इस श्रृंखला में, ईशा के ब्रह्मचारी और संन्यासी अपनी व्यक्तिगत पृष्ठभूमि, विचार, अवलोकन और अनुभव साझा करते हैं कि इस पवित्र ‘चैतन्य के पथ पर’ चलने का उनके लिए क्या अर्थ है।
जब मैं 6 साल का था, मैं अक्सर स्कूल से भागकर नजदीक के एक वीरान कब्रगाह पर चला जाता था और वहाँ एक पेड़ के नीचे बैठकर प्रकृति और खंडहरों को निहारा करता था। कई बार जब मेरे पिता ने मुझे ऐसा करते पकड़ लिया तो उन्होंने मुझे उस स्कूल से निकालकर एक दूसरे नजदीकी स्कूल में डाल दिया, जहाँ मैं परिवार के एक परिचित शिक्षक की देखरेख में था। मैंने उनकी कड़ी निगरानी में अपनी स्कूली शिक्षा हासिल की, लेकिन मैं अक्सर हैरान होता था कि मुझे ऐसा क्यों करना पड़ रहा है। मैं उस समय कान्वेंट स्कूलों की सख्ती और दुर्व्यवहार से तालमेल नहीं बैठा पा रहा था। सिस्टम से बचने में असमर्थ रहने पर मैं विद्रोही बन गया और कई बार आक्रामक हो जाता था। छठी कक्षा में पहुँचने तक, मुझे माइग्रेन के भयानक दौरे भी पड़ने लगे जो मेरे पूरे शैक्षिक जीवन के दौरान जारी रहे।
मेरे उद्दंड व्यवहार के कारण 9वीं कक्षा में मुझे स्कूल से निकाल दिया गया। मेरे पिता ने ज़ोर दिया कि मैं खुद से अपनी पढ़ाई जारी रखूँ। चूँकि अब मेरे पास अपनी रफ्तार से सीखने की आज़ादी थी और यह कोई जबर्दस्ती नहीं लग रही थी, इसलिए मैं एक प्राइवेट विद्यार्थी के रूप में राज्य बोर्ड परीक्षा में शामिल हुआ और अच्छे अंकों से पास हुआ। इसके बाद मैंने फिर से 11वीं कक्षा में स्कूल में दाखिला लिया, जहाँ मैंने इतिहास विषय चुना। इस बार मेरे अंदर संघर्ष कम था लेकिन फिर भी पढ़ाई में कभी मेरी दिलचस्पी नहीं रही।
बाहर से, मैं एक खुशमिजाज इंसान था लेकिन समय बीतने के साथ-साथ मेरे अंदर एक खालीपन बढ़ता जा रहा था। हालांकि कई बार ऐसा भी हुआ जब मैंने जीवन के उल्लास का स्वाद चखा – इसने मुझे ऐसे अनुभव दिए, जिन्हें मैं समझ नहीं सका। मेरे जीवन का एक ऐसा ही चरण था, जब मैं राष्ट्रीय सेवा योजना (एनएसएस) में शामिल हुआ। प्रशिक्षण की तीव्रता और उसने जो उद्देश्यपूर्ण अस्तित्व दिया, उसने मुझे बहुत प्रभावित किया। एनएसएस शिविरों के दौरान कई बार रात का खाना खाते समय मेरी आँखों से आँसू यूँ ही बहने लगते थे।
अपना ग्रेजुएशन पूरा करने के बाद मुझे न तो उच्च शिक्षा में दिलचस्पी थी, न ही किसी नौकरी में।
हर किसी में यीशु देखना
एक बार मेरे एक चाचा ने मुझसे ईशा योग कक्षा करने के लिए कहा। हालांकि मैं अनिच्छा से तैयार हुआ था, लेकिन उस कक्षा का मुझ पर गहरा असर पड़ा। मैं कहूँगा कि वह मेरे जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। मुझे याद है कि मैंने कक्षा के बाद शिक्षक से पूछा था कि वे जहाँ भी जा रहे हों, क्या मैं उनके साथ जा सकता हूँ। ‘आप नियमित रूप से अपनी क्रियाएँ कीजिए, फिर हम देखेंगे,’ शिक्षक ने सौम्यता से जवाब दिया था। मैं नियमित रूप से अपनी क्रियाएँ करता था जिससे मुझे आनंद मिलता था। मैंने पाया कि एक दिन भी उसे छोड़ देने पर जीवन बहुत नीरस लगने लगता है।
