चर्चा में

100 स्वयंसेवकों का 100 प्रतिशत समर्पण : सेव सॉयल हैंडबुक कैसे बनी

जैसे-जैसे सद्‌गुरु मिट्टी की सेहत के बारे में जनता और सरकारों में जागरूकता फैलाने के लिए अपनी मोटरसाइकिल से यात्रा कर रहे हैं, पूरी दुनिया मिट्टी बचाओ अभियान से जुड़ रही है। जब यह अभियान एक तरफ़ नीति-निर्माताओं के बीच अपनी पहुँच बना रहा था, दूसरी तरफ़ आम लोग इस मकसद के लिए एकजुट हो रहे थे, उसी समय ईशा स्वयंसेवकों की एक टीम उसे सफल बनाने के लिए परदे के पीछे चुपचाप अपना काम कर रही थी। वे जनता की नज़रों से दूर थे लेकिन ‘सॉयल रिवाइटलाइजेशन ग्लोबल पॉलिसी ड्राफ्ट एंड सॉल्यूशंस हैंडबुक’ बनाने की उनकी प्रतिबद्धता अद्भुत थी।

मिट्टी बचाओ अभियान का अदृश्य दिल

जब सद्‌गुरु अकेले मोटरसाइकिल पर दुनिया भर में 30,000 किमी की अपनी यात्रा पर यूरोप, मध्य एशिया और मध्य पूर्व के लोगों से मिल रहे थे, उन्हीं दिनों उतने ही उत्साह और समर्पण के साथ भूमित्रों (अर्थ-बडीज) का एक दल उस चीज़ पर अथक मेहनत कर रहा था, जिसे इस अभियान का सार कहा जा सकता है – ‘सॉयल रिवाइटलाइजेशन ग्लोबल पॉलिसी ड्राफ्ट एंड सॉल्यूशंस हैंडबुक।’

इस हैंडबुक को मिट्टी बचाओ अभियान का दिल कह सकते हैं, क्योंकि यह न सिर्फ मिट्टी की सेहत को अनदेखा करने के इकोलॉजिकल और आर्थिक खतरों की ओर ध्यान दिलाता है, बल्कि यह मिट्टी में जैविक पदार्थ को बढ़ाने की सिफारिशें और इस जरूरी हस्तक्षेप के बहुआयामी लाभों की पेशकश भी करता है। यह हैंडबुक अब सद्‌गुरु के वैश्विक मिट्टी बचाओ अभियान का एक अभिन्न अंग बन गया है। इसे दुनिया भर के नीति-निर्माताओं और सरकारी पदाधिकारियों को सौंपा गया है।

सेव सॉयल पॉलिसी हैंडबुक में है क्या?

जागरूक धरती के लिए तकनीकी प्रमुख, प्रवीणा श्रीधर साझा करती हैं, ‘एक साल से भी पहले, सद्‌गुरु ने हमें ‘कांशस प्लैनेट – सेव सॉयल’ अभियान के बारे में बताया और समाधान ढूंढने को कहा।’

वह विचार अब हकीकत में बदल गया है, जब सॉयल रिवाइटलाइजेशन ग्लोबल पॉलिसी ड्राफ्ट एंड सॉल्यूशंस हैंडबुक विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों (अफ्रीका, एशिया, यूरोप, लातिन अमेरिका, मध्य पूर्व और उत्तर अफ्रीका, उत्तरी अमेरिका और ओशनिया) के आधार पर  कस्टमाइज्ड रूपों में तैयार है। हैंडबुक का पूरा वैश्विक संस्करण 568 पृष्ठों का है।

प्रवीणा बताती हैं, ‘हमारी दुनिया के अधिकांश हिस्सों के वैज्ञानिक और कानूनविद मिट्टी पर आने वाले खतरे के बारे में जानते हैं। मिट्टी के उपजाऊपन पर वैज्ञानिक शोध 1970 के दशक से हो रहे हैं।’ इस पुस्तिका में, स्वयंसेवकों ने बड़ी मात्रा में महत्वपूर्ण जानकारी एकत्र की है और दुनिया के अलग-अलग कृषि-जलवायु क्षेत्रों के अनुसार संभावित समाधानों के बारे में बताया है।

