प्रश्नकर्ता: नमस्कार सद्गुरु! जितना ज्यादा मैं इस बारे में सोचता हूँ मुझे लगता है मैं सच में नहीं जानता कि क्या करूँ और कैसे करूँ? यहाँ तक कि मुझे ये भी नहीं पता कि मैं कुछ चीज़ें क्यों करता हूँ और कुछ दूसरी चीज़ें क्यों नहीं करता। कुछ दिन पहले शायद ये कह सकता था कि मैं बाज़ार के बीच में योगी बनना चाहता था लेकिन यदि आप अब मुझसे पूछेंगे तो मुझे नहीं पता कि अब भी ऐसा है या नहीं। मुझे क्या करना चाहिए?
सद्गुरु: कभी-कभी हर कोई थोड़ा सा ईमानदार हो जाता है, लेकिन यदि मैं आपसे कुछ चीज़ें करने के लिए कहूँ तो आप कल सुबह मुझे ये बताने आ जाएँगे कि आप वो क्यों नहीं कर सके।
‘मैं सच में नहीं जानता’ को थोड़ा और परिपक्व होना चाहिए और आपके भीतर इसे एक संस्कार का रूप ले लेना चाहिए। इसे आपकी हर एक कोशिका में समा जाना चाहिए। तब यदि आप मेरे पास आएंगे तो मेरे पास एक समाधान होगा। वो सारे लोग जो यह सोचते हैं कि उन्हें डॉक्टर बन जाना चाहिए क्योंकि किसी ने 5 साल की उम्र में उनसे ऐसा करने को कहा था, वे मूर्ख हैं। ये बहुत अच्छी बात है कि आप नहीं जानते कि आपको क्या करना है। हो सकता है आपका परिवार ऐसा न सोचे। लेकिन यदि आप वाक़ई एक ईमानदार इंसान हैं, तो आप क्या, कोई भी नहीं जानता कि क्या करना चाहिए।
जब आप ये समझ जाते हैं कि आप नहीं जानते कि जीवन के साथ क्या करना चाहिए, केवल तब आप एक सच्चे खोजी बनते हैं। लेकिन आपने ये खोजना बंद कर दिया है कि ये जीवन किसलिए है। जब