थोड़े दिनों बाद मैं भाव स्पंदन कार्यक्रम करने के लिए आश्रम आया। मैं कक्षा में इतना भावविभोर हो गया था कि कई बार मुझे संभालना मुश्किल हो गया – मैं परमानंद में था। मैंने सद्गुरु में और हर किसी में यीशु को देखा। समापन वाले दिन मैंने प्रोग्राम के दौरान यीशु के अपने अनुभव को कक्षा और सद्गुरु के साथ साझा किया था।
खुशियों की राह पर
साधना जारी रही और इसके साथ आश्रम में आकर रहने की मेरी लालसा बढ़ती जा रही थी। चूँकि मेरी पृष्ठभूमि ईसाई है, मैं जानता था कि मेरे माता-पिता के लिए मुझे यहाँ आकर रहने की इजाजत देना मुश्किल होगा। हालांकि मेरे पिता बहुत खुले विचारों के हैं, मगर उन्हें एक आश्रम में रहने का ख्याल पसंद नहीं आया। मेरी माँ को इससे ज्यादा परेशानी नहीं थी। थोड़े संघर्ष और चतुराई के साथ मैं सितंबर 2003 में स्थायी रूप से आश्रम आ गया। मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं थी। जीवन में पहली बार मुझे आगे खुशियों की राह दिखाई दी।
एक समय मैं उस छोटे से स्टॉल को संभाल रहा था, जो आश्रम में ध्यानलिंग के ठीक बाहर है। लोगों की सुविधा के लिए हम 5-6 चीज़ें, जैसे वेजीटेबल पफ और कैरट केक (आप अब भी पेपरवाइन ईटरी में इन्हें पा सकते हैं), टूथब्रश, टूथपेस्ट, टॉयलेट पेपर रोल आदि बेचते थे। वहॉं खड़े होकर मैं स्वामी अभिपदा को बिना थके आगंतुकों का स्वागत करते देखता था। मुझे याद है वह आश्रम में मेरी पहली महाशिवरात्रि थी। मैंने देखा कि स्वामी अभिपदा न केवल पूरी रात खड़े होकर आगंतुकों का स्वागत करते रहे, बल्कि अगली दोपहर जब मैं कुछ घंटे की नींद लेकर वापस अपने स्टॉल पर आया, उस समय तक वह वहीं खड़े थे। यह बहुत प्रेरणादायी था।
ब्रह्मचर्य की प्रचंड तीव्रता
अगली महाशिवरात्रि पर मुझे ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी गई। दीक्षा के बाद मेरे माता-पिता भी मुझसे मिलने आए। ब्रह्मचर्य की दीक्षा ने मेरे अंदर बुनियादी बदलाव ला दिया। योग शुरू करने के बाद मैं एक चीज़ ठीक से नहीं कर पाता था, वह था पालथी मारकर बैठना। मैं तब तक अपनी जिन्दगी में कभी फर्श पर नहीं बैठा था। आश्रम आने के बाद, 20 मिनट से ज्यादा पालथी मारकर बैठना भी मेरे लिए बहुत पीड़ादायक था। सात दिन के सम्यमा के दौरान मैं किसी तरह बहुत दर्द के साथ बैठा और उसके बाद कभी ज्यादा देर तक ऐसे बैठने की इच्छा नहीं थी।
