अंतर्पथ के राही
स्वामी केवला
~ परम-तत्व

इस श्रृंखला में, ईशा के ब्रह्मचारी और संन्यासी अपनी व्यक्तिगत पृष्ठभूमि, विचार, अवलोकन और अनुभव साझा करते हैं, कि इस पवित्र ‘चैतन्य के पथ पर’ चलने का उनके लिए क्या अर्थ है।

ज्ञान पिपासा

जब मैं सोलह साल का था, तो मेरे पिता की कैंसर से मृत्यु हो गई। मुझे अब भी याद है कि उस दिन सुबह जब मेरी माँ मेरे सिरहाने आईं और बहुत आराम से मुझसे कहा, ‘पिछली रात तुम्हारे पिताजी चल बसे।’ मैंने कुछ नहीं कहा, मैं जड़ हो गया था। हम सब जानते थे कि ऐसी स्थिति आने वाली है – उन्होंने कुछ ही दिन पहले अस्पताल से घर वापस जाने की बात कही थी। लेकिन जब वह क्षण आया, तो मेरी दुनिया ध्वस्त हो गई। सद्‌गुरु अक्सर कहते हैं, ‘जब किसी के जीवन में कष्ट आता है, तभी अधिकांश लोग आध्यात्मिकता की ओर मुड़ते हैं,’ और कई साल बाद जाकर मुझे एहसास हुआ कि वह घटना मेरी अपनी आध्यात्मिकता की खोज के लिए एक ट्रिगर थी।

उस समय के बाद से, मैं ‘पैरानॉर्मल’ (असाधारण) गतिविधियों के प्रति आकर्षित हुआ। मैं लंदन में गूढ़ किताबों की दुकानों के आस-पास अपने सप्ताहांत बिताने लगा था। इसी के जरिए मैंने योग के बारे में पढ़ा। उस समय तक, मैंने हमेशा सोचा था कि योग और कुछ नहीं बल्कि कुछ ख़ास तरह के जिमनास्टिक की मुद्राएँ हैं। मुझे यह जानकर हैरानी हुई कि यह तो दरअसल एक अलग तरह के ज्ञान का द्वार है – कुछ ऐसा जिसके लिए मैं अपनी अचेतना में लालायित था। अपने जीवन के उस मोड़ से मैं हमेशा किसी ऐसे शख्स की तलाश में रहने लगा जिससे मैं असली योग सीख सकूँ। लेकिन इंग्लैंड जैसे शहर में इंटरनेट के ज़माने में बड़े हो रहे एक किशोर के रूप में मेरी किस्मत इतनी अच्छी नहीं थी।

उसी समय के आस-पास मुझे अपनी फर्म के लंदन ऑफिस में जाने के लिए कहा गया। वहाँ व्यवस्थित होने के बाद, मैंने पहली चीज़ यह की कि किसी ऐसी जगह की तलाश करूँ जहाँ मैं योग सीख सकूँ। तभी मुझे शिवानंद सेंटर के बारे में पता चला। पहली बार मुझे किसी ऐसी चीज़ का स्वाद मिला, जिसे मैंने प्रामाणिक महसूस किया। जब मैंने पहली ‘बिगनर्स योगा’ कक्षा की, तो शिक्षक ने हम सभी से पूछा कि हम क्यों आए हैं। कोई कह रहा था कि वे अपनी पीठदर्द से छुटकारा पाना चाहते हैं, कोई कहता अपनी एकाग्रता बढ़ाना चाहते हैं। जब मेरी बारी आई, तो मैंने थोड़ा शर्मिंदा होते हुए कक्षा में यह स्वीकार किया कि मैं आत्मज्ञान पाना चाहता हूँ।  

कुछ महीने तक नियमित योग कक्षाएं करने के बाद, और परमहंस योगानंद की ‘एक योगी की आत्मकथा’ सहित जो भी किताबें मुझे मिलीं, उन्हें पढ़ने के बाद, मुझे भारत की यात्रा करने की तीव्र इच्छा हुई। हालाँकि साधुओं और मंदिरों की छवि मेरे लिए धार्मिक अर्थ रखती थी जिसे स्वीकार करना मेरे लिए मुश्किल था, मैं तो रहस्यवाद के बारे में जानने के लिए उत्सुक था। मैंने अपने काम से छुट्टी लेने की योजना बनानी शुरू कर दी।  

एक दिन, मैं एक भारतीय दोस्त से बात कर रहा था और मैंने उसके सामने जिक्र किया कि मैं एक महीने के लिए भारत जाने की योजना बना रहा हूँ। उसने जवाब दिया, ‘तुम सिर्फ एक महीने के लिए कैसे जा सकते हो! भारत का मतलब है कि तुम्हें कम से कम छह महीने के लिए जाना होगा।’ किसी वजह से मैंने इसे एक तथ्य के रूप में मान लिया जिस पर बहस करने की ज़रूरत नहीं थी। जब मैं घर गया तो मैंने पता किया कि अपनी नौकरी से लंबी छुट्टी लेने के लिए मेरे पास कौन से विकल्प हैं। चूंकि मैं काफी नया था इसलिए मैं उनमें से कोई भी विकल्प नहीं ले सकता था इसलिए मैंने यह सोचा कि इस्तीफा देना ही एकमात्र विकल्प होगा।

