शेखर गुप्ता: हमें बताइए कि मिट्टी बचाना कैसे जल बचाने, नदी बचाने, पर्यावरण बचाने, कार्बन डाइऑक्साइड बचाने, कुछ भी बचाने से अलग है।
सद्गुरु: क्या किसी ने कार्बन डाइऑक्साइड भी बचाने की कोशिश की है?
शेखर गुप्ता: मेरा मतलब लोग उसे कम करने की कोशिश करते हैं...
सद्गुरु: वह उससे छुटकारा पाना है, बचाना नहीं।
यह सिर्फ पर्यावरण से नहीं बल्कि अस्तित्व से जुड़ा मुद्दा है
सद्गुरु: मिट्टी हमारे अस्तित्व का आधार है। और कार्बन डाइऑक्साइड के विपरीत, मिट्टी एक जीवित तत्व है। मिट्टी सबसे बड़ी जीवन प्रणाली है, सिर्फ इस पृथ्वी पर नहीं, बल्कि पूरे ज्ञात ब्रह्मांड में। हालांकि जीवन के रूप में हम 15-18 इंच की ऊपरी मिट्टी में होने वाली घटनाओं का एक नतीजा भर हैं, लेकिन दुर्भाग्य से हमने उसे एक जड़ पदार्थ के रूप में देखा है, एक संसाधन के रूप में इस्तेमाल किया है और उसे ऐसे मुकाम तक ले आए हैं, जहाँ आजकल मृदा वैज्ञानिक, मृदा विलोपन शब्द का इस्तेमाल कर रहे हैं। मृदा विलोपन यानी मिट्टी का ग़ायब हो जाना। मिट्टी का ग़ायब होना, जीवन का विलुप्त होना है।
मिट्टी सबसे बड़ी जीवन प्रणाली है, सिर्फ इस पृथ्वी पर नहीं, बल्कि पूरे ज्ञात ब्रह्मांड में।
पर्यावरण की दूसरी समस्याएं भी हैं, मैं ये नहीं कह रहा कि वे महत्वपूर्ण नहीं हैं – वे महत्वपूर्ण हैं। लेकिन मिट्टी जीवन का मूलभूत पहलू, हमारे अस्तित्व का आधार और इस पृथ्वी पर जीवन का भविष्य है। तो मिट्टी को बचाना एक अलग चीज़ है। पर्यावरण से जुड़े दूसरे मुद्दों के साथ आर्थिक पहलू भी जुड़े हैं, जिनके साथ उनका टकराव होता है। इसीलिए उन्हें लेकर अंतहीन बहसें होती रहती हैं। जब मिट्टी में जैविक तत्व बढ़ाने और मिट्टी को उपजाऊ बनाने की बात होती है, तो उसमें कोई लॉबी, कोई उद्योग नहीं है और धरती का कोई मनुष्य उसके खिलाफ नहीं है, हर कोई उसके पक्ष में है।
हम मिट्टी को दूसरे जटिल पारिस्थितिकी मुद्दों से अलग करना चाहते हैं ताकि मिट्टी को जीवन की एक समस्या, अस्तित्व संबंधी समस्या के रूप में देखा जा सके, न कि पर्यावरण की समस्या के रूप में।
जैविक तत्व बढ़ाने के लिए हमें दो चीज़ों की जरूरत है
शेखर गुप्ता: तो, मिट्टी के जैविक तत्व बढ़ाने से आपका क्या आशय है?
सद्गुरु: जीवाणुओं के लिए नाश्ता, लंच और डिनर परोसना। मिट्टी एक जीवित इकाई है। इसका मतलब है कि एक मुट्ठी मिट्टी में 8-10 अरब से ज्यादा सूक्ष्मजीव हो सकते हैं।
शेखर गुप्ता: सही बात है।
सद्गुरु: और दुनिया भर में खरबों सूक्ष्मजीव और करोड़ों प्रजातियां हैं। इस सीमा तक कि टॉप सॉयल वैज्ञानिक बेहिचक मान रहे हैं कि वे मिट्टी में मौजूद सूक्ष्मजीवों या प्रजातियों के बारे में एक फीसदी भी नहीं जानते।
शेखर गुप्ता: तो आप नाश्ता, लंच या डिनर कैसे डालते हैं?
