सद्गुरु आनंद को अपने जीवन का स्वाभाविक हिस्सा बनाने का एक बेहद सरल तरीका बता रहे हैं। वह न सिर्फ इसकी तकनीक समझा रहे हैं कि मानव प्रणाली में यह कैसे काम करता है, बल्कि यह भी कि किस समय यह अभ्यास सबसे ज्यादा असरदार होता है।
सद्गुरु: एक अमीर आदमी की मृत्यु के बाद, एक पड़ोसी ने शंकरन पिल्लै से पूछा, ‘वह पीछे क्या छोड़कर क्या है?’ शंकरन पिल्लै ने हँसते हुए कहा, ‘एक-एक पैसा, एक-एक गहना, हर छोटी से छोटी चीज़।’
जो हम इकट्ठा करते हैं, उसका कोई महत्व नहीं होगा। एकमात्र चीज़ जो मायने रखती है, वह यह कि हम अंदर मौजूद इस जीवन को कैसे पोषित करते हैं और अपने भीतर उसके साथ क्या करते हैं। अगर आप जीवन-केंद्रित बन जाएं, तो अचानक आप पाएंगे कि अब इच्छाएं या जुड़ाव आपके लिए कोई महत्व नहीं रखते। कोई गुस्सा या नफरत नहीं रह जाएगी, क्योंकि एक बार जब आप अपने अस्तित्व की बहुमूल्य प्रकृति को समझ लेते हैं, फिर उन चीज़ों के लिए कोई समय नहीं होगा। सुखद, प्रेममय और आनंदमय होना एक स्वाभाविक नतीजा होगा।
इस जीवन के विकास में ही मुक्ति है। अगर यह जीवन उमड़ पड़े, फिर आपको ऊपर देखकर किसी भगवान से प्रार्थना करने की जरूरत नहीं है – दिव्यता खुद आपकी खोज में आएगी।
अधिकांश लोगों को अपने जीवन में थोड़ी भी शांति या आनंद लाने में इतनी मुश्किल क्यों होती है? इसे लेकर कई सारे सिद्धांत हैं, लेकिन इसे तकनीकी रूप से समझते हैं। जीवन के सभी अनुभव हमारे अंदर कैसे आते हैं? अगर आप किसी चीज़ को छूते, चखते, देखते, सुनते या सूंघते हैं, तो वह पहले आपके इंद्रिय बोध को छूता है। वहाँ से न्यूरोलॉजिकल सिस्टम उसे आपके मस्तिष्क तक लेकर जाता है और सुखद या अप्रिय अनुभव पैदा करता है।
अनुभव की यह सुखद या अप्रिय स्थिति पूरी तरह बाहरी उत्तेजनाओं से नहीं आती बल्कि इस पर भी निर्भर करती है कि इस क्षण आप अपने भीतर कैसे हैं। अगर आप हताश और परेशान हैं और कोई अच्छा संगीत बजाता है, तो वह आपको और गुस्सा दिला सकता है। सुखद संगीत हमेशा सुखद नहीं होता – उस क्षण में आपको उसके लिए तैयार होना होगा।
मानव अनुभव के दो पहलू हैं। पहला है, बाहरी उत्तेजक की प्रकृति और दूसरा यह कि हम अपने भीतर अभी कैसे हैं – हमारे प्रभाव, हमारे संस्कार और हमारा कर्म तत्व। अगर इस क्षण आपका कर्म हताशा है और कोई आपके साथ सुखद चीज़ें करने की कोशिश करता है, तो आप उनकी आँखें नोच लेंगे। तो, अनुभव पूरी तरह बाहरी उत्तेजक पर निर्भर नहीं होता, व्यक्ति का कर्म तत्व भी सक्रिय भूमिका निभाता है।
जब कोई बाहरी उत्तेजना किसी इंद्रिय को छूती है, तो वह न्यूरोलॉजिकल सिस्टम के जरिए लगभग तत्काल वहाँ से आगे बढ़ती है। उसके परे, एक और, ज्यादा बड़ा सिस्टम है – प्राणमयकोश या ऊर्जा शरीर – लेकिन वह न्यूरोलॉजिकल सिस्टम यानी तंत्रिका तंत्र से सौ गुना ज्यादा धीरे चलता है। अगर आप किसी अनुभव की सुखदता को तंत्रिका के स्तर पर लंबे समय तक थामे रखते हैं, तो यह सुखदता ऊर्जा शरीर से गुज़रने लगती है। एक बार जब सुखदता ऊर्जा शरीर में फैल जाती है – चाहे वह प्यार हो या खुशी या आनंद – वह आपका गुण बन जाएगा।
ऐसा नहीं है कि आप आनंदमय हो जाएंगे, बल्कि आनंद आपके जीवन का वह गुण बन जाएगा जो आपके सिस्टम में व्याप्त हो जाता है। अगर जीवन-ऊर्जा सुखद हो जाए, तो आनंदमय होना आपकी प्रकृति होगी। अगर आप एक क्षण के लिए सूर्योदय देखकर बहुत अच्छा महसूस करते हैं, तो वह तंत्रिका के स्तर की सुखदता है। उसे अपनी जीवन-ऊर्जा का हिस्सा बनाने के लिए, आपको उस अनुभव को थामकर रखना होगा क्योंकि वह कम से कम सौ गुना धीमा है।
