़े हैं, मेरे रिसर्च पेपर प्रकाशित हुए हैं और चंद्रयान-3 के प्रोजेक्ट डायरेक्टर के रूप में भी मैंने इस अध्ययन में काफी समय बिताया है कि कैसे लॉन्च किया जाए, कैसे लैंड किया जाए और सैटेलाइट टेक्लोलॉजी में महारत कैसे हासिल की जाए। मैंने अत्याधुनिक तकनीक देखी है लेकिन फिर भी मैं कहूँगा कि हम जो जानते हैं, वह बहुत सीमित है।
इन विषयों पर सद्गुरु को सुनने से मुझे यह एहसास हुआ कि उनके पास जो भी समझ है, उसकी प्रकृति अनुभवजन्य है। मैं मानता हूँ कि योग या अंदर की ओर मुड़ना हर चीज़ करने का – यहॉं तक कि अंतरिक्ष के बारे में गहन अनुभवजन्य जानकारी हासिल करना – सबसे अच्छा तरीका है। दूसरी तरफ वैज्ञानिक समुदाय को बाहरी अंतरिक्ष को समझने के लिए ढेर सारा पैसा और समय लगाना होगा, फिर भी उससे हासिल ज्ञान बहुत सीमित होगा।
मेरी आंतरिक खोज की शुरुआत
2009 में, मैंने अपने एक दोस्त से, जो एम.टेक. में मेरा सहपाठी भी था, इनर इंजीनियरिंग के बारे में जाना। जब उसने अपनी दैनिक क्रियाएँ शुरू कीं, तो मैंने उसके अंदर एक उल्लेखनीय बदलाव देखा। उसने मुझे यह भी बताया कि वह काफी बेहतर महसूस कर रहा था और इसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया। एक बार, वह मुझे महाशिवरात्रि समारोह में ले गया। मैं पूरी रात जगा रहा, आधी रात के ध्यान में शामिल हुआ और मैंने इनर इंजीनियरिंग सीखने की तीव्र इच्छा महसूस की। अगली बार जब वह कोर्स शुरू हुआ, तो मैंने उसमें दाखिला ले लिया। कोर्स के अंत में, सातवें दिन मैंने अपने अंदर बहुत से बदलाव महसूस किए।
उस समय तक, मैं अपनी आंतरिक दुनिया के इन सभी पहलुओं के बारे में जानता तक नहीं था। मैंने निर्धारित 40 दिनों के लिए दिन में दो बार अपनी क्रियाएँ करना जारी रखा और मुझे बहुत अच्छा महसूस हुआ। फिर मुझे आगे की खोज की इच्छा हुई – मैंने सभी एडवांस कोर्स करने का इरादा किया। अगले ही महीने मैंने एक हठ योग कार्यक्रम में हिस्सा लिया और उसके अगले महीने भाव स्पंदन किया।
चूँकि मैं कई सैटेलाइट्स के लिए प्रोजेक्ट मैनेजर था, मुझे जल्दी-जल्दी छुट्टी नहीं मिल सकती थी। इसलिए मैं पहले से योजना बनाता था और ऐसे सप्ताहों में ईशा योग केंद्र जाता था, जिनमें मुझे शुक्रवार का अवकाश मिलता था। इन बड़े सप्ताहांतों में, मैं ईशा के कार्यक्रमों, पूजा में शामिल होता था, योग केंद्र में स्वयंसेवा करता था और मैंने कई कोर्स – शक्ति चलन क्रिया, शून्य ध्यान और सम्यमा पूरा किया। इसके तुरंत बाद मैं सद्गुरु के साथ ईशांग साझेदारी में भी शामिल हो गया और लोगों के फायदे के लिए कई ईशा प्रोजेक्ट्स में योगदान करने लगा।
हालांकि इसरो का मेरा काम अब मुझे स्वयंसेवा नहीं करने देता, मैं अपनी दो घंटे की क्रियाएँ नियमित तौर पर करता हूँ और वह मुझे स्थिर और चिंता मुक्त रखता है।
ईशा संस्कृति: बच्चे के लिए परफेक्ट उड़ान