अगले दिन मैं अपने डिवीजनल हेड के ऑफिस गया और घोषणा की कि मैं नौकरी छोड़ना चाहता हूँ। वह चौंक गए और वजह पूछी, क्योंकि सब कुछ अच्छा चल रहा था। मैं बोला ‘मैं छह महीने के लिए भारत जाना चाहता हूँ।’ उन्होंने पूछा, ‘तुम वहाँ क्या करने वाले हो?’ उस समय मुझे एहसास हुआ कि मेरे पास कोई तर्कसंगत जवाब नहीं है और मैंने जवाब दिया कि मुझे वास्तव में नहीं पता।  

कुछ हैरान-परेशान दिखते हुए लेकिन मेरी बात समझते हुए, उन्होंने मुझसे कहा कि मैं जाऊँ और चिंता न करूं, वापस लौटने पर मेरी नौकरी सलामत रहेगी।

दिव्यदर्शी का दूत

जल्दी ही मेरे जाने का समय आ गया। वह 2003 का मार्च महीना था। मेरी फ्लाइट एक रात के लिए श्रीलंका में रुकी और फिर मुझे त्रिवेंद्रम, केरल पहुँचा दिया। मैं एयरपोर्ट से निकला और बस स्टेशन के लिए एक ऑटोरिक्शा लिया। मुझे याद है कि मैं सड़क किनारे की छोटी-छोटी दुकानों और सब्जी बेचने वालों के बीच से गुजरते हुए बहुत सारी अलग-अलग आवाज़ों और रंगों से अभिभूत हो गया था।

मैंने अपनी बस खोजी और उसमें चढ़ गया, वह मुझे नैय्यर डैम तक ले गई – वहीं शिवानंद का मुख्य आश्रम था जहाँ मैंने एक महीने का योग कार्यक्रम करने की योजना बनाई थी। जैसे ही मैं नीचे उतरा, मेरे पीछे की सीटों पर बैठे एक युवक-युवती भी नीचे उतर आए। उन्होंने बिना एक शब्द कहे मेरा बैग ले लिया और हम सड़क पर तीनों एक साथ चलने लगे।

वे तमिल थे और ज्यादा अंग्रेज़ी नहीं बोल सकते थे, लेकिन किसी तरह हमने थोड़ी बहुत बातचीत कर ली। उस युवती में कोई खास बात लग रही थी। ऐसा लगा कि उसने मेरी भीतर आध्यात्मिकता की खोज को पहचान लिया है। वह जाहिर तौर पर उसी कार्यक्रम के लिए उस आश्रम में ठहरी हुई थी लेकिन बाद में मुझे पता चला कि वह किसी मुश्किल पारिवारिक परिस्थिति से बचना चाहती थी।

अगले कुछ सप्ताह में, हम दोस्त बन गए। कार्यक्रम के खत्म होने के बाद उसने मुझसे कहा कि मुझे उसके गुरु ‘जग्गी’ से मिलना चाहिए और आग्रह किया कि मुझे ईशा योग की कक्षा करनी चाहिए। मैं पूरी तरह भ्रमित हो गया था। मैं नहीं जानता था कि मुझे जाना चाहिए या नहीं। मैं शिवानंद आश्रम में खुश था और मुझे किसी दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं लग रही थी लेकिन मेरे अंदर कोई चीज़ मुझे कह रही थी कि मुझे जाना चाहिए। मैंने कुछ समय तक अपने मन में उससे संघर्ष किया लेकिन जब मैंने अपनी आँखें बंद कीं और अपने मन को एक तरफ रख दिया, तो मुझे पता चल गया कि उसने जो कहा था, वह मुझे करना ही है।  

उसने मुझे एक ‘फॉरेस्ट फ्लावर’ पत्रिका दी और चेन्नई में अगले 13 दिन की अंग्रेजी माध्यम में होने वाले ईशा योग कक्षा में  शामिल होने की व्यवस्था कर दी। मैं उस पत्रिका और सद्‌गुरु की तस्वीर में डूब गया और मेरे अंदर कोई चीज़ इस शख्स से मिलने के विचार पर काँप उठी। मुझे याद है कि मैंने एक पैसेज पढ़ा, जिसमें उन्होंने कहा, ‘आपका ध्यान सिर्फ आपके लिए नहीं है। अगर इस हॉल में कुछ लोग वास्तव में ध्यानमय हो जाएं, तो पूरा शहर, कारण जाने बिना, शांतिमय हो जाएगा... मैं हमेशा उन लोगों की तलाश में रहता हूँ... यहाँ आने वाले हज़ार लोगों में से, शायद एक दर्जन ऐसे हों जो उच्च संभावनाओं के योग्य हों।’  