जब मुझे पता चला कि दीक्षा से पहले की साधना के एक भाग के रूप में, मुझे कई दिन तक पालथी मारकर बैठना पड़ेगा, तो मैं सोच नहीं पा रहा था कि मुझे यह करना चाहिए या नहीं। लेकिन कोई दूसरा चारा न दिखने पर, मैंने उसे करने का फैसला किया। मैं बैठा रहा। एक-दो दिन के बाद मुझे समय का होश नहीं रहा और कई मायनों में स्थान का भी। रात को किसी समय मैं उठा। मेरे घुटने सख्त हो गए थे और मुझे शौचालय तक जाने के लिए खुद को घसीटना पड़ा। मैं वहॉं गिर पड़ा – थकान या बेहोशी से नहीं, बल्कि मैं अपने अनुभव की तीव्रता को सहन नहीं कर पा रहा था। कुछ मिनट ऐसा ही रहा। फिर मैंने उस अनुभव को झटक दिया और अपनी साधना जारी रखी। अगले दिन हमारी दीक्षा थी।
सुबह, हम नदी के पास एक जगह गए। मैंने देखा कि सद्गुरु के चरण हमारी तरफ आ रहे हैं। हम एक-एक करके एक प्रक्रिया के लिए उनके पास गए। जब मेरी बारी आई, मैं उनके सामने बैठा, और मेरे अंदर एक जबर्दस्त भक्ति भावना आई। अभिभूत होकर मैंने अपने जीवन में पहली बार उनके चरण छू लिए। जीवन में इससे पहले मैं कभी किसी के सामने नहीं झुका था। जब मेरे पिता मेरे बेप्टिज्म के लिए मुझे चर्च ले गए थे, तो उस छोटी उम्र में भी मैंने पादरी के आगे झुकने से इंकार कर दिया था। बाद में मेरे पिता को मेरे बेप्टिज्म के लिए दूसरा चर्च ढूँढना पड़ा था। तो अब झुकना मेरे लिए बहुत अजीब बात थी। लेकिन इससे भी अजीब बदलाव आना अभी बाकी था।
जब ‘शिव’ फूट पड़ा
दीक्षा के दौरान, हम सद्गुरु के साथ एक छोटे से कमरे में थे। मेरे पैरों में भीषण दर्द और पूरे शरीर में पीड़ा थी। एक बार फिर हमें दीक्षा के लिए बारी-बारी से उनके पास बुलाया गया। जब सद्गुरु ने दीक्षा की प्रक्रिया पूरी कर ली, और मैं वापस अपनी जगह पर बैठने आया, तो मैं कारण जाने बिना चिल्लाया ‘शिव!’ अगली बात जो मैं जानता था, मेरा पूरा अस्तित्व ‘शिव’ ध्वनि से स्पंदित हो रहा था। मैंने तब तक खुद को यह शब्द बोलने की इजाजत नहीं दी थी, हालांकि मैं इतने लंबे समय से आश्रम में था और पिछले कुछ दिन दीक्षा प्रक्रिया के लिए तीव्र ब्रह्मचर्य साधना में बिताए थे।
मेरे लिए सद्गुरु यीशु थे और मैं हमेशा उसी रूप में उनसे जुड़ाव महसूस करता था। लेकिन अब हालात ये थे कि मेरे शरीर का रोम-रोम परमानंद में डूबा था और हर कोशिका ‘शिव! शिव!’ चीख रही थी। वह अनुभव इतना सुंदर था कि मैंने तर्क से उसका विश्लेषण करने की कोशिश नहीं की। मुझे याद नहीं था कि मुझे अब भी दर्द है या नहीं – तब दूसरी कोई चीज़ मायने नहीं रखती थी। अगले छह महीनों तक मैं किसी दूसरी दुनिया में था – ‘शिव’ की ध्वनि हर समय बजती रहती थी और मैं चैतन्य के आनंद से भरा हुआ था। मैं उसमें इतना डूबा हुआ था कि कुछ भी करने में असमर्थ था। धीरे-धीरे वह शांत हुआ और रसोई में मेरा सफर शुरू हुआ।
सलाद और सूप