सद्गुरु: जैविक सामग्री के सिर्फ दो स्रोत हैं: वनस्पति जीवन और पशु जीवन। और कुछ भी नहीं। अभी, अगर आप खेतों को देखें, खासकर किसी बड़े पश्चिमी देश में या भारत में भी, वहां सिर्फ भूरी मिट्टी और मशीनें हैं। जमीन पर कोई वनस्पति जीवन या पशु जीवन नहीं है – तो जैविक तत्व कैसे हो सकता है? नुक़सान इसी वजह से हुआ है।
प्राकृतिक चक्र को कैसे बहाल करें
मशीनों के साथ समस्या यह है कि वे मल पैदा नहीं करती हैं। वे हवा में कार्बन डाइऑक्साइड या कार्बन मोनोऑक्साइड तो छोड़ती हैं, लेकिन कुछ भी वापस मिट्टी में नहीं जाता है। जब जमीन पर जानवर काम करते थे, तो वे जो कुछ खाते थे, उसका एक हिस्सा एक अलग रूप में वापस मिट्टी में डालने के लिए दे देते थे और बहुत सारे सूक्ष्मजीव उसका इंतजार करते थे। सृष्टि ऐसी ही है, एक जीव का मल दूसरे जीव के लिए भोजन है। जब वह मर जाता है, तो बेशक उसका शरीर भी दूसरे जीव के लिए भोजन बन जाता है।
इससे बेहतर डिज़ाइन नहीं हो सकती क्योंकि यह एक आत्मनिर्भर अस्तित्व की चक्रीय अर्थव्यवस्था है। हमने इसे अलग-अलग स्तरों पर बड़े पैमाने पर नष्ट किया है। एक बड़ी बाधा यह है कि दुनिया की 54% मिट्टी पूरी तरह खेती के अधीन है। बाकी 18-20% पर आंशिक खेती होती है। इस तरह दुनिया की 72% से ज्यादा जमीन जुती हुई है।
जैविक सामग्री के सिर्फ दो स्रोत हैं: वनस्पति जीवन और पशु जीवन। और कुछ भी नहीं।
शेखर गुप्ता: खेती वाली जमीन?
सद्गुरु: हाँ, बेशक जंगल को छोड़कर। और दुनिया की 4.2 फीसदी जमीन पक्की है क्योंकि वह शहरी इलाका है। तो कुल मिलाकर दुनिया की 75% धरती या तो जुती हुई है या पक्की है, जिसका मतलब है कि वहाँ कोई फोटो-सिंथेसिस नहीं हो रहा है, कोई वनस्पति जीवन नहीं है और काफी हद तक कोई पशु जीवन भी नहीं है। आप कुत्ते को घुमाने ले जा सकते हैं और वह इधर-उधर गंदगी कर सकता है, लेकिन वह समाधान नहीं है। इसके लिए मल-मूत्र की बड़े पैमाने पर जरूरत है। ऐसा तभी हो सकता है जब बड़ी संख्या में पशु हों और वनस्पति जीवन भी हो।
एक उपयोगी आविष्कार हानिकारक हो गया
पौधे और पशु क्यों गायब हो गए? 1918 में एक जर्मन वैज्ञानिक ने नाइट्रोजनयुक्त खाद का आविष्कार किया। जब लोगों ने इसे लेकर अपनी जमीन पर फेंका, तो फसलें फूट पड़ीं। यह कुछ ऐसा था जो लोगों ने पहले कभी नहीं देखा था। यह हरित क्रांति थी। भारत के कई हिस्सों में, हमारी उपज 300 फीसदी से ज्यादा बढ़ गई। यह सचमुच जादुई पाउडर था।
जब आपके पास यह जादुई पाउडर आया, तो आपने उसे हर कहीं फेंकना शुरू कर दिया और हर जगह फसलें उसी तरह फूट पड़ीं। तो स्वाभाविक रूप से लोग उस पर पूरी तरह मुग्ध हो गए। साथ ही पहले हमारे यहाँ कुछ भीषण अकाल पड़े, जिसमें लाखों जानें चली गईं। अकाल के अपने हैंगओवर पर काबू पाने के लिए हमने रसायनों का इस्तेमाल करने पर नीतियां बनाईं और उसे हासिल किया। हमने इस देश में औसत उम्र में भी इजाफा किया। 1947 में यह 30 साल थी – क्या आप विश्वास कर सकते हैं?
