सद्‌गुरु एक्सक्लूसिव

श्वेतकेतु की ज्ञान प्राप्ति में उसकी शिक्षा क्यों बनी बाधा?

जानिए एक अद्भुत कहानी जिसमें एक प्रतिभावान नवयुवक को परम सत्य जानने के लिए अपनी सारी शिक्षा गँवानी पड़ी।

सद्‌गुरु: योगिक परंपरा में श्वेतकेतु नामक एक बालक की अद्भुत कहानी है। ‘श्वेतकेतु’ का शाब्दिक अर्थ है सफ़ेद पुच्छल तारा। उसका जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आज ‘ब्राह्मण’ शब्द एक जाति के रूप में सीमित होकर रह गया है, किन्तु मूलरूप से ब्राह्मण का मतलब है, ‘वो जिसने परम तत्व छू लिया है।’ जन्म से ब्राह्मण होने का कोई मतलब नहीं है। अगर आप अपनी चेतना से ब्राह्मण हैं तो वही सब कुछ है। तो जब यह बालक 12 साल का हुआ तो उसे शिक्षा के लिए गुरु के पास १२ वर्षों के लिए भेज दिया गया।

एक शिक्षित मूर्ख बनने के लिए 12 वर्ष बिताए

श्वेतकेतु एक बुद्धिमान बालक था और सब कुछ अच्छी तरह समझता था। वेद, उपनिषद् और ब्रह्म-सूत्र में वो सब कुछ है जो मनुष्य के बारे में और उसके परे कहा जा सकता है, इसीलिए वे इतने ख़तरनाक हैं। 12 वर्ष की शिक्षा के पश्चात गुरु ने उससे कहा, ‘तुम्हारे पास आगे पढ़ने के लिए और कुछ नहीं हैं। जो कुछ भी सीखा जा सकता है वो सब तुमने सीख लिया है। मुझे लगता है कि अब तुम्हे घर लौट जाना चाहिए।’ बालक वापस चला गया। उसके पिता ने उसे देखा और कहा, ‘तुम एक अज्ञानी मूर्ख की तरह वापस आ गए।’ बालक ने उत्तर देते हुए कहा कि उसने सारे वेदों और उपनिषदों का काफी अभ्यास किया है और उन्हें सुना भी सकता है।  

पिता ने कहा, ‘तुमने वो सब जान लिया जो सीखा जा सकता है, लेकिन उसके बारे में कुछ नहीं जाना, जो सीखता है।’ तुम्हारे चलने के तरीके से मैं समझ गया हूँ कि अब तुम बहुत कुछ जान गए हो, लेकिन तुम उसे नहीं जानते जो जानता है। इसलिए तुम अब भी अज्ञानी हो। हम सच्चे ब्राह्मण हैं, केवल जन्म से ब्राह्मण नहीं हैं। अगर तुम यहाँ रहना चाहते हो तो तुम्हें उसे जानना होगा, जो जानता है, न कि उसे जो जाना जाता है। अपने गुरु के पास वापस चले जाओ। वह बालक शिक्षा अर्जन के लिए 12 सालों से घर से बाहर था और अब जब वो शिक्षा प्राप्त कर वापस लौटा, तो शायद उसे उम्मीद होगी कि उसके घर वाले इस उपलक्ष्य में उत्सव मनाएंगे लेकिन उसके पिता ने उसे वापस भेज दिया।

तुम्हे उसे जानना होगा, जो जानता है, न की उसे जो जाना जाता है।

वह बालक दोबारा अपने गुरु के पास गया और बोला, ‘मेरे पिता कहते हैं कि मैं अज्ञानी हूँ। मैं सारे वेद और उपनिषद् जानता हूँ। आपने जो कुछ भी पढ़ाया वो सब मैंने बड़ी निष्ठा से पढ़ा लेकिन मेरे पिता कहते हैं कि मैं अज्ञानी हूँ। वे कहते हैं कि मुझे जानने वाले को जानना चाहिए।’ 

गुरु ने कहा, ‘ओह! तो तुम जानने वाले को जानना चाहते हो। ये तो अच्छा है। इन 12 वर्ष में तुम्हारी रुचि केवल उसमें थी जो जाना जाए, तो मैंने दुनिया में जो कुछ भी जाना जा सकता है वो सब तुम्हें सिखाया। तुमने वो सब सीख लिया तो मैंने तुम्हें घर वापस भेज दिया। अब तुम कहते हो कि तुम जानने वाले को जानना चाहते हो। चलो देखते हैं।’ उनके पास 400 गायें थीं। गुरु ने कहा, ‘इन गायों को लेकर जंगल चले जाओ। उनके साथ रहो। जब वो 1000 हो जाएँ तो वापस आ जाना।’ श्वेतकेतु को यक़ीन नहीं हुआ। वह इतनी ऊँची शिक्षा हासिल कर चुका था और अब उसे एक ग्वाला बनने के लिए कहा जा रहा था।  