‘क्या मैं उन कुछ भाग्यशाली लोगों में हो सकता हूँ?’ मुझे लालसा हुई।

मैं कक्षा में शामिल होने चेन्नई गया। इंट्रोडक्शन सेशन के बाद, मुझे कोई संदेह नहीं रह गया कि यही मेरा मार्ग है और तेरह दिन यूँ ही फुर्र से निकल गए। अब तक, मेरे दिल में उस कक्षा की बहुत मधुर यादें हैं – जादुई वातावरण, चुपचाप और प्यार से हर छोटी-छोटी बात का ध्यान रखने वाले वालंटियर और वह शिक्षक, जो उसी तरह का गुण बिखेर रहे थे, जैसे मुझे वहाँ से परिचित कराने वाली तमिल युवती।    

कक्षा समाप्त होने के बाद, मैं आश्रम आया और अगले पाँच महीने तक वहाँ वालंटियर के रूप में रहा। मैंने सेवा और सुंदर परिवेश में खुद को डुबो दिया। मैं अलग-अलग आश्रमों और आध्यात्मिक स्थानों पर जाकर भारत का भ्रमण करने की अपनी शुरुआती योजना भूल गया। मुझे बिना खोजे वह मिल गया था, जिसकी मुझे तलाश थी।

यह मेरा घर नहीं

लटकती हुई मालाएं सुशोभित कर रही हैं

पर यह मेरा घर नहीं।

मोर बेफिक्र इतरा रहे हैं

नहीं, यह मेरा घर नहीं।

बेतरतीब तराशे हुए पत्थर

यह मेरा घर नहीं है।

पहाड़ जो धन्य हुए हैं महापुरुषों से

ओह, यह मेरा घर नहीं है।

मेरा घर - मैं नहीं जानता कहाँ है

किस दिशा में है।

लेकिन यहाँ, शायद मैं कुछ देर रूकूँ

शायद मैं अपना घर पा लूँ।

आत्मज्ञानी से सामना

जब मैं आश्रम में था, सद्‌गुरु अमेरिका में थे और जब मेरा समय वहाँ खत्म होने वाला था, तब वे लौटे और उन्हें एक ‘होलनेस प्रोग्राम’ आयोजित करना था। मैंने उनके करीब थोड़ा समय बिताने के लिए उत्सुक होकर पंजीकरण करवा लिया और अपनी माँ को भी उस कार्यक्रम में शामिल होने के लिए तैयार कर लिया। आखिरी दिन, हममें से कुछ लोग जाकर उनसे मिलना चाहते थे। हम एक-एक करके गए। बाकी हर किसी से वह मज़ाक कर रहे थे और मुस्कुरा रहे थे, लेकिन जब मैं उनके पास गया, तो उनकी मुस्कुराहट गायब थी।

‘क्या मैं यहाँ कुछ समय और रुक सकता हूँ?’ मैंने उनसे पूछा, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं और क्या पूछूँ क्योंकि उनके सामने मैं बिल्कुल ख़ाली हो गया था। ‘अगर आप आलसी हैं, तो हम आपको बाहर निकाल देंगे,’ उन्होंने उपेक्षा से कहा। मैं स्तब्ध होकर वापस चला गया। अपने गुरु से पहली बार सामना होने के परमहंस योगानंद के रोमानी वर्णन को पढ़ने के बाद, मुझे अपने लिए भी कुछ ऐसी ही उम्मीदें थीं सद्‌गुरु के साथ अपनी मुलाकात को लेकर। मैंने सोचा था कि वह बाहें खोलकर मेरा स्वागत करेंगे, खुश होते हुए कि मैं आ गया हूँ। लेकिन अब मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इस जवाब का क्या मतलब निकालूँ। पिछले पाँच महीने से रसोईघर में बर्तन धोते हुए और दिन में दो बार साधना करते हुए मेरी कमर टूट गई थी – मैं समझ नहीं पाया कि उन्होंने मुझसे ऐसा क्यों कहा। मैं एक साथ भ्रमित, निराश और रुष्ट था।

कुछ दिन बाद, मैंने महसूस किया कि मैं अब आश्रम में नहीं रहना चाहता। जिस दिन मुझे इंगलैंड लौटना था, उसके लगभग एक सप्ताह पहले, मैं एक पत्थर पर अपने कपड़े धो रहा था और सोच रहा था कि अगले कुछ दिन कैसे निकलेंगे। जब मैं ट्रायंगल ब्लॉक (जहाँ सभी वालंटियर रहते थे) से होकर वापस जा रहा था, तो एक वालंटियर ने खुशी से मुझे आवाज़ लगाई, ‘आपके लिए एक एप्वाइंटमेंट है।’ मैंने कहा, ‘मैं ठीक हूँ, मुझे डॉक्टर से मिलने की कोई जरूरत नहीं है।’ ‘नहीं, नहीं, सद्‌गुरु के साथ,’ वह हँसी। मैं बहुत उत्साहित था कि आखिरकार उन्होंने मुझसे मिलना चाहा – या ऐसा मैंने सोचा! (बाद में मुझे पता चला कि एक संन्यासी ने मेरे लिए उस एप्वाइंटमेंट की व्यवस्था की थी क्योंकि वह जानते थे कि मुझे कुछ दिन में वापस जाना है)।