शुरू में लगभग तीन साल तक मैं रसोईघर के कामों में लगा रहा। मैंने स्वामी विबोधा के मार्गदर्शन में सलाद और रोगियों के लिए विशेष आहार बनाने से शुरुआत की। रसोईघर में काम करना बहुत थकाने वाला और संतुष्टिदायक होता है। कुछ महीने तक यह काम करने के बाद, यह एक अलग दुनिया जैसा महसूस हुआ। कई दिन, सुबह की साधना के बाद एक बार किचन में घुसने पर मैं देर रात तक वहाँ से निकल नहीं पाता था। इस काम का सबसे आश्चर्यजनक पहलू यह था कि मेरे बनाए सलाद और सूप की सद्गुरु समेत सभी ने सराहना की।
यहॉं आने से पहले मैं किसी रसोईघर में घुसा भी नहीं था। भोजन पकाने का मेरा अनुभव स्वाद की मेरी बारीक समझ से जुड़ा था। घर पर जब भी मुझे लगता था कि खाना उतना अच्छा नहीं है, तो मैं न सिर्फ अपनी मॉं से अपना असंतोष साझा करता था, बल्कि यह भी बताता था कि उसमें गड़बड़ क्या है – इस मसाले की कमी हो सकती है, आटा ठीक से गुंथा हुआ नहीं हो सकता है - मैं उन्हें स्वाद की कमी की सही वजह बता सकता था। वह हमेशा हैरान होती थीं कि मुझे पाक-कला का कोई ज्ञान न होने के बावजूद मेरे अंदर यह बारीक समझ कहॉं से आई। मुझे भी इसका कोई अंदाज़ा नहीं था। यह सिर्फ खाना बनाने के बारे में नहीं था – बचपन से ही मुझे समस्या को समझने और उसकी तह में जाने की आदत पड़ गई थी। आश्रम में कोई भी काम करते समय यह आदत मेरे बहुत काम आई।
रसोई के काम पर वापस लौटते हैं - मैं वाकई खुले दिमाग का था और यह काम शुरू करने के पहले छह महीने खाना बनाने का पूरा आनंद लिया। फिर मैं धीरे-धीरे अकड़ू होने लगा और कई चीज़ों की आलोचना करने लगा। मैं कई चीज़ों में मीनमेख निकालने लगा, और मुझे लगता था कि स्वामी विबोधा और बेहतर तरीके अमुक काम कर सकते थे – मसलन खाने की बर्बादी को कम करना। जब मुझे रसोई का प्रभारी (इंचार्ज) बनाया गया, तब जाकर मुझे वास्तव में समझ में आया कि ईशा की रसोई को चलाने का क्या मतलब है। तब मुझे एहसास हुआ कि कितने लोगों के लिए खाना पकाना है, यह अंदाज़ा लगाना कितना मुश्किल फैसला था।
उस समय, हमारे पास इतने सिस्टम नहीं थे, जितने अभी हैं, और आश्रम लगातार बढ़ रहा था। आश्रम में किसी समय कितने लोग भोजन करने वाले हैं – उस संख्या का सही-सही अंदाज़ा लगाना मुश्किल था। चूँकि स्वामी विबोधा के लिए यह सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था कि कोई भी भूखा न रहे, इसलिए कई बार वह उससे ज्यादा मात्रा में भोजन पका देते थे, जितना लोग वास्तव में खा पाते थे। उस समय, मैं इतनी बर्बादी देखकर पागल हो जाता था। बाद में मुझे एहसास हुआ कि रसोई चलाने का कोई परफेक्ट तरीका नहीं है।