अब इन 75 सालों में, हमने 70 साल की औसत उम्र पा ली है जो किसी भी देश के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। वह हरित क्रांति अकाल की स्थितियों को पार करने की एक कोशिश थी। आप दूसरी तरफ जाने के लिए एक पुल पर चढ़ते हैं। लेकिन अगर आप किसी पुल पर चढ़कर कभी नहीं उतरते, तो आप पुल पर अटके रह जाते हैं। यही गलती हमने और पूरी दुनिया ने की, किसी न किसी रूप में। अब समय है कि हम पुल से उतर जाएं।
क्या रोबोटिक्स खेती को इको-फ्रेंडली बना सकता है?
आज हमारे पास वैश्विक कृषि उत्पादन की योजना बनाने और जहाँ चाहें, वहाँ भोजन ले जाने की पर्याप्त क्षमताएं हैं। अब जबकि हमारे पास ये क्षमताएं हैं, तो अब पुल से उतरने का समय है ताकि हम मिट्टी को फिर से उपजाऊ बनाने के बारे में सोच सकें। हमें वनस्पति जीवन और पशु जीवन को वापस लाना होगा, लेकिन जरूरी नहीं है कि पशुओं को अब काम करना पड़े। काम मशीनें कर रही हैं, बस जो मशीनें हमने लगाई हैं, वे इतनी अनगढ़ हैं कि वे जमीन को तहस-नहस कर देती हैं।
हमें वनस्पति जीवन और पशु जीवन को वापस लाना होगा।
अब समय है कि खेती में रोबोटिक्स को शामिल किया जाए, जहाँ वह दिन-रात काम कर सके। वह ट्रैक्टर या दूसरी बड़ी मशीनों की तरह पूरे इकोसिस्टम में बाधा डाले बिना किसी पुरुष या स्त्री की तरह खेत में काम कर सकता है। हमें उस दिशा में बढ़ने की जरूरत है।
अभियान को वैश्विक कार्यवाही में कैसे बदलें
नीलम पांडे: जब हम मिट्टी को बचाने की बात कर रहे हैं, मेरे मन में पहला सवाल यह आता है कि कोई अभियान शुरू करना और उसे बनाए रखना कितना मुश्किल होता है। इसके लिए आपको प्रभावशाली लोगों के सहयोग और किसी तरह के राजनीतिक समर्थन की जरूरत होती है।
सद्गुरु: प्रभावशाली लोगों वाला पहलू लोगों को काम करने के लिए प्रेरित करने के लिए है। उसके बिना आप दुनिया भर के प्रशासनों का ध्यान आकर्षित नहीं कर सकते। एक बार हमें प्रशासनों का ध्यान मिल जाए, फिर काम बिल्कुल अलग तरह का है। हम वह प्रक्रिया शुरू कर चुके हैं और यह एक लंबी दौड़ है। वह असली मेहनत का काम होगा, जो लोगों की नज़र में नहीं होगा।
स्पीकर: हमारे एक सब्सक्राइबर जानना चाहे हैं... ‘आप दुनिया भर के नेताओं से बात करते रहे हैं – क्या आपको लगता है कि मिट्टी बचाने के इस मुद्दे पर दुनिया में आम सहमति बन रही है?’