हैंडबुक का पहला अध्याय मिट्टी के क्षरण और उसके कारणों तथा इस क्षरण का पारिस्थितिकी यानी इकोलॉजी और इंसानों पर पड़ने वाले प्रभावों के बारे में है। दूसरा अध्याय जटिल सॉयल माइक्रोबायोम को स्पष्ट करता है और बताता है कि कैसे मिट्टी को फिर से जीवंत बनाने के लिए उसमें जैविक तत्वों को कम से कम 3-6% बनाए रखना इसका मूलभूत समाधान है। तीसरा अध्याय जो इस हैंडबुक का एक बड़ा हिस्सा है, दुनिया में इकोसिस्टम से जुड़ी मौजूदा नीति का आकलन करता है और मिट्टी को पुनर्जीवित करने के लिए किसी इलाके के लिए विशिष्ट नीतियों के बारे में सिफारिशें देता है। चौथा और आखिरी अध्याय दुनिया के तमाम इलाकों के लिए कृषि-जलवायु क्षेत्रों और मिट्टी के प्रकार के आधार पर मिट्टी को ठीक रखने के स्थायी समाधान के लिए जागरूक धरती (कांशस प्लैनेट) के नज़रिए के बारे में बताता है।

हैंडबुक के कई संस्करणों के अलावा, अलग-अलग देशों के लिए विशिष्ट सहायक दस्तावेज भी बनाए गए। ये दस्तावेज़ हैंडबुक के चौथे अध्याय के साथ हैं और इनमें अलग-अलग देशों में कृषि जलवायु क्षेत्रों और मिट्टी की किस्मों के आधार पर मिट्टी को फिर से जीवंत बनाने के लिए व्यावहारिक और वैज्ञानिक समाधान शामिल हैं।

एक वैश्विक टीम की एकजुट कोशिश

एनवायरनमेंट इंजीनियरिंग और साइंसेज में एमएस के साथ स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से ग्रेजुएट और पब्लिक पॉसिटी में मास्टर डिग्री के साथ-साथ यूनिसेफ के लिए सलाहकार के अनुभव के साथ प्रवीणा ने सौंपे गए इस काम को अच्छी तरह करने में अपनी सारी विशेषज्ञता लगा दी। वह 760 पृष्ठों की रिवाइटलाइजेशन ऑफ रिवर्स इन इंडिया – ड्राफ्ट पॉलिसी रिकॉमेंडेशंस को तैयार करने वाले स्वयंसेवकों की कोर टीम में भी रही हैं। इन नीतिगत सिफारिशों को बाद में भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया था। फिर भी मृदा विज्ञान का रहस्यमय क्षेत्र उनके लिए इतना परिचित नहीं था। वह बताती हैं, ‘मैंने अपने रिसर्च एप्रोच को अंतिम रूप देने से पहले मिट्टी की स्वास्थ्य जरूरतों का अध्ययन किया और भारत, जर्मनी और ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों से सलाह-मशवरा किया।’

उन्होंने 20 स्वयंसेवकों की एक टीम के साथ हैंडबुक पर काम शुरू किया। जैसे-जैसे समय बीतता गया, यह संख्या बढ़कर 100 से ज्यादा हो गई। उनमें दुनिया भर के - उत्तरी अमेरिका, दक्षिण अमेरिका, यूरोप, एशिया और अफ्रीका – के लोग शामिल थे जो पहले कभी एक-दूसरे से नहीं मिले थे। यह काम बहुत महत्वपूर्ण था, विषय नया था और इसे पूरा करने का समय बेहद कम था। लेकिन बड़ी चुनौतियों ने उन्हें अलग-अलग टाइम जोन के बावजूद साथ लाने का काम किया और उनके संकल्प को और भी पक्का किया।

100 से ज्यादा शोध करने वाले स्वयंसेवकों के बीच तालमेल रखने के लिए एक कोऑर्डिनेशन टीम बनाई गई, जिसके एक सदस्य ब्रूक साझा करते हैं, ‘यह परियोजना इस विषय में बहुत कम अनुभव रखने वाले मेरे जैसे लोगों, कॉलेज जाने वाले लोगों, पीएचडी कर चुके लोगों, अनुभवी आईटी पेशेवर और पांच महाद्वीपों के विविध पृष्ठभूमि वाले बहुत से लोगों को एक साथ ले आई। और इस काम को पूरा कर दिखाने की इच्छा ने हर अंतर को एक तरफ रख दिया। दुनिया में और कहाँ हम ऐसे काम में योगदान दे सकते हैं जो दुनिया की भलाई के लिए जरूरी है और वह भी इतने कम समय में इतने असरदार तरीक़े से?