जब मैंने ईशा योग केंद्र जाना और अपनी क्रियाएँ दैनिक रूप से करना शुरू किया, तो मेरी पत्नी भी इससे प्रेरित होकर 2010 में योग केंद्र में एक इनर इंजीनियरिंग रिट्रीट में शामिल हुईं। वह उनके लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ और वह एक कट्टर ईशा अनुयायी बन गईं। उन्होंने योग केंद्र में काफी स्वयंसेवा की है और हम रोज़ सुबह 5 बजे गुरु पूजा के साथ अपनी साधना साथ में शुरू करते हैं।
2009 से योग केंद्र जाते हुए हम ईशा संस्कृति की शिक्षा शैली और विद्यार्थियों पर उसके गहरे असर से बहुत प्रभावित हुए। इसलिए हमने एक फैसला लिया – हमने अपनी बेटी को ईशा संस्कृति में डालने की इच्छा प्रकट की। वास्तव में इस निर्णय पर अमल करने के लिए मेरी पत्नी ज्यादा इच्छुक थी।
मैंने बेहतरीन शैक्षिक संस्थानों में शिक्षा पाई है, जैसे नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (एनआईटी) और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी), से डॉक्टरेट किया है, अंतरिक्ष अध्ययन प्रोग्राम के लिए अमेरिका जैसे कई देशों की यात्रा की है और अब मैं इसरो जैसे एक विख्यात संस्थान में काम करता हूँ। लेकिन ईशा संस्कृति के इस पारंपरिक एप्रोच ने हमेशा मुझे आकर्षित किया है।
फिर एक दिन मैंने सद्गुरु को इस विषय पर बोलते सुना और उससे मैं और भी प्रभावित हो गया। उन्होंने कहा कि ईशा संस्कृति के विद्यार्थी यूनिवर्सिटी के लिए नहीं हैं – वे यूनिवर्स के लिए हैं। इस विचार ने मुझे छू लिया। उन्होंने यह भी कहा कि मानसिक और शारीरिक विकास के लिए सही माहौल और सहयोग मिलने पर एक बच्चा स्वाभाविक रूप से विकास करेगा और किसी भी परिस्थिति में डाले जाने पर भी अपना बेहतरीन काम करेगा।
जब मैं अपनी स्कूली और बाद में उच्च शिक्षा हासिल कर रहा था, तो मुझे इसके बारे में पता नहीं था। इसलिए मुझे लगा कि यह अपनी बेटी को भावी चुनौतियों के लिए तैयार करने का सबसे अच्छा तरीका होगा। हालांकि मैं जानता हूँ कि वह इंजीनियर या डॉक्टर नहीं बनने वाली।
बच्चे के विकास के लिए बेहतरीन माहौल
जब मेरी बेटी ईशा संस्कृति में होती है, तो मैं उसकी कमी महसूस करता हूँ, लेकिन मैं खुद को तसल्ली देता हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि वह एक पवित्र स्थान पर है। यह अपने आप में एक सौभाग्य है। और यह सच है कि वह अपना बेहतरीन कर रही है। हम 21 दिनों के उसके सालाना अवकाश पर उसके साथ मस्ती करते हैं और जब उसके जाने का समय आता है, तो मैं बहुत भावुक हो जाता हूँ। लेकिन यह हमारी बेटी की भलाई के लिए ही है, जिसे अब ईशा संस्कृति में छह साल हो गए हैं।
हर बार जब वह घर आती है, तो मैं उसके अंदर ढेर सारे बदलाव देखता हूँ। उसे कोई भी काम करने में कोई झिझक नहीं होती और वह हर काम पूरे ध्यान और जुड़ाव के साथ करती है। वह जब भी घर आती है, तो हमें अपने स्कूल के बारे में बताती है कि उसने कौन सी नई चीज़ें सीखीं, जैसे कोई शास्त्रीय नृत्य। उसे भरतनाट्यम करते देखना वाकई सुखद होता है। उसने जो सद्गुण और कौशल हासिल किए हैं, वे दिल को छूने वाले और उत्साहजनक हैं। औपचारिक शिक्षा अधिकांश बच्चों को मिलती है, पर उससे कहीं ज्यादा यहाँ होने वाले बहुमुखी विकास की हम कद्र करते हैं।