मैं मंदिर के बाहर बगीचे में एक झाड़ी के पास बेचैनी से खड़ा अपनी बारी का इंतज़ार कर रहा था। उस समय मैंने तय किया कि मैं उनसे पूछूंगा कि मुझे अपने जीवन के साथ क्या करना चाहिए, और जो भी वह मुझे करने को कहेंगे, मैं वह करूंगा। कुछ समय बाद एक माँ ने मुझे अंदर जाने का इशारा किया, मुझे विश्वास नहीं हो रहा था कि मुझे सद्‌गुरु से आमने-सामने मिलने का एक और मौका मिल रहा था। ‘मैं अपने जीवन के साथ क्या करूँ?’ मैंने अपना पहले से तैयार किया गया सवाल पूछ लिया, जब उन्होंने कुछ अनौपचारिक टिप्पणियों से मुझे सहज बना दिया। ‘उसे जियो’ उन्होंने ठहाका लगाते हुए कहा। फिर से मुझे सद्‌गुरु से एकदम अप्रत्याशित जवाब मिला था। यहाँ मैं अपने जीवन के चुनाव उनके हवाले कर रहा था और (मेरी समझ में) वह उसे मज़ाक में ले रहे थे। मैंने उनके सामने स्वीकार किया कि अब मुझे आश्रम में अच्छा नहीं लग रहा। उन्होंने मुझे देखकर पूछा, ‘क्या आपको डर लग रहा है?’ मैं फिर से भ्रम में पड़ गया। इस मुलाकात के खत्म होने से पहले, उन्होंने मुझे अमेरिका में होने वाले भाव-स्पंदन कार्यक्रम में हिस्सा लेने को कहा। ‘फिर हम देखेंगे,’ वे बोले। इस मुलाकात के बाद मैं खुश था। सिर्फ उनकी मौजूदगी में कुछ पल गुज़ारने के बाद मेरी पहले वाली नकारात्मकता उड़ गई थी।

मैंने निर्देशों का पालन किया और अमेरिका में भाव-स्पंदन में शामिल होने के बाद, मैं औपचारिक रूप से नौकरी छोड़ने और कुछ दोस्तों व परिवार से – शायद आखिरी बार - मिलने के लिए इंगलैंड लौट गया। वहाँ से मैं सीधा आश्रम के लिए निकल गया और वहॉं 21 सितंबर को पहुँचा, जब वहाँ ईशा फेस्ट उत्सव चल रहा था। उसके बाद चीज़ें बहुत तेज़ी से घटित होती गईं और नौ महीने बाद, 2004 की गुरु पूर्णिमा को मुझे पच्चीस दूसरे पूर्णकालिक स्वयंसेवकों के साथ ब्रह्मचर्य के मार्ग की दीक्षा दी गई।

साउंड्स ऑफ ईशा

संगीत हमेशा से मेरे जीवन का एक अहम हिस्सा रहा है। मैंने ग्यारह साल की उम्र में गिटार बजाना सीखना शुरू कर दिया था। मेरे पास एक प्रेरणादायी शिक्षक थे – वह एक युवक थे, जो अक्सर अपने माता-पिता के गार्डन के आखिरी सिरे पर बने एक शेड में रहते थे, क्योंकि उनके इलेक्ट्रिक गिटार की आवाज़ इतनी तेज़ थी कि उन्हें घर में घुसने नहीं दिया जाता था। वह अपने वाद्ययंत्र के प्रति समर्पित थे और उनके जुनून ने मेरे अंदर भी एक दीवानगी जगाई। हर दिन स्कूल से घर आते ही मैं सीधे अपने बेडरूम में चला जाता और घंटों अभ्यास करता। मेरे शिक्षक हमेशा मुझे कभी खुद से संतुष्ट न होने के लिए प्रेरित करते। मैंने इसे कभी महसूस नहीं किया, लेकिन मेरे वादन में तेज़ी से सुधार हुआ। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो मैं ब्रह्मचर्य के मार्ग में उसी पहलू को देख पाता हूँ – सद्‌गुरु ने कभी हमें उससे संतुष्ट नहीं होने दिया, जो हम अभी हैं या जो हम कर रहे हैं।

स्कूली दिन जब खत्म होने वाले थे, उसी दौरान मैंने अपने एक गायक दोस्त के साथ मिलकर एक म्यूजिक बैंड बनाया था, जिसे हम ‘इगुआना’ कहते थे। अगले कुछ सालों में हमने साथ मिलकर ढेर सारे गाने लिखे। कुछ दोस्त हमारे प्रशंसक थे और हम पब, बार, सड़क, सबवे – जहाँ भी हमें दर्शक मिलते थे, वहाँ अपना प्रदर्शन करते थे। सभी युवाओं की तरह हमारा भी सपना था कि एक दिन हम मशहूर होंगे और हमारे कंसर्ट में हज़ारों लोग आएंगे। एक दिन मेरे मन में यह ख्याल आया कि शायद मशहूर होना वास्तव में बहुत बढ़िया चीज़ नहीं है और वह काफी कष्टदायक भी हो सकता है। मेरी इच्छा ऐसा संगीत बनाने की थी जिसका लाखों लोग आनंद लें, लेकिन मैं सोचता था कि क्या इसे एक अलग संदर्भ में किया जा सकता है। तब मैं सोच भी नहीं सकता था कि कुछ सालों बाद यह कैसे व्यक्त होने वाला है।  