यह सुनिश्चित करने के लिए कि इस परियोजना का काम कभी रुके नहीं, परियोजना की आयोजन समिति ने चौबीसों घंटे एक गूगल मीट रूम को सक्रिय रखा था, जिसकी अगुआई प्रवीणा कर रही थीं। इसका मकसद दुनिया भर के शोधकर्ताओं के सवालों का जवाब देना और काम जारी रखने के लिए उन्हें जरूरी मदद मुहैया कराना था। इसके अलावा हर रविवार को स्वयंसेवकों की एक बैठक आयोजित की जाती थी।

स्वयंसेवकों की पूरी क्षमता का इस्तेमाल किया जा रहा था और वे अपने शोध, तथ्यों की जांच और पुनरीक्षण को प्राथमिकता देते हुए अपने परिवारों, पेशे की जिम्मेदारियों और घर के कामों के बीच संतुलन बना रहे थे। ब्रूक याद करते हैं, ‘जर्मनी में पीएचडी की एक छात्रा ने अपनी पढ़ाई के साथ-साथ अपना शोध जारी रखा।’ नाइजीरिया के एक और स्वयंसेवक लगातार बिजली कटौती से जूझते हुए काम करते रहे।

अमेरिका में एक शोधकर्ता को परिवार में कुछ आकस्मिक स्थितियों का सामना करना पड़ा और उसे अपने बच्चे को एक शहर से दूसरे शहर लेकर जाना पड़ा, लेकिन वह शोध-कार्य के प्रति अपनी समर्पण से पीछे नहीं हटी। प्रवीणा कहती हैं, ‘सभी चुनौतियों के बावजूद उन्हें काम जारी रखते हुए देखना प्रेरणादायक था।’

स्वयंसेवकों ने मिलकर एक मजबूत ग्लोबल नेटवर्क बनाया जिसमें इसे संभव कर दिखाने की इच्छाशक्ति थी। उन्होंने कुछ ऐसा हासिल कर दिखाया जो मानव क्षमता से लगभग परे था। जिस काम में किसी संगठन को कई साल लग जाते, उसे इतने कम  समय में ही पूरा कर दिया गया।

प्रकाशन और डिजाइन - भोर की आहट तक

एक बार सामग्री का मसौदा तैयार हो जाने के बाद, इसे संपादन और डिजाइन के लिए ईशा फाउंडेशन के प्रकाशन विभाग से गुजरना पड़ा। तकनीकी टीम और प्रकाशन ने तालमेल में काम किया और इसके लिए कई रातें जागकर गुजारनी पड़ीं।

माँ इडा, जो ईशा फाउंडेशन में अंग्रेजी प्रकाशन विभाग का हिस्सा हैं, कहती हैं, ‘यह हमारे लिए काफी चुनौती भरा काम था क्योंकि हम मिट्टी विज्ञान और नीति निर्माण के तकनीकी पहलुओं को सीख रहे थे। मेरी पृष्ठभूमि जीव विज्ञान की है और कुछ महीनों के लिए ऐसा लगा जैसे मैं कॉलेज में वापस आ गई हूँ!’

संपादन में शामिल जननी बताती हैं, ‘भले ही टीम में कई लोग वैज्ञानिक या विषय-विशेषज्ञ नहीं थे, लेकिन उन्होंने पूरी भागीदारी और समर्पण से एक अनुकरणीय काम किया। उन्होंने साबित किया कि एक लक्ष्य के प्रति एकजुट होकर लोग क्या कुछ हासिल नहीं कर सकते हैं।’

ग्राफिक डिजाइनर मुनुसामी के लिए कोयंबटूर में अपने घर से घंटों काम करना एक आम बात बन गई। वह अक्सर सुबह 4 बजे तक हैंडबुक के अंदर के पन्नों और कई देश-विशिष्ट दस्तावेजों को डिजाइन करते हुए अपने वर्क-स्टेशन पर ऑनलाइन मीटिंग में होते थे। वह कहते हैं, ‘मैं सम्मानित महसूस करता हूँ कि मैं इतने बड़े प्रोजेक्ट में योगदान कर पा रहा हूँ। अकेले मोटरसाइकिल सवार के रूप में सद्‌गुरु के मुश्किल सफर के मुकाबले मेरा योगदान कुछ भी नहीं है। दुनिया को प्रेरित करने के लिए उनके बलिदान और जिस घोर शारीरिक दबाव से वह गुजर रहे हैं, उसने हम सभी को अपनी व्यक्तिगत सीमाओं से परे जाने के लिए प्रेरित किया है। जब मैं किताब को डिजाइन करने में डूबा रहता हूँ, तो समय, भोजन, नींद या दूसरी चीजें बेमानी हो जाती हैं।’ वह साझा करते हैं।

माँ इडा बताती हैं, ‘महाशिवरात्रि की रात भी, जब ईशा योग केंद्र में खूब धूमधाम थी, सारे संगीत और जयकारों के बीच प्रकाशन विभाग के लोगों की एक टीम हैंडबुक को संपादित और डिजाइन करने के लिए आदियोगी के पास एक डेस्क पर काम कर रही थी।’