सद्गुरु: बहुत ज्यादा। मैंने कॉप-15 में भी वक्तव्य दिया और वहां 197 प्रतिभागी देशों ने हिस्सा लिया, जिसमें यूरोपीय संघ, कैरीकॉम[1] और कॉमनवेल्थ राष्ट्र शामिल थे।
शेखर गुप्ता: कॉप26
सद्गुरु: नहीं, यह यूएनसीसीडी[2] कॉप 15 है।
[1] 15 मेम्बर स्टेट्स की राजनैतिक और आर्थिक स्तर की केरीबियाई कम्युनिटी
[2] मिट्टी को रेट में बदलने से रोकने के लिए बनी संयुक्त राष्ट्र संस्था
ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है: जलवायु या मिट्टी?
सद्गुरु: सारा ध्यान कॉप26 पर है क्योंकि वह यूएनएफसीसीसी[1] है, जिसका संबंधी पूरी तरह जलवायु से है। आप मिट्टी पर ध्यान दिए बिना जलवायु के बारे में कैसे बात कर सकते हैं, जब लगभग 40% जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग, मिट्टी के क्षरण के कारण होता है? अगर आप जलवायु परिवर्तन का विज्ञान नहीं जानते तो एक छोटा सा काम कीजिए - अभी, आप दिल्ली में हैं, एक घंटे तक तेज़ धूप में खड़े रहिए, फिर पेड़ की छाया में चले जाइए – आपको पता चल जाएगा कि जलवायु परिवर्तन क्या है। कम से कम 3-4 डिग्री का अंतर होता है।
मिट्टी को नम होना चाहिए, उसे ढंकने की जरूरत है। गर्मियों में उसके लिए या तो आवरण फसलों की (कवर क्रॉप्स) या पेड़ आधारित खेती की जरूरत है।
जमीन और सूक्ष्मजीवों को जैविक गतिविधि के लिए थोड़ी छाया चाहिए होती है। और नमी भी होनी चाहिए – यह तभी संभव है जब जैविक तत्व ज्यादा हो, वरना मिट्टी सूख जाती है। अगर आप दिल्ली के आस-पास के खेतों में खोदें, तो 15 इंच गहराई तक खोदने के बाद भी आपको ज़रा भी नमी नहीं मिलेगी – वह एकदम सूख गई है। इसका मतलब है कि वह मरी हुई है और लगभग रेत की तरह हो गई है। मिट्टी को नम होना चाहिए, उसे ढंकने की जरूरत है। गर्मियों में उसके लिए या तो आवरण फसलों की (कवर क्रॉप्स) या पेड़ आधारित खेती की जरूरत है।
[1] जलवायु बदलाव को रोकने के लिए संयुक्त राष्ट्र संस्था
वास्तविक समाधान जो नज़र आ रहा है
हमने लगभग 1.3 लाख किसानों को पेड़ आधारित खेती की तरफ मोड़ दिया है। आप आकर उस रूपांतरण को देखिए।
शेखर गुप्ता: मैं बेशक आना चाहता हूँ...
सद्गुरु: आपको ज़रूर आना चाहिए। उनकी आमदनी 300-800% तक बढ़ गई है, जैविक मात्रा बढ़ गई है। फसलों की पौष्टिकता बढ़ गई है, जलस्तर ऊपर आ गया है। मैं हमेशा से मानता था कि जलस्तर के ऊपर आने के लिए, आपको कम से कम 50-100 एकड़ पर बागान लगाने होंगे । लेकिन 5 एकड़ के बागानों से भी जल स्तर ऊपर आ गया है। यह जमीन की अद्भुत प्रकृति है।