मैं जहाँ भी जाता था, हमेशा अपना गिटार साथ लेकर जाता था – मैं एक दिन के लिए भी उसके बिना नहीं रहना चाहता था। लेकिन जब मैं भारत जाने के लिए पैकिंग कर रहा था, तो शायद कई आध्यात्मिक किताबों से प्रभावित होकर मैंने अपने इस जुड़ाव को देखा और तय किया कि मुझे इसे पीछे छोड़ देना चाहिए। वास्तव में अपने नए सफर की शुरूआत में मुझे उसकी कमी महसूस नहीं हुई, खासकर ईशा कक्षा के बाद और आश्रम में रहते हुए – लेकिन किसी न किसी तरह उसने मुझे ढूंढ़ लिया। एक दिन मैंने ट्रायंगल ब्लॉक में पत्थर की एक बेंच पर एक गिटार पड़ा हुआ देखा – शायद कोई विदेशी साधक उसे लेकर आया था। मैंने उसे उठाया और बजाने लगा। एक स्वामी ने मुझे देखा और मुझे ध्यानलिंग में नाद आराधना करने को कहा, साथ ही आश्रम की संगीत टीम से मिलने के लिए कहा। इस तरह मैं साउंड्स ऑफ ईशा का एक हिस्सा बना।

साउंड्स ऑफ ईशा में मैंने अनुभव किया कि हम ज्यादातर भ्रम की स्थिति में होते थे, क्योंकि हमें कभी पता नहीं होता था कि हमें क्या करना है। कुछ स्थितियों को छोड़कर, सद्‌गुरु आमतौर पर हमें इस बारे में स्पष्ट निर्देश नहीं देते थे कि संगीत कैसा होना चाहिए - बल्कि उनका मार्गदर्शन इस संदर्भ में ज्यादा होता था कि किसी परिस्थिति के लिए किस तरह के माहौल या भावना की जरूरत है। इसका मतलब यह था कि संगीत रचने का काम ज्यादातर हमारी अपनी समझ पर छोड़ दिया गया था, और सद्‌गुरु हमें अपना रास्ता खुद खोजने देते थे। आम तौर पर किसी भी कार्यक्रम में उनके बोलने से पहले हम संगीत का एक छोटा सा अंश बजाते हैं, जिससे दर्शकों को रमने का मौका मिलता है। हमारे प्रदर्शन के बाद वह कभी-कभी हम पर एक गूढ़ नज़र डाल लेते या खिलखिला देते थे जो हमें भ्रम में डाल देता था और हम सोचने लगते थे कि हमने जो बजाया, वह सही था या नहीं।

हम ज्यादातर सद्‌गुरु के कार्यक्रमों में बजाते थे – सत्रों से पहले, ब्रेक में, नाश्ते, दोपहर और रात के भोजन के दौरान, लोगों को जगाने के लिए, उन्हें नचाने के लिए या उन्हें शांत बैठाने के लिए – किसी भी समय जब सद्‌गुरु बोल न रहे हों। जब भी सद्‌गुरु मौजूद होते हैं, वह हमेशा संगीत पर ध्यान देते हैं। जब वह मेज पर रात के भोजन के साथ लोगों से बातचीत कर रहे होते हैं, तब भी उनके पैरों या हाथ को लय के साथ टैप करते देखना हमारे लिए बहुत आनंददायक होता है। कई बार हम डिनर के समय लगातार कई घंटों तक एक स्ट्रेच में बजाते हैं और रुक नहीं सकते क्येांकि लोग नाच रहे होते हैं या उसका आनंद ले रहे होते हैं। अक्सर सद्‌गुरु खुद आ जाते हैं या किसी से संदेश भिजवाते हैं – ‘लड़कों से कहो कि जाकर खाना खा लें।’ हर समय अपने आस-पास के लोगों के लिए यह परवाह और चिंता उन्हें दूसरों से अलग करती है।

हम अलग-अलग संस्कृतियों से आने वाले लोगों का एक समूह हैं, जिसमें हर किसी का संगीत के बारे में अपना विचार है और हर किसी की ट्रेनिंग का स्तर अलग है, लेकिन हमें ऐसी स्थितियों में डाला गया जहाँ हमें साथ मिलकर कुछ बनाना था। पहले तो मुझे भारतीय रागों की सूक्ष्म जटिलताओं और अपरिचित पाँच और सात बीट ड्रम तालों के साथ बजाना नामुमकिन लगा, लेकिन फिर कामयाबी मिलने लगी। इतने सालों में मैंने महसूस किया कि हम हमेशा भ्रम में संगीत बनाना शुरू करते थे और धीरे-धीरे अचानक कहीं से कुछ निकलकर आ जाता था – और कोई नहीं जान पाता था कि वह हुआ कैसे। यह अनुभव कई बार हुआ और अब मैं जानता हूँ कि रोज़ गुरु की कृपा में डूबे रहने का क्या मतलब है।