विपरीत परिस्थितियों में भी अजेय

जागरूक धरती (कांशस प्लैनेट) टीम की एक सदस्य नेहा कौशिक बताती हैं, ‘हमने हैंडबुक को प्रिंट करने के लिए यूरोप और मध्य पूर्व के स्वयंसेवकों के साथ कोऑर्डिनेट किया। हम सद्‌गुरु के यात्रा कार्यक्रम पर नज़र रखे हुए थे ताकि वह जिस देश से गुज़रें, उसके लिए हम समय पर हैंडबुक और दस्तावेज तैयार कर सकें। हमने हर टीम के लिए कई सारे माइक्रो डेडलाइन रखे।’

हमें लग रहा था कि सब कुछ बहुत बढ़िया चल रहा है, कि अचानक सद्‌गुरु का रूट बदल गया। यात्रा में नए देश जुड़ गए और टीमों को कई बार हड़बड़ी से गुजरना पड़ा, जब वे फिर से सामग्री तैयार करने के लिए जूझ रहे थे।

लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल एक ट्रैजडी के रूप में सामने आई। मां इडा बताती हैं, ‘हम भयानक रफ्तार से काम कर रहे थे, सो नहीं रहे थे और मुश्किल से समय पर काम पूरा कर पा रहे थे। रात के दस बजे थे और मैं अपने कंप्यूटर पर एडिटिंग कर रही थी, जब प्रवीणा अक्का ने मुझे फोन किया, ‘मेरे पिताजी गुजर गए हैं। मुझे चेन्नई जाना है।’ डर के मारे मेरा दिल डूबता हुआ महसूस हुआ। इससे पहले कि मैं ठीक से समझ पाती कि उन्होंने क्या कहा था, उनके आगे के शब्दों ने मुझे चौंका दिया, ‘लेकिन मैं इस सप्ताह के अंत तक यह चैप्टर पूरा कर दूंगी।’

‘मैं उनकी ताकत, संयम और लगन देखकर हैरान थी। यह एक अप्रत्याशित, असामयिक मृत्यु थी, जो सदमे के रूप में आई। लेकिन फिर भी सच कहूं तो मैं उन्हें यह नहीं कह सकती थी कि वह काम की चिंता न करें और बस अपने परिवार के साथ रहें। क्योंकि मुझे पता था कि हमारे पास उनका कोई विकल्प नहीं था। वह भी यह जानती थीं। हम अपनी धरती के लिए एक महत्वपूर्ण अभियान के बीच में थे, जो हमसे बहुत बड़ा था, और सद्‌गुरु अपनी जान जोखिम में डाल रहे थे - हमें इसे करके दिखाना था। और कुछ ही दिन में, अंतिम संस्कार के बाद, अक्का ने मुझे फिर फोन करके बताया कि वह काम पर वापस आ गई हैं। मैं उनके समर्पण के आगे सिर्फ सिर झुका सकती थी।’

अगले चरण की तैयारी

निजी क्षतियों और जिम्मेदारी में अप्रत्याशित विस्तार के बीच, पर्दे के पीछे काम करने वाले बहुत से स्वयंसेवकों की मेहनत से मिट्टी बचाओ नीति पुस्तिका पूरी हो गई है। प्रवीणा कहती हैं, ‘इस परियोजना ने मुझे सिखाया है कि सब कुछ और कुछ भी संभव है।’

हालांकि ये स्वयंसेवक अनजान चेहरों और नामों के एक समूह के रूप में साथ आए थे, लेकिन उनके बीच एक खास जुड़ाव बन गया और वे एक परिवार की तरह बन गए जो संकट के क्षणों में एक-दूसरे पर भरोसा कर रहे थे। जब यह परियोजना पूरी हो रही थी तो कई लोगों के लिए अलविदा कहना और अपने नियमित प्रोफेशनल जीवन में लौटना मुश्किल हो रहा था।

लेकिन वे जल्द ही फिर से मिल सकते हैं, क्योंकि काम अभी खत्म नहीं हुआ है। 100 दिनों की यात्रा - सोशल मीडिया की हलचल, गीत, नृत्य, कला और जागरूकता अभियान - के अंत के साथ असली काम हर देश के विशेषज्ञों और सरकारों के साथ शुरू होता है जब तक कि नीतियां नहीं बन जातीं। जल्दी ही सभी टीमों को फिर से चुपचाप कड़ी मेहनत के लिए तैयार होना होगा।

मिट्टी बचाओ। आइये इसे संभव बनाएं!