गायों के साथ रहकर उसने क्या सीखा

तो श्वेतकेतु जंगल चला गया। शुरुआत में वो बेचैनी और कष्ट से जूझता रहा। उसने सोचा, ‘सबने मुझे अस्वीकार कर दिया और मेरे गुरु ने मुझे ये दंड दे दिया। वो और भी कई चीज़ें सोचता रहा। कुछ हफ्तों और महीनों तक उसका मन भटकता रहा। लेकिन मन को निरंतर भटकने के लिए भी तो आपको उसे कुछ विषय देना होगा। जंगल में कोई विषय नहीं था, तो वो घर और आश्रम में उसके साथ जो कुछ हुआ उसे धीरे-धीरे भूल गया। सारा ज्ञान तभी ताकतवर होता है जब उसे सुनने वाला कोई हो, कोई ऐसा हो जिसके सामने इसका दिखावा किया जा सके। पशु तो सुनेंगे नहीं। धीरे-धीरे उनकी चबाने की आदत इसमें भी समा गई और उसकी 12 साल की शिक्षा क्षीण होने लगी।

समय के साथ वो उन गायों जैसा ही बन गया। उसे जब भूख लगती थी तब वो खा लेता, नहीं तो बस केवल बैठा रहता था। कहते हैं कि उसकी आँखों का आकार भी गायों जैसा हो गया। वो उन गायों जैसा बन गया, लेकिन वास्तव में वो अपने विशुद्ध अस्तित्व में था। अब वह अपने मन का दास नहीं था। जब वह बैठता था तो उसमें भी एक सम्पूर्णता होती थी। जब वह गायों के साथ होता था तब वह भी एक गाय होता था। जब वह एक पेड़ को छूता था तो वह ख़ुद भी एक पेड़ हो जाता था। जब वो धरती पर बैठता था तो ख़ुद भी धरती हो जाता था। क्योंकि मन पर कोई बाहरी प्रभाव नहीं था इसलिए वह एक विशुद्ध उपस्थिति बन गया था। वो भाषा भूल गया, संख्या भूल गया। वह बस केवल वहां मौजूद था।

क्योंकि मन पर कोई बाहरी प्रभाव नहीं था इसलिए वह एक सम्पूर्ण उपस्थिति बन गया था।

एक दिन गायें उसके पास आईं और उसे बताया कि वे 1000 हो गई हैं और अब गुरु के पास वापस जाना चाहती हैं। श्वेतकेतु उनके साथ आश्रम वापस चला गया। आश्रम अब बड़ा हो गया था और शिष्यों की संख्या भी काफी बढ़ गई थी। श्वेतकेतु वहाँ गायों के साथ खड़ा था। सारे शिष्य कौतुहल के साथ गायों को गिनने लगे। उन्होंने गुरु को बताया कि 1000 गायें हैं, गुरु ने कहा, नहीं 1001 गायें हैं। क्योंकि श्वेतकेतु अपना व्यक्तित्व पूरी तरह से खो चुका था। वह एक विशुद्ध उपस्थिति बन गया था।

परम की ओर जाने का मार्ग

हर चीज़ को अपने भीतर इकट्ठा मत करते रहिए। मानव जाति आदिकाल से केवल इकट्ठा करती आ रही है। शुरु में हम केवल भोजन बटोरते थे। फिर धीरे-धीरे पत्थर और छाल जैसी चीज़ें बटोरने लगें। अब हमारी बटोरने की क्षमता असीमित हो गई है। जल्द ही हम दूसरे ग्रहों की वस्तुएँ भी इकठ्ठा करना शुरू कर देंगे। आप कितना भी बटोर लें, आप परम तत्व को जान नहीं सकते। आप जब सारी बटोरी हुई चीज़ों को छोड़कर यहाँ केवल उपस्थित हों तभी ये संभव है। बिना किसी वस्तु के यहाँ उपस्थित होने का मतलब यह नहीं है कि किसी चीज़ को छोड़ देना। अगर आप उन सारे प्रभावों को, जिन्हें आपने शिक्षा, संस्कृति और बाकी कई सारी चीज़ों से इकट्ठा किया है, उन्हें अलग रख दें तब आप देखेंगे कि ज्ञान का परम तत्व आपमें विशुद्ध और असीमित तौर पर मौजूद है।