अगर आप किसी अनुभव को 24 मिनट तक धारण करने में सक्षम हैं, तो न्यूरोलॉजिकल सिस्टम की सुखदता प्राणिक व्यवस्था में गहरे समा जाती है। फिर यहाँ आनंदपूर्वक बैठना सामान्य बात हो जाती है।
अगर आपको बहुत प्यास लगी है और आप एक गिलास पानी पीते हैं, तो यह सिर्फ प्यास बुझाने या गले को बेहतर महसूस कराने और आपके शरीर में ठंडक फैलाने का काम नहीं करता, बल्कि आपका पूरा अस्तित्व सुखद महसूस करता है। सुखदता के इस अनुभव के साथ रहना सीखिए। अभी, आपमें से अधिकांश लोग दो से तीन सेकेंड से ज्यादा समय तक वहाँ टिके नहीं रह सकते।
अनुभव की यह सुखदता मन से नहीं, भीतर से उत्पन्न होती है। मन अनुभव को चुनता है, लेकिन वह अनुभव का कारण नहीं बन सकता। अगर आप किसी को देखते हैं और आपका मन सोचता है, ‘ओह, यह भयानक है,’ तो आपने एक अप्रिय अनुभव को चुना है जो भीतर से पैदा हुआ है। आपके मन ने अनुभव को चुना है, लेकिन वह अनुभव का कारण नहीं है। आपके अंदर कुछ ऐसा है जिसे आप ‘मैं’ कहते हैं या जिसे हम ‘जीवन’ कहते हैं, अनुभव का कारण होता है।
आपका मन एक आइने की तरह है। हो सकता है कि यह एक समतल आइना नहीं हो – यह बहुत विकृत भी हो सकता है – यह आपको दुनिया दिखाता है। आप उसे समतल देखते हैं या विकृत, यह बहस का विषय है। आप दुनिया को देख रहे हैं क्योंकि उसका प्रतिबिंब आपके मन में बन रहा है। लेकिन मन कभी आपको अपना प्रतिबिंब नहीं दिखाता।
मैं आपके शारीरिक अस्तित्व या आपके मनोवैज्ञानिक अस्तित्व की बात नहीं कर रहा। आप अपने विचारों और भावनाओं पर विचार कर सकते हैं, लेकिन आप अपने अस्तित्व पर विचार नहीं कर सकते। आपके अस्तित्व पर विचार नहीं किया जा सकता, उसका सिर्फ अनुभव किया जा सकता है। लेकिन आपके लिए अभी इस अस्तित्व में सबसे महत्वपूर्ण चीज़ यह है कि आप यहाँ हैं। वरना ब्रह्मांड के अस्तित्व की भी कौन परवाह करता है?
जीवन को जानने का एकमात्र तरीका भोजन, पानी, प्यार या सुख नहीं है। जीवन को जानने का एकमात्र तरीका है, अगर आप दर्पण के दूसरी तरफ चले जाएं। दर्पण के इस ओर, आप सिर्फ नाटक देख सकते हैं, आप जीवन को उसके मूल तत्व में नहीं देख सकते।
अगर आप किसी अनुभव की सुखदता के साथ रहते हैं - चाहे वह हवा, सांस, पानी, भोजन, या और कुछ भी हो - आप धीरे-धीरे दर्पण के दूसरी तरफ चले जाएंगे।
यह दिन के एक खास समय पर विशेष रूप से प्रभावी होता है जिसे संध्याकाल कहा जाता है। संध्याकाल का समय संक्रांति या परिवर्तन का समय है। जब एक तरह का विराम होता है, एक तरह की खाली जगह होती है, तो उसके परे जाने की थोड़ी गुंजाइश होती है। ये संध्याकाल दिन में चार बार आते हैं। आपके अपने सिस्टम, आपके शरीर के लिए सबसे महत्वपूर्ण संध्याकाल वे हैं, जब आप नींद में जा रहे होते हैं और जब आप नींद से जाग रहे होते हैं।
जब आप नींद से जागते हैं तो शरीर जीवंत हो उठता है और तब एक तरह की सुखद अनुभूति फैलती है। अगर आप नींद से जागते समय की उस सुखद अनुभूति को थोड़ी देर अपने साथ बनाए रखें, तो आपका मन उस सुखद अनुभूति में पूरे दिन के लिए डूबा रहेगा। इसी तरह, जब आप सोने वाले होते हैं – जगे होने और सोने के बीच के उस विश्रामकाल में - शरीर में एक सुखद अनुभूति फैलती है। लेकिन नींद से जागने के मुकाबले, सोने जाते समय जागरूक होना कहीं ज्यादा मुश्किल होता है।