स्वामी विवेकानंद के जन्मदिन, 12 जनवरी को हम ‘राष्ट्रीय युवा दिवस’ के रूप में मनाते हैं। इस बार 12 जनवरी 2022 को स्वामी विवेकानंद का 158वाँ जन्मदिन मनाया जाएगा। इस अवसर पर पेश है आपके लिए स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी पांच शानदार कहानियां - सद्गुरु के शब्दों में।
शायद कुछ लोग नहीं जानते होंगे कि स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस के एक उग्र शिष्य थे, जिन्होंने एक चमकते सितारे की तरह दुनिया भर में धूम मचा दी और आध्यात्मिक प्रक्रिया को दुनिया भर के लोगों के लिए उपलब्ध करा दिया।
सद्गुरु: विवेकानंद अमेरिका जाने वाले पहले योगी थे जिन्होंने 1893 में शिकागो में आयोजित धर्म-संसद में अपने भाषण से पूरी दुनिया में एक आध्यात्मिक लहर पैदा कर दी।
जब विवेकानंद सिर्फ अठारह साल के एक उग्र युवक थे, एक दिन, किसी ने उनसे कहा ‘रामकृष्ण नाम के एक रहस्यदर्शी हैं। आपके पास इतने सारे सवाल हैं। उनके पास सारे जवाब हैं। आपको उनसे मिलना चाहिए।’ तो वह गए। वह एक प्रखर बुद्धिजीवी थे, जिनके पास हर चीज़ के बारे में मजबूत तर्क थे। वह वैसे एक आध्यात्मिक साधक नहीं थे, बल्कि एक कार्यकर्ता की तरह ज्यादा थे, जिन्होंने अपने आस-पास चल रहे सारे बेमानी कर्मकांडों को ध्वस्त कर दिया था।
वह रामकृष्ण के पास गए और पूछा, ‘आप हर समय भगवान की बात करते रहते हैं। क्या आप साबित कर सकते हैं कि भगवान हैं?’ रामकृष्ण बोले, ‘मैं ही सुबूत हूँ।’ उन्होंने कुछ भारी-भरकम तर्कों की उम्मीद की थी, लेकिन रामकृष्ण के जवाब ने पूरी तरह उनकी हवा निकाल दी। फिर उन्होंने पूछा, ‘क्या आप मुझे उसका अनुभव करा सकते हैं, वह जो भी है?’ रामकृष्ण ने पूछा, ‘क्या तुम्हारे अंदर हिम्मत है?’ विवेकानंद को बहुत बहादुर युवक माना जाता था। लेकिन वह पल भर के लिए हिचकिचाए, और फिर बोले, ‘हां, मैं देखना चाहता हूँ।’
रामकृष्ण ने बस उनकी छाती पर अपना पाँव रखा और विवेकानंद घंटों तक समाधि की अवस्था में चले गए।जब वह बाहर निकले, तो उनके सारे सवाल पूरी तरह उड़ चुके थे। उन्होंने कुछ ऐसा देखा, जिसकी उन्होंने अपने जीवन में कभी कल्पना भी नहीं की थी। उसके बाद, उन्होंने कोई सवाल नहीं पूछा।
सद्गुरु: एक दिन, विवेकानंद की माँ बहुत बीमार थीं और मृत्युशैय्या पर थीं। विवेकानंद ने पाया कि उनके पास दवा या भोजन के लिए पैसे नहीं हैं। उन्हें इस बात पर बहुत गुस्सा आया कि वह अपनी माँ की देखभाल करने में असमर्थ हैं, जब वह इतनी बीमार हैं। जब विवेकानंद जैसे व्यक्ति को गुस्सा आता है, तो वह वाक़ई गुस्सा होता है। वे रामकृष्ण के पास गए।
उन्होंने रामकृष्ण से कहा, ‘यह सारी बकवास मुझे कहाँ ले जा रही है? अगर मैं अभी नौकरी कर रहा होता तो आज मैं अपनी माँ की देखभाल कर सकता था। मैं उसे खाना, दवा और आराम दे सकता था। यह आध्यात्मिकता मुझे कहाँ ले आई है?’
रामकृष्ण, काली के उपासक थे, इसलिए उनके घर में एक काली का मंदिर था। उन्होंने कहा, ‘क्या तुम्हारी माँ को दवा और भोजन की ज़रूरत है? तुम जाकर माँ (काली) से क्यों नहीं मांगते हो जो भी तुम्हें चाहिए?’ विवेकानंद को यह विचार अच्छा लगा और वह मंदिर में चले गए।
लगभग घंटे भर बाद, वह बाहर आए तो रामकृष्ण ने पूछा, ‘क्या तुमने माँ से भोजन, पैसा और तुम्हारी माँ को जो कुछ भी चाहिए, वह मांगा?’
विवेकानंद ने जवाब दिया, ‘नहीं, मैं भूल गया।’
रामकृष्ण बोले, ‘फिर अंदर जाओ और मांगो।’
विवेकानंद फिर से मंदिर में गए और चार घंटे बाद वापस आए। रामकृष्ण ने उनसे पूछा, ‘क्या तुमने माँ से मांगा?’
विवेकानंद बोले, ‘नहीं, मैं फिर भूल गया।’
रामकृष्ण ने फिर कहा, ‘फिर से अंदर जाओ और इस बार, मांगना मत भूल जाना।’
विवेकानंद अंदर गए और करीब आठ घंटे बाद वह बाहर आए। रामकृष्ण ने उनसे फिर पूछा, ‘क्या तुमने माँ से मांगा?’
विवेकानंद बोले, ‘नहीं, मैं नहीं मांगूंगा। मुझे मांगने की जरूरत नहीं है।’
रामकृष्ण ने जवाब दिया, ‘यह अच्छा है। अगर तुमने आज मंदिर में कोई चीज़ मांगी होती, तो यह तुम्हारे और मेरे बीच आखिरी दिन होता। मैं तुम्हारा चेहरा फिर कभी नहीं देखना चाहता क्योंकि मांगने वाला मूर्ख जीवन के बुनियादी सिद्धांतों को नहीं समझता।’
प्रार्थना एक तरह का गुण है। अगर आप प्रार्थनामय हैं और पूजा में लीन हैं, तो यह अस्तित्व में होने का एक शानदार तरीका है। लेकिन अगर आप कुछ पाने की उम्मीद के साथ प्रार्थना करते हैं, फिर यह आपके लिए काम नहीं करने वाला।
विवेकानंद ने अपने गुरु का संदेश लोगों तक फैलाने के लिए पश्चिम जाने का फैसला किया। उन दिनों, विदेश यात्रा एक तरह से दूसरे ग्रह जाने जैसा था। तो, वह रामकृष्ण की पत्नी शारदा देवी का आशीर्वाद लेने गए। शारदा देवी रसोईघर में खाना पका रही थीं और जब विवेकानंद ने कहा कि वह रामकृष्ण का संदेश फैलाने पश्चिम जाना चाहते हैं, तो उन्होंने सिर्फ सिर हिलाया। वह उन्हें उनके पुराने नाम ‘नरेन’ से बुलाती थीं। उन्होंने कहा, ‘नरेन, मुझे वह चाकू देना।’
विवेकानंद ने उन्हें चाकू उठाकर दे दिया, धार वाली साइड अपनी हथेली में पकड़कर, हैंडल को शारदा देवी की तरफ रखते हुए। फिर वह बोलीं, ‘तुम जाकर पश्चिम में संदेश फैला सकते हो।’ फिर नरेन ने गौर किया कि वह पहले ही सब्जियां काट चुकी थीं और वे उसे पका रही थीं। उन्होंने पूछा, ‘आपने चाकू क्यों मांगा?’ वह बोलीं, ‘मैं देखना चाहती थी कि तुम मुझे चाकू कैसे देते हो। तुम पश्चिम जाने के योग्य हो या नहीं।’
स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा, ‘आप गीता के पाठ के बजाय फुटबॉल खेलते हुए स्वर्ग के ज्यादा करीब हो सकते हैं।’ यह सच है क्योंकि आप पूरी तरह शामिल हुए बिना फुटबॉल नहीं खेल सकते। इसमें कोई व्यक्तिगत इरादा नहीं है, सिर्फ भागीदारी है। आप क्या कर सकते हैं और क्या नहीं कर सकते, यह पहले से तय है और आपको कई सालों से ट्रेंड किया गया है। अब यह सिर्फ भागीदारी का सवाल है, इरादे का नहीं।
शास्त्रों के अध्ययन करते समय कुछ समय बाद आप बहुत सी दूसरी चीज़ों के बारे में सोच सकते हैं। फ़ुटबॉल का खेल आपको इस तरह की भागीदारी में ले जाता है जहाँ आप कुछ और नहीं कर सकते। ऐसा इसलिए है क्योंकि आपको लोगों को चकमा देना है, आपको गेंद लेनी है, और आपको पूरी रफ्तार से दौड़ना होगा। गेंद को उस रफ्तार से ले जाने के लिए अद्भुत कौशल की जरूरत होती है। इसमें भागीदारी का ऐसा स्तर होता है, जहाँ आप कुछ और सोच विचार नहीं सकते।
अगर आप कोई चीज़ पूरी भागीदारी से करते हैं, तो आप देखेंगे कि उसमें सिर्फ कार्य होता है और मन कहीं और होता है। फुटबॉल मैच में खिलाड़ी अक्सर उस स्थिति में पहुँच जाते हैं। यही वजह है कि जब फुटबॉल पूरी गंभीरता से खेला जाता है, तो वह आधी दुनिया को मोह लेता है। इसमें एक तरह से आप परे चले जाते हैं। यह वास्तव में आध्यात्मिक रूप से परे जाना नहीं है, लेकिन एक तरह से अपनी सीमाओं से परे जाना है।
एक बार स्वामी विवेकानंद एक मशहूर जर्मन दार्शनिक के घर पर मेहमान थे। डिनर के बाद, उसकी स्टडी में दोनों की मुलाकात हुई जहाँ मेज पर एक बड़ी किताब थी, जिसमें आठ सौ से ज्यादा पन्ने होंगे। उस आदमी ने उस किताब की तारीफ की कि वह कितनी शानदार है और उसे समझना इतना मुश्किल है कि वह एक बार में कुछ ही पन्ने पढ़ता है। विवेकानंद बोले, ‘मुझे यह किताब एक घंटे के लिए दे दीजिए। मुझे देखने दीजिए कि इसमें क्या है।’ वह आदमी हँसने लगा, ‘आप इस किताब को एक घंटे में कैसे समझ लेंगे? वह भी तब जब यह जर्मन में है।’ विवेकानंद फिर बोले, ‘बस आप इसे एक घंटे के लिए मुझे दे दीजिए। मुझे देखने दीजिए।’ उस आदमी ने मज़ाक में वह किताब उन्हें दे दी।
विवेकानंद ने एक घंटे तक वह बंद किताब अपने दोनों हाथों के बीच रखी। फिर उन्होंने वह वापस दे दी और कहा, ‘इस किताब में कुछ खास नहीं है।’ वह आदमी गुस्से में आ गया। ‘यह तो आपका अहंकार है। आपने इस किताब को खोला तक नहीं और इसके बारे में टिप्पणी कर रहे हैं।’ विवेकानंद बोले, ‘गुस्सा मत होइए। आप इस किताब के बारे में जो भी पूछना चाहते हैं, मुझसे पूछिए। मैं आपको बताऊंगा।’
उसने विवेकानंद से पूछा, ‘छह सौ बहत्तर नंबर पृष्ठ पर क्या है?’ विवेकानंद ने उसे शब्दश: दोहरा दिया। फिर उस आदमी ने उन्हें देखा और कहा, ‘यह क्या है? आपने तो किताब खोली तक नहीं।’ विवेकानंद बोले, ‘इसीलिए मैं विवेकानंद हूँ।’ उनका नाम नरेन था, उनके गुरु ने उन्हें विवेकानंद नाम दिया था – विवेक मतलब बोध। बोध कई अलग-अलग आयामों में हो सकता है। दुर्भाग्य से अधिकांश लोग कभी इन चीज़ों की खोज करने की कोशिश नहीं करते।