आज़ादी के 75 साल

आज़ादी का अमृत महोत्सव: 5 कहानियाँ आज़ादी के परवानों की

जब भारत आज़ादी के 75 वर्ष का जश्न मना रहा है, सद्‌गुरु कुछ स्वतंत्रता सेनानियों की कहानियां सुना रहे हैं, जिनमें से कुछ को बहुत कम लोग जानते हैं, जिन्होंने अपनी बहादुरी और नि:स्वार्थ बलिदान से भारत की आज़ादी का मार्ग प्रशस्त किया।

सद्‌गुरु: भारत@75 - आज़ादी के अमृत महोत्सव में, मैं उन क्रांतिकारियों को याद करना चाहता था जिन्होंने इस देश की आज़ादी के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। आज भारत एक स्वतंत्र गणराज्य है। लेकिन इसे संभव बनाने के लिए लोगों की तीन-चार पीढ़ियों ने लगातार संघर्ष किया। दुर्भाग्य से, हमने उनमें से अधिकांश लोगों के नाम भी नहीं सुने हैं, उन्हें या उनके परिवार को सम्मानित नहीं किया है, उनके लिए कोई स्मारक नहीं बनाया है।

इसके बारे में लोगों को याद दिलाने की जरूरत है। मैं खास तौर पर युवाओं से यह चाहता हूँ कि वे उन लोगों को याद रखें और उनके प्रति कृतज्ञ हों जिन्होंने अपने जीवन न्यौछावर कर दिए और भारत को आज की स्थिति में लाने के लिए अपनी जवानी लुटा दी। जो देश कृतज्ञ नहीं होता, वह बहुत आगे तक नहीं जा सकता। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि पिछली पीढ़ियों ने हमारे लिए जो किया है, हम उसका सम्मान करें और उसके लिए कृतज्ञ रहें।

कुमारम भीम – एक आदिवासी नायक

कुमारम भीम तेलंगाना इलाके के एक महान नायक थे, जिनका संबंध गोंड समुदाय से था। उस समय के आदिवासी वनों पर अपने पारंपरिक अधिकार के अनुसार रहते थे। जब कुछ अंग्रेज़ वन अधिकारियों ने आदिवासियों को अपनी रोजी-रोटी के लिए जंगल का इस्तेमाल करने से रोकना चाहा, तो दोनों के बीच विवाद हो गया। यह लड़ाई चरम क्रूरता के स्तर तक पहुँच गई, जहाँ कई आदिवासियों की उंगलियां और हाथ तक काट डाले गए। 

कुमारम भीम अपने कबीले के लिए खड़े हुए, एक गुरिल्ला सेना गठित की और अंग्रेजों के खिलाफ कई सालों तक बहादुरी से लड़े। एक गुरिल्ला योद्धा के रूप में उनकी बहादुरी और साहस उस इलाके में एक कहानी बन गई। 1940 में, मुखबिर की खुफिया जानकारी के आधार पर पुलिस ने किसी तरह उन्हें पकड़ लिया और गोली मार दी। उन्होंने अपने देश और अपने कबीले की खातिर अपने प्राण न्यौछावर कर दिए। हमें उनका बलिदान, उनका साहस और सबसे बढ़कर अपने लोगों की भलाई के प्रति उनका समर्पण याद रखना चाहिए।

भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु – महान क्रांतिकारी

जिस दिन भारत के तीन सबसे महान क्रांतिकारी स्वतंत्रता सेनानियों को लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी दी गई थी, उस दिन को हम शहीद दिवस के रूप में मनाते हैं। भगत सिंह और सुखदेव थापर 23 साल के थे और शिवराम राजगुरु सिर्फ 22 साल के।

सुखदेव और भगत सिंह ने भारत की आज़ादी की लड़ाई कॉलेज में रहने के दौरान ही शुरू कर दी थी। उन्होंने अपने साथी छात्रों और दूसरे युवाओं को आज़ादी की लड़ाई में शामिल होने के लिए प्रेरित करने के लिए एक मंच बनाया।