एक बार सद्‌गुरु ने सुझाव दिया कि मैं सितार सीखूं। दिल्ली के एक साधक ने एक नया सितार हमें दान में दिया और मैंने औपचारिक रूप से सीखने के लिए कुछ सबक लिए। उस वाद्ययंत्र की आवाज़ मनमोहक थी और मैं भारतीय संगीत की संरचना, गहराई और सुंदरता के प्रति गहराई से आकर्षित था, जो कला और गणित के आदर्श मेल जैसा लगता था। हालांकि मैं उसे ठीक से बजाना नहीं जानता, लेकिन मैं अक्सर उससे अच्छी ध्वनि निकाल सकता हूँ क्योंकि मैंने पहले गिटार का अभ्यास किया हुआ है और अब मैं ध्यानलिंग में सप्ताह में एक बार सितार के साथ नाद आराधना करता हूँ।

सद्‌गुरु ने हमेशा संगीत के बजाय ध्वनियों पर ज़ोर दिया है। इसीलिए उन्होंने ‘ईशा म्यूजिक’ नाम न रखकर ‘साउंड्स ऑफ ईशा’ रखा। मैं तर्क से दोनों का अंतर समझता हूँ लेकिन मैं वास्तव में इसका पूरा महत्व नहीं समझता। लेकिन जब मैं लोगों को कहते सुनता हूँ कि साउंड्स ऑफ ईशा अलग है, तो मैं वजह जानता हूँ। साउंड्स ऑफ ईशा किसी एक व्यक्ति की अभिव्यक्ति नहीं है। यह ऐसी अभिव्यक्ति है जो हम सभी से आती है, जब हम अपनी पसंद और समझ से परे जाते हैं।

महाभारत

2012 में सद्‌गुरु ने ‘महाभारत: सागा नॉनपेरल’ कार्यक्रम आयोजित किया, जो ‘अब तक की सबसे महान कथा’ की व्याख्या थी। मैं उस समय संगीत की टीम का नेतृत्व कर रहा था और हमें सद्‌गुरु के वर्णन के साथ मेल खाता संगीत बनाना था।

मैंने सोचा था कि कार्यक्रम के दौरान कोई और सद्‌गुरु से बातचीत करेगा, लेकिन पता नहीं कैसे आखिर में वह मैं ही था। हर दिन, सुबह के सत्र से पहले सिर्फ पंद्रह मिनट के लिए, हम उनके कमरे में मिलते थे ताकि यह योजना बना सकें कि वह उस दिन क्या बोलने वाले हैं और उसके साथ कैसा संगीत होगा। (स्वाभाविक रूप से हमने कई बार यह जानकारी पहले हासिल करने की कोशिश की, लेकिन हर बार हमारे पूछने पर वह कहते कि उनके पास अभी इस बारे में सोचने का समय नहीं है)। तो जब हम कमरे में घुसते, वह खुशी-खुशी (और मुझे शक है कि शरारत से) हमसे पूछते, ‘हम आज किस बारे में बात करें!’

मेरा दिमाग मानो हवा में तैरने लगता, जब मैं समझने की कोशिश करता कि वह हमसे क्यों पूछ रहे हैं कि उन्हें किस बारे में बात करनी चाहिए। अब मैं जानता हूँ कि वह सिर्फ हमें प्रक्रिया में शामिल कर रहे थे जैसा कि वह स्वाभाविक रूप से ईशा के हर पहलू में अपने आस-पास के लोगों के साथ करते हैं।

शायद पाँच-छह दिन बाद मैंने महसूस किया कि हमने अपने सभी गाने खत्म कर दिए हैं और अब भी दो दिन बाकी हैं। मैं शाम को सद्‌गुरु के पास गया और खीजकर उनसे कहा, ‘सद्‌गुरु, अब हमारे पास कोई गाना नहीं बचा है।’ मैं नहीं जानता कि मैं उनसे क्या सुनने की उम्मीद कर रहा था लेकिन उन्होंने बस मुझे देखा, हँसे और कहा, ‘तो फिर थोड़े और बनाओ।’