किसी भी समय हमें कम से कम 3-4 अलग-अलग मेनू तैयार करने होते थे, अलग-अलग पसंद वाले हज़ारों लोगों को संतुष्ट करना होता था और ज्यादा से ज्यादा 2-3 घंटों में इतनी बड़ी संख्या में लोगों के लिए खाना तैयार करने के लिए मेरे जैसे अनुभवहीन रसोइयों और सहायकों के साथ काम करना होता था। और हर किसी की इसके बारे में अपनी राय होती थी – जो भी भोजन करता है, वह इस पर टिप्पणी कर सकता है कि खाने में क्या दिया जा रहा है। इस काम की यही प्रकृति है।
कई बार, मैं इस काम की माँग से थक जाता था और अलग-अलग कार्यक्रमों की खास और असामान्य भोजन की जरूरतों को पूरा करने का विरोध करता। उदाहरण के लिए, एक कार्यक्रम के समापन के समय ‘मूनलाइट डिनर’ के लिए, को-ऑर्डिनेटर ने हमसे अनुरोध किया कि हर किसी के लिए सीधे तवा से गर्मागर्म ताज़ा डोसा परोसा जाए। मैंने सोचा कि यह पागलपन भरी सोच है लेकिन स्वामी विबोधा ने कभी किसी चीज़ को असंभव नहीं समझा। हमने स्पंदा हॉल में स्टोव इंस्टॉल करने का एक ऐसा तरीका खोज निकाला जिससे हर कोई गर्म डोसे का आनंद ले सके।
हालांकि एक स्तर पर, वह एक उत्साहजनक अनुभव था, वहीं दूसरी ओर रसोई का काम बहुत थकाने वाला था। कई बार मैं बहुत निराश और तनावग्रस्त महसूस करता था। उन दिनों, स्वामी विभु आकर मेरा हाल-चाल लेते थे। उनके अलावा कई ब्रह्मचारियों ने इस रास्ते पर चलने में मेरी मदद की। अब भी अगर मैं किसी चीज़ में उलझा हुआ महसूस करता हूँ या मुझे मार्गदर्शन की जरूरत होती है, तो मैं संघ के किसी दूसरे ब्रह्मचारी के पास जाता हूँ और पूरे दिल से उनकी बात सुनता हूँ।
कचरे का सदुपयोग
रसोई में तीन साल काम करने के बाद, मुझे रखरखाव (मेंट्नेन्स डिपार्टमेंट) के काम में डाल दिया गया। बस पूरा दिन फिर से धूप देखना ही बहुत आनंददायक था। रखरखाव का काम ऐसा है कि एक दिन आपके पास खाने के लिए भी समय नहीं होगा और दूसरे दिन सुबह के सामान्य कामों के बाद करने के लिए कुछ नहीं होगा। रखरखाव विभाग के पास कचरा निपटारे का भी काम है। इससे मुझे इस बात में दिलचस्पी हुई कि हम बेकार सामग्री का उपयोग किस तरह कर सकते हैं। एक बार हमने कुछ बेकार बाँसों से ‘इलेक्ट्रिसिटी रूम’ के चारों ओर बाड़ बनाई।
यह भारती अक्का की नज़रों में आया, जो सौंदर्यबोध (एस्थेटिक्स) के लिए ग्रुप कोऑर्डिनेटर थीं। इसके बाद, उन्होंने लगातार आश्रम में कुछ सुंदरता लाने के लिए मुझे काम पर लगाना शुरू कर दिया। खाना पकाने की तरह, ऐसी चीज़ें करने का भी मेरा कोई अनुभव नहीं था, लेकिन लगातार कोशिश करते हुए कोई नई चीज़ लेकर आना बहुत आनंददायक था।
