सद्गुरु और विज्जी की पहली मुलाकात
सद्गुरु: विज्जी एक योग शिक्षक के रूप में प्रशिक्षित होना चाहती थीं। वह बंगलौर से आईं, जहाँ वह एक बैंक में काम कर रही थीं। पहले मैंने तय किया था कि मैं कभी शादी नहीं करूँगा। लेकिन जब हम दूसरी बार मिले, तो हम दोनों बस समझ गए। कोई चर्चा, कोई प्रपोज, कुछ नहीं हुआ था। हमने शादी कर ली – सिर्फ हम दोनों थे, कोई और नहीं। शिव हमारे इकलौते गवाह थे।
बारह सालों का सफर
शादी के पहले दो-तीन साल तो हमने लगभग मोटरसाइकिल पर ही बिताए थे। हम मोटरसाइकिल पर एक टेंट लेकर चलते थे और सड़क किनारे सोते थे। हम यात्राएं करते थे – कई बार किसी मकसद से, अधिकांश बार बेमकसद। इन कुछ सालों ने वास्तव में काफी फर्क ला दिया और वह समय मेरे लिए एक बड़ा अनुभव था। मैंने अपने तरीके से उसे बिताया – चलते हुए, मोटरसाइकिल चलाते हुए, या बस कहीं बैठे हुए। मैंने कोई खास साधना नहीं की। अगले दो साल मैंने ध्यान करते हुए बिताए। उन दिनों विज्जी काम करती थीं, मुझे खिलाती थीं, कपड़े पहनाती थीं और मेरी देखभाल करती थीं। उसके बाद हम यहाँ-वहाँ घूमने में व्यस्त हो गए।
जब हम साथ आए, तो बारह सालों तक हमने जिप्सियों की तरह जीवन बिताया, लगातार सफर करते हुए। लोगों ने हमारे साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया, लेकिन फिर भी एक स्त्री होने के नाते उनके पास अपनी कोई रसोई या घर नहीं था। हर दिन हम एक अलग शहर में होते थे। वह मेरी परछाईं की तरह थीं। जहाँ भी मैं जाता था, वह हर जगह साथ जाती थीं। वह योग सिर्फ इसलिए करती थीं क्योंकि योग मेरे लिए महत्वपूर्ण था। वह उसे अपनी सेहत या कल्याण के लिए नहीं करती थीं – उन्हें अपनी भलाई की फिक्र नहीं थी। वह दिन भर काम करके हमारे योग कार्यक्रमों का आयोजन करने में मदद करती थीं।
पूर्णिमा को ली उन्होंने महासमाधि
वह ऐसी व्यक्ति नहीं थीं, जो अपनी आखिरी मंजिल पर पहुँचने के लिए एक-एक करके सीढ़ी चढ़ें। विज्जी मेरी पत्नी से ज़्यादा मेरे बच्चे की तरह थीं। एक दिन जब उन्होंने कहा कि वह अपना शरीर त्यागकर महासमाधि लेना चाहती हैं, तो मैंने पूछा, ‘अभी क्यों? हम अभी सेटल ही हो रहे हैं। अब आपके रहने के लिए एक जगह भी है और हमारी बेटी अभी सिर्फ सात साल की है।’ वह बोलीं, ‘अभी, मेरे भीतर सब कुछ सबसे बेहतरीन रूप में है और बाहर भी सब कुछ और हर कोई मेरे लिए बहुत खूबसूरत है। मैं अभी जाना चाहती हूँ।’ मुझे उनके उस विवेक के आगे सिर झुकाना पड़ा।
थाईपूसम, पूर्णिमा का वह दिन, जो उन्होंने महासमाधि लेने के लिए चुना, उसे योगिक परंपरा में बहुत पवित्र माना जाता है। बहुत से प्राणी इस दिन अपने भौतिक शरीर को चेतना में छोड़ने का फैसला करते हैं या इसके लिए प्रेरित होते हैं। बारह साल पहले, यहाँ ईशा योग केंद्र में, हम इस महान दिन के साक्षी बने। विज्जी, जिन्होंने न तो साधना की थी, न ही उनके पास महान ज्ञान था, उन्होंने सिर्फ अपनी भावना की सरलता और अपनी इच्छा की तीव्रता से महासमाधि को सहजता से प्राप्त कर लिया। सि़द्ध योगियों को भी थोड़ा जूझना पड़ता है और योजना बनानी पड़ती है, लेकिन उनके लिए यह बहुत सहजता से हो गया।
उनके सपने अमर हैं
उन्हें यह देखकर बहुत खुशी और गर्व होता कि किस गौरवशाली तरीके से ध्यानलिंग की प्राणप्रतिष्ठा हुई। बेशक उनकी अनुपस्थिति में ये संपन्न हुआ, लेकिन आज जो कुछ भी ईशा में हो रहा है और पिछले बारह सालों में जैसे ईशा एक संगठन के तौर पर, दुनिया के कई कोनों तक फैल चुका है, उसे देखकर उन्हें बेहद ख़ुशी होती।
लेकिन वह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण यह है कि इस धरती पर किसी भी आध्यात्मिक आंदोलन की तुलना में, आप जिस तरह ईशा साधकों से ऊर्जा को फूटते हुए देखेंगे, वह कहीं और के मुकाबले कहीं ज़्यादा है। हमारे पास लाखों स्वयंसेवक हैं और हम दुनिया में हर कहीं हैं। लेकिन सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि हम असाधारण ऊर्जा वाले लोग तैयार कर रहे हैं।
अगर आप इस ऊर्जा के साथ थोड़ा विवेक ले आते हैं, तो इससे महान चीज़ें होंगी। मैं आपके अंदर ऊर्जा भर सकता हूँ लेकिन विवेक नहीं। विवेक एक ऐसी चीज़ है, जिसे आपको जीवन के अपने दैनिक अनुभवों से अर्जित करना पड़ता है। अगर आप अपने जीवन के हर क्षण को सीखने की एक प्रक्रिया बना दें, तो विवेक आ जाएगा।
क्या हम ईशा में और महासमाधि देख सकते हैं?
प्रतिभागी: क्या हमारे लिए विज्जी अम्मा की तरह महासमाधि लेना संभव है?
सद्गुरु: बिल्कुल नहीं। ईशा योग केंद्र इस पीढ़ी में कई महासमाधि देखेगा, लेकिन अभी नहीं। हम उन्हें तब तक इंतज़ार करवाएंगे, जब तक उनके घुटने चरमराने न लगें और उनकी पीठ न मुड़ जाए। क्योंकि मैं भौतिक शरीर को एक महत्व देता हूँ। मैं ऐसी परंपरा से आता हूँ, जहाँ हम एक पूरा विज्ञान जानते हैं कि इस हाड़-माँस को किसी ऐसी चीज़ में कैसे बदलें, जो पूजा के लायक और बाकी दुनिया के लिए बहुत महत्वपूर्ण हो।