मैं टीम के साथ मिला और कहा कि हमें कुछ करना पड़ेगा। रात के दस बज रहे थे और हमें अगली सुबह गाना बजाना था। थके होने के बावजूद हम एक नया गीत बनाने के लिए जगे रहे और मुंबई में एक वालंटियर को फोन करके कुछ लिरिक्स लिखने को कहा। हमेशा हमारी मदद के लिए तत्पर और उत्सुक वह भी हमारे साथ पूरी रात जगा रहा और साथ मिलकर हमने शिव द्वारा अर्जुन को अपना अस्त्र देने को लेकर एक गीत तैयार किया। सुबह जब हमने सद्‌गुरु से कहा कि हमारे पास यह गाना है, तो उन्होंने उत्साहपूर्वक कहा कि दूसरे सत्र में वे उससे जुड़ी एक कहानी सुनाएंगे और गीत शुरू करने के इशारे के रूप में हमारे लिए एक पंक्ति बोलेंगे, ताकि संगीत को कहानी में पिरोया जा सके। उन्होंने उस पंक्ति को दोहराया ताकि मैं इशारे को ठीक से समझ जाऊँ।    

इस बैठक के बाद, हम सीधे हॉल में गए और सत्र शुरू हो गया। बाकी टीम को योजना के बारे में अपडेट करना मुश्किल था क्योंकि हम सब म्यूजिक डायस पर बैठे हुए थे लेकिन चूंकि वह गाना दूसरे सत्र में बजाया जाना था, तो मैंने सोचा कि मैं ब्रेक के समय हर किसी को इस बारे में बता दूंगा। लेकिन ऐसा हुआ कि पहले सत्र में ही सद्‌गुरु ने अस्त्र वाली कहानी सुनानी शुरू कर दी। वह उस पंक्ति पर रुके जो म्यूजिक शुरू करने के लिए हमें इशारा था। मैंने उसे सुना, लेकिन सोचा, ‘उन्होंने कहा था कि वह दूसरे सत्र में इसे करेंगे, मैंने जरूर इसे गलत समझा है,’ और चुप रहा। सद्‌गुरु ने पंक्ति दोहराई और ऊपर देखा। फिर मेरी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं थी और मैं इस अवसर से चूक गया। सद्‌गुरु ने कहानी जारी रखी, दर्शकों को भी कुछ पता नहीं चला। फिर मुझे एहसास हुआ कि मैं इशारा पकड़ने से चूक गया था और टीम के रात भर जागने के दृश्य मुझे परेशान करने लगे। मैं यह सोचकर निराश हो गया कि मैं कितना मूर्ख था और कैसे मैंने उनकी सारी कोशिशों पर पानी फेर दिया था।

कहानी के अंत में, सद्‌गुरु ने मुझे देखा, मुस्कराए और बोले, ‘मेरे ख्याल से इनके पास ‘अस्त्र’ के बारे में एक गीत है, चलिए सुनते हैं।’ मैंने खुद को बहुत तुच्छ और उनके प्रति कृतज्ञ महसूस किया कि उन्होंने मेरी गलती के बावजूद हमें गले लगाया था।

एक दिन ‘महाभारत’ के दौरान हमारी सुबह की मीटिंग में, सद्‌गुरु ने कहा कि उन्होंने ‘डेस्टिनी’ (नियति) नाम की एक नई कविता लिखी है और वह हमारे सामने उसे पढ़ना चाहते हैं। सत्र के शुरू होने में कुछ ही मिनट बाकी थे और उन्होंने कोई चर्चा नहीं की थी कि वह किस बारे में बोलने वाले हैं। ‘हम सत्र की प्लानिंग क्यों नहीं कर रहे!’ मैं मन ही मन सोच रहा था, जब वह कविता पढ़ रहे थे, बिना इस चिंता के कि उस दिन के लिए हमारे पास कोई नियत प्लान नहीं था।

लगभग आधे दिन में, एक शॉर्ट ब्रेक के दौरान सद्‌गुरु ने मुझे मंच पर बुलाया और कविता लाने को कहा। फिर उन्होंने प्रश्नोत्तर सत्र शुरू कर दिया। मुझे उनके कमरे में खोजने पर भी उनकी कविता नहीं मिली और मैंने मंच पर वापस जाकर उन्हें बताया, जब वह अगले सवाल से पहले रुके। ‘उनसे कहो कि घर में ढूंढ़ें,’ उन्होंने जल्दी से कहा और फिर सवालों के जवाब देने में लग गए। कुछ मिनटों तक कई लोगों की भारी खोजबीन के बाद, आखिरकार उनकी कार में किताब मिल गई। मुझे वह कविता मिली, मैंने उसे टाइप कराके प्रिंट निकाला और जाकर उन्हें दिया। ‘यह वह कविता नहीं है,’ उन्होंने कहा और फिर अपने काम में लग गए। मुझे एहसास हुआ कि घबराहट में मैंने सुबह उन पर ध्यान नहीं दिया था और एक पुरानी कविता ले आया था, जिसका शीर्षक भी ‘डेस्टिनी’ ही था। मैंने तुरंत नई कविता खोजी और उसे टाइप कराकर प्रिंट किया।

जब उन्होंने एक सवाल का जवाब खत्म किया, तो मैं एक बार फिर से मौके का फायदा उठाकर मंच पर गया और उन्हें कागज सौंप दिया। उन्होंने उसे देखकर सिर हिलाया और मैंने राहत की साँस ली। ठीक उसी समय एक महिला ने एक सवाल पूछने के लिए माइक्रोफोन हाथ में लिया। उसका सवाल था, ‘डेस्टिनी (नियति) क्या है?’