एक बार, अक्का ने हमें कुछ ऐसा करने को कहा जिससे आश्रम के कूड़ेदान, सुंदरता की दृष्टि से अच्छे दिखें। सबसे बढ़िया, अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कूड़ेदान बहुत महंगे थे और सस्ते विकल्प आश्रम के सौम्य माहौल में फिट नहीं बैठते थे। इसलिए मैं किसी ऐसी चीज़ की तलाश में गया, जो सभी मानदंडों पर खरा उतरे। एक जगह मुझे बेकार टायरों से बना एक बड़ा टब मिला, जिसे गायों को चारा खिलाने वाली नांद की तरह इस्तेमाल किया जाता था। इससे मुझे थोड़ा कौतुहल हुआ और मैं उस फैक्टरी में गया, जहाँ वे बनते थे। मैंने पूछा कि क्या वे एक छोटे ड्रम के आकार में उन्हें बना सकते हैं। शुरुआत में उन्होंने बहुत अनिच्छा दिखाई, लेकिन बाद में वे उसे आज़माने के लिए तैयार हो गए।
तो अब हमारे पास काफी सस्ते, फिर से इस्तेमाल किए जा सकने वाले कूड़ेदान हैं, जो भड़कीले नहीं हैं और उन्हें पानी से आराम से साफ किया जा सकता है। बाद में हमने उसी फैक्टरी से रोड डिवाइडर भी बनवाए। सद्गुरु को वे रोड डिवाइडर वाकई पसंद आए क्योंकि वे गहरे पीले या नारंगी रंग के स्टैंड नहीं चाहते थे।
ध्यानलिंग – हमारा दिल
कुछ साल पहले, रखरखाव के काम के बाद, मुझे ध्यानलिंग की सेवा करने का अवसर मिला। जब मैं ध्यानलिंग विभाग में गया ही था, सद्गुरु ने पूरी टीम के साथ पूरे परिसर का दौरा किया। जब उन्होंने विभाग प्रमुख के बारे में पूछा तो मैं उनके पास गया। ‘यह हमारा दिल है, स्वामी – इसका ध्यान रखना,’ उन्होंने हाथ जोड़कर हमसे कहा। मैं वहाँ अभिभूत खड़ा रहा। इसके बाद, टीम ने पर्यटकों की सुविधा के लिए कई चीज़ें ठीक करने की कोशिश की, जो सद्गुरु हमसे चाहते थे। यह जानते हुए कि सद्गुरु के लिए आश्रम के खर्चों जितना ही आश्रम की सुंदरता भी मायने रखती है, मैं कई-कई दिन समाधानों के बारे में सोचता रहता। मैंने भक्तों की आवाजाही पर नज़र रखने और यह देखने के लिए कि उनके सामने क्या समस्याएँ आती हैं, सूर्यकुंड के बाहर एक मेज लगा ली।
धीरे-धीरे, हमने कई चीज़ें बनानी शुरू कर दीं, ताकि पर्यटकों को गर्म जमीन पर न चलना पड़े और वे काउंटर पर अपने कीमती सामान छोड़कर सुरक्षित महसूस करें। हमने यह भी पक्का किया कि पर्याप्त संकेत चिह्न, पानी के आउटलेट, सूचना केंद्र, आदि हों। बाकी चीज़ों के अलावा हमने पर्यटकों की आवाजाही को व्यवस्थित करने के लिए रस्सियों के बैरियर के बदले, जो सद्गुरु को पसंद नहीं थे, बाँस के बाड़ लगाए।
फिर से वहीं
हाल में, मुझे संस्कृति स्कूल टीम में शामिल होने के लिए कहा गया। ‘बस संस्कृति के विद्यार्थियों के साथ रहो,’ सद्गुरु ने मुझसे कहा। ऐसा लगा जैसे जीवन ने पूरा गोल चक्कर लगा लिया हो – संभालने में सबसे मुश्किल बच्चा होने से लेकर अब हर तरह के बच्चों के लिए प्रेरणा स्रोत बनना। मैं फिर से एक विद्यार्थी बनकर बहुत आनंदित हूँ – इस बार इच्छुक हूँ। मेरे लिए, यह मार्ग, यह यात्रा मुझे वह सब कुछ देती है, जिसकी जाने-अनजाने मुझे तलाश है। जीने का इससे बेहतर तरीका नहीं हो सकता था।