कुछ साल बाद वे राजगुरु से मिले, जो पुणे के एक संस्कृत विद्वान और पहलवान थे। वह चंद्रशेखर आज़ाद से प्रेरित होकर आज़ादी की लड़ाई की तरफ आकर्षित हुए थे। 1927 में, संवैधानिक सुधार और भारत के लिए स्व-शासन की संभावना की रिपोर्ट देने के लिए साइमन कमीशन बनाया गया, लेकिन कमीशन में कोई भारतीय नहीं था। इससे लाला लाजपत राय सहित कई स्वतंत्रता सेनानी आक्रोश में आ गए और  उन्होंने 1928 में लाहौर में एक विरोध प्रदर्शन का नेतृत्व किया। उस विरोध प्रदर्शन के दौरान पुलिस सूपरिंटेंडेंट जेम्स स्कॉट ने लाला लाजपत राय को बहुत पीटा जिससे वे गंभीर रूप से घायल हो गए, और कुछ दिनों बाद उनकी मृत्यु हो गई। यह विरोध प्रदर्शन एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गया। युवा क्रांतिकारी बदला लेना चाहते थे, लालाजी और उस विरोध में अपनी जान गँवाने वाले दूसरे लोगों की मौत का। 

उन्होंने लालाजी को पीटने वाले जेम्स स्कॉट को मारने की योजना बनाई। आख़िरकार भगत सिंह, चंद्र शेखर आज़ाद, सुखदेव और राजगुरु असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट जॉन सॉन्डर्स को मारने में कामयाब हो गए। इसके बाद बड़े पैमाने पर पुलिस तलाशी अभियान शुरू हुआ, लेकिन वे बच निकलने में सफल रहे। उन्हें खोजने और गिरफ्तार करने के भारी पुलिस प्रयासों के बावजूद, इन युवाओं ने हार मानने या आज़ादी के लिए संघर्ष को छोड़ने से इंकार कर दिया।

1929 में, सरकार ने उन विधेयकों को पारित करने की योजना बनाई जो भारतीय जनता के अधिकारों का और अधिक दमन करने वाले थे। इसके विरोध में भगत सिंह और उनके साथियों ने दिल्ली में सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली में बम फेंकने का फैसला किया। स्मोक बम फेंकने के पीछे इरादा किसी की हत्या करने का नहीं बल्कि, अपनी आवाज़ को उन लोगों तक पहुंचाना और अपने साथी भारतीयों को जाग्रत और प्रेरित करना था।

ऐसा था इन युवाओं का समर्पण, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हँसते-हँसते अपनी जान दे दी।

हालांकि भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त, जिन्होंने बम फेंका था, बम फेंकने के बाद हुए हंगामे के बीच भाग सकते थे, लेकिन उन्होंने इससे इंकार कर दिया और वहीं खड़े रहकर नारे लगाते रहे ‘इंकलाब जिंदाबाद।’ ऐसा करते समय वे अच्छी तरह जानते थे कि इसके बाद उन्हें मौत की सज़ा दे दी जाएगी। सुखदेव और राजगुरु की लाहौर में बम की फैक्टरी का पता चलने के बाद दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। वास्तव में, इस मामले में सुखदेव मुख्य अभियुक्त थे, जिसे आधिकारिक तौर पर ‘राजशाही बनाम सुखदेव व अन्य’ कहा गया। सुखदेव इन क्रांतिकारी अभियानों के मुख्य योजनाकारों में एक थे।

जेल में भी वे चुप नहीं रहे। मुकदमे के दौरान भगत सिंह और उनके दोस्तों ने जेल में ब्रिटिश कैदियों के मुकाबले भारतीय कैदियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार का विरोध करने के लिए प्रसिद्ध भूख हड़ताल शुरू की। क्रांतिकारियों को राजनीतिक कैदी मानने की मांग को लेकर वे अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर चले गए। आखिरकार, ब्रिटिश कुछ मांगों पर सहमत हुए, और उनमें से अधिकांश ने हड़ताल समाप्त कर दी। लेकिन भगत सिंह के लिए वह काफी नहीं था, जो अब भी इन भारतीय कैदियों के लिए ‘राजनीतिक कैदी’ का दर्जा दिए जाने की मांग पर अड़े थे।

उन्होंने अपने पिता के अनुरोध पर 116 दिनों के बाद जाकर अपनी हड़ताल खत्म की। 23 मार्च, 1931 को ये वीर पुरुष हँसते- हँसते फांसी पर चढ़ गए। उन्होंने अपने चेहरे को ढकने के लिए काले कपड़े पहनने से इंकार कर दिया और अपने हाथों से अपने गले में फंदा डाल लिया। महात्मा गांधी ने भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के लिए मौत की सजा को कम करने की कोशिश की।

लेकिन अपनी फाँसी से ठीक पहले सुखदेव ने गांधीजी को एक पत्र लिखा। उन्होंने कहा, ‘हमारी फाँसी से भारत को ज्यादा फायदा होगा, बजाय हमारी सज़ा के कम होने से।’ ऐसा था इन युवाओं का समर्पण, जिन्होंने अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए हँसते-हँसते अपनी जान दे दी। और इस दिन हम याद करते हैं कि कैसे देश के लिए उनके जान देने से इस पीढ़ी और आने वाली पीढ़ियों को एक आज़ाद देश मिल पाया है।  

झलकारी बाई – झांसी की शेरनी

झांसी इलाके में झलकारी बाई नाम की एक महिला थी। उनका जन्म 1830 में एक दलित परिवार में हुआ था। उन दिनों महिलाओं को स्कूल जाने की अनुमति नहीं थी। इसके बावजूद उनके पिता ने उन्हें घुड़सवारी और शस्त्र विद्या सिखाई। स्थानीय किंवदंती के अनुसार, उन्होंने एक बार एक बाघ को मार डाला जो गांववालों पर हमला कर रहा था। उन्होंने झांसी की सेना के एक सैनिक से शादी की। रानी लक्ष्मीबाई ने उनकी बहादुरी और कौशल पर गौर किया। कहा जाता है कि राजा की मृत्यु के बाद अंग्रेजों के साथ झांसी के युद्ध के दौरान, झलकारी बाई ने ही रानी लक्ष्मीबाई को अपनी रक्षा के लिए अपने शिशु राजकुमार को लेकर भागने के लिए कहा था।

बहादुरी दिखाते हुए झलकारी बाई ने रानी लक्ष्मीबाई के भेष में युद्ध का नेतृत्व किया, जबकि रानी शिशु राजकुमार के साथ बच निकलीं। कहा जाता है कि वह एक बाघिन की तरह लड़ीं, बहुत से अंग्रेज़ सैनिकों को मार डाला, और अंत में लड़ते हुए शहीद हो गईं। बुंदेलखंड के कई दलित समुदाय आज भी उन्हें देवी के रूप में देखते हैं और हर साल झलकारी बाई जयंती मनाते हैं। हम नहीं जानते कि ऐसे कितने गुमनाम नायकों ने भारत की आजादी के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी।

झलकारी बाई किसी राजा-घराने में नहीं जन्मी थीं, वह एक छोटी जाति के परिवार में पैदा हुई थीं, लेकिन वह अंग्रेज़ों से लड़ते हुए वीरता की ऊँचाई तक पहुँच गईं और अमर हो गईं। अब समय है कि देश उनके साहसिक कारनामों, उनकी बहादुरी और युद्ध कौशल को याद करे और उनका जश्न मनाए क्योंकि उन्होंने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी जान बचाकर फिर से युद्ध करने का मौका दिया। हम भारत की इस महान स्त्री को प्रणाम करते हैं।  

हाइपौ जादोनांग – नागा योद्धा

हाइपौ जादोनांग वर्तमान मणिपुर के एक स्वतंत्रता सेनानी थे। वह एक नागा आध्यात्मिक नेता थे, जिन्होंने अंग्रेजों को अपने लोगों पर कठोर कर लगाते देखा। पहले विश्व युद्ध के दौरान नागाओं को जबरन ब्रिटिश सेना में भी भर्ती किया गया। विदेशी धरती पर, अनजान संस्कृति और इलाके में, अलग-अलग नागा जनजातियों ने आपस में समानताएं खोजनी शुरू कीं और एकजुट होकर नागा क्लब बनाया। जब वे स्वदेश लौटे तो यह आजादी के संघर्ष के दौरान नागा समुदायों को एकजुट करने की नींव बन गई। 

अपनी रिहाई के बाद, जादोनांग ने लोगों को इकट्ठा किया और कुछ सौ स्त्री-पुरुषों की एक सेना बनानी शुरू की।

जादोनांग ने ‘हेराका आंदोलन’ शुरू करते हुए जनजातियों को एकजुट करने का भी काम किया और अंग्रेजों से लड़ने के लिए नागाओं को प्रेरित करने के लिए ‘नागा-राज’ की वकालत की। समर्थन जुटाने के लिए वह पूरे इलाके में घोड़े पर घूमे। कुछ समय तक अंग्रेजों का ध्यान उन पर नहीं गया, लेकिन एक दिन उन्हें पकड़ लिया गया और कुछ समय के लिए जेल में डाल दिया गया।

अपनी रिहाई के बाद, जादोनांग ने लोगों को इकट्ठा किया और कुछ सौ स्त्री-पुरुषों की एक सेना बनानी शुरू की। उन्होंने उन्हें युद्ध के लिए प्रशिक्षित किया और खेती तथा पशु चराने के ज़रिए आजीविका कमाने में भी उनकी मदद की। वह इतने लोकप्रिय हो गए कि लोगों ने अंग्रेजों के बजाय उन्हें कर और भेंट देना शुरू कर दिया। अंग्रेजों को उनकी गतिविधियों के बारे में पता चला तो उन्हें गुस्सा आया कि वह उनके करों का एक हिस्सा ले रहे हैं।

उन्होंने देशद्रोह के आरोप में उन्हें और उनके 600 अनुयायियों को गिरफ्तार कर लिया। फिर 26 साल की उम्र में उन्हें फांसी पर लटका दिया गया। हालांकि हाइपौ जादोनांग को नागाओं के ‘मसीहा राजा’ के रूप में जाना जाता है और मणिपुर में उनके नाम पर उत्सव मनाए जाते हैं, लेकिन बाकी भारत ने शायद ही उनका नाम सुना हो। यही समय है कि भारत के उत्तरपूर्वी हिस्से के नायकों को हमारी आजादी के लिए किए गए बलिदानों के लिए पहचाना जाए और सम्मानित किया जाए।

चापेकर बंधु – तेजस्वी भाइयों की तिकड़ी

दामोदर हरि चापेकर, बालकृष्ण हरि चापेकर, और वासुदेव हरि चापेकर तीनों भाई पुणे के चिंचवाड़ की क्रांतिकारी तिकड़ी थे। बाल गंगाधर तिलक से प्रभावित होकर बड़े भाई दामोदर ने भारत में ब्रिटिश शासन का विरोध करने के लिए ‘चापेकर क्लब’ शुरू किया। क्लब ने अपने आसपास के कई युवाओं को इकट्ठा किया। 1896 में, एक बुबोनिक प्लेग ने पुणे को तबाह कर दिया, और हजारों लोग मारे गए। लगभग आधी आबादी शहर से भाग गई थी, ब्रिटिश सरकार ने महामारी से निपटने के लिए एक विशेष प्लेग समिति बनाई।

जब समिति के आयुक्त ने कार्यभार संभाला, तो लोगों का कष्ट दूर करने के बजाय उसने बलों को तैनात किया, जो हर घर में जाकर पूजा की मूर्तियों सहित निवासियों के सामान और संपत्ति को नष्ट करते थे। जांच के नाम पर, पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को सार्वजनिक स्थानों पर कपड़े उतारने के लिए मजबूर किया जाता था। अपने लोगों को परेशान और अपमानित होते देखकर, चापेकर क्लब के सदस्य गुस्से में आ गए और इसके लिए जिम्मेदार आयुक्त की हत्या करने का फैसला किया।

चापेकर भाइयों जैसे क्रांतिकारियों की बहादुरी के बिना हम इस साल भारत का 75वां स्वतंत्रता दिवस नहीं मना रहे होते।

22 जून, 1897 को, महारानी विक्टोरिया के हीरक जयंती समारोह में भाग लेने के बाद कमिश्नर अपनी बग्घी में घर लौट रहे थे। तीनों भाइयों ने सही समय का इंतज़ार किया और आयुक्त को मारने में सफल रहे। इसके तुरंत बाद, दामोदर को गिरफ्तार कर लिया गया और मौत की सजा सुनाई गई, लेकिन बाकी दो भाई भाग गए। हालांकि चापेकर क्लब के दूसरे सदस्यों ने उनके छिपने की जगह का खुलासा कर दिया और उन दोनों को भी गिरफ्तार कर लिया गया। सभी भाइयों को मौत की सजा दी गई। दामोदर को अप्रैल 1898 में और छोटे भाइयों को मई 1899 में फांसी दे दी गई।

उनके बदले की कार्यवाही से ब्रिटिश अधिकारियों को ज़बरदस्त झटका लगा। सितंबर 1898 में, बॉम्बे के गवर्नर को प्लेग से निपटने के लिए मानवीय तरीकों को अपनाने के लिए मजबूर होना पड़ा। महाराष्ट्र में कई ब्रिटिश विरोधी समूहों के लिए, यह घटना एक महत्वपूर्ण मोड़ बन गई। चापेकर भाइयों जैसे क्रांतिकारियों की बहादुरी के बिना हम इस साल भारत का 75वां स्वतंत्रता दिवस नहीं मना रहे होते।