‘आरंभ और अंत जानने के बावजूद, आपको मध्य में खेल खेलना पड़ता है। वरना, कोई खेल नहीं होगा, क्योंकि खेल सिर्फ उस क्षण में होता है।’ – सद्‌गुरु, महाभारत

आर्काइव्स

आश्रम में आने के बाद से मैं आर्काइव्स डिपार्टमेंट का सदस्य भी रहा हूँ जहाँ दूसरी चीज़ों के साथ, हम सद्‌गुरु के सभी वीडियो फुटेज की भी देखरेख करते हैं। पिछले पंद्रह सालों में हमने तकनीक को काफी बदलते हुए देखा है, एनालॉग वीडियो टेप से डिजिटल वीडियो में बदलाव और डाटा का लगातार बढ़ता वॉल्यूम। मैंने इस डाटा को मैनेज करने के लिए सिस्टम्स को एक साथ लाने और उसे हमारे वीडियो पब्लिकेशंस डिपार्टमेंट द्वारा आसानी से एक्सेस करने में सक्षम बनाने में मदद की।

हालांकि डिजिटल युग ने हमें सद्‌गुरु के ज्ञान को उस पैमाने पर पूरी दुनिया तक पहुँचाने में हमें सक्षम बनाया है, जो कुछ साल पहले संभव नहीं था, लेकिन यह अपने साथ नई चुनौतियां लेकर आया है। मैंने अपने समय का एक हिस्सा इन पहलुओं पर विचार करते हुए बिताया है। खास तौर पर इस पर विचार करते हुए कि हम कैसे यह सुनिश्चित करें कि तकनीक और मीडिया फॉरमैट में तेज़ी से हो रहे बदलावों से तालमेल बनाए रखने के लिए हमारे पास जरूरी समझ और तंत्र हों ताकि हम सद्‌गुरु के रिकॉर्डेड शब्दों को बिना बिगाड़े उस तरह से संरक्षित कर सकें कि आने वाली कई पीढ़ियों तक लोग उसे पा सकें।

संघ और सद्‌गुरु

सद्‌गुरु के शिष्य के रूप में ब्रह्मचर्य के मार्ग पर चलने का अवसर मिलना सबसे बड़े सौभाग्य की बात है। जिम्मेदारी के प्रतीक और सहज-स्वाभाविक रूप से दूसरों की खुशहाली को अपनी खुशहाली से ऊपर रखने वाले लोगों के बीच रहना और काम करना विनीत और प्रेरित बनाने वाला अनुभव है। मैं संघ और पूरी दुनिया में आध्यात्मिकता को लाने के सद्‌गुरु के विजन के प्रति खुद को समर्पित कर देने वाले आश्रम के अंदर और बाहर मौजूद सभी ईशा स्वयंसेवकों को प्रणाम करता हूँ।

जब मैंने पहली बार सद्‌गुरु को देखा, मैंने पूरी तरह उन पर भरोसा किया और मैं जानता था कि वह मेरे लिए एक रास्ता और मानवता की समस्याओं का एक जवाब हैं। अब इतने सालों से यहाँ रहकर मैं अक्सर महसूस करता हूँ कि मेरे अंदर उनकी उपस्थिति इस मार्ग पर मेरा मार्गदर्शन करती है। कई बार मैं सोचता हूँ कि क्या मैं वाकई कोई विकास कर रहा हूँ क्योंकि मैं अब भी अपनी बेकार बातों और संघर्षों में उलझ जाता हूँ लेकिन मैं जानता हूँ कि जब तक मैं अडिग हूँ, वह सब कुछ संभाल लेंगे।

मैं नहीं समझता कि सद्‌गुरु वास्तव में कौन या क्या हैं – यह हमारी समझ से परे है लेकिन वह हमारे युग की एक बड़ी घटना हैं। इस धरती पर उनके समय-काल में जीवित होना एक सौभाग्य है, और यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर कही हुई बात नहीं है। अगर मैं उनके विज़न को पूरा करने में एक छोटा सा हिस्सा भी निभा सकूँ, तो मेरा जीवन सार्थक होगा।

ब्रह्मचर्य अपनाने से पहले, सद्‌गुरु ने मुझसे पूछा था कि क्या मैं यह कदम उठाने को लेकर निश्चित हूँ। मैंने कहा, ‘कई बार ऐसा महसूस होता है कि मेरे पास कोई विकल्प नहीं है।’ उन्होंने मुस्कुराकर जवाब दिया, ‘आपके पास विकल्प नहीं है, लेकिन आपको सोचना होगा कि आपके पास है।’ मैं कहूँगा कि यही मेरे सफर का सार है।

आप और मैं

मैं कौन हूँ

नहीं जानता

आप क्या हैं

मुझे अंदाज़ा नहीं।

हम जहाँ हैं

सिर्फ वही सत्य है

आप मुझमें

और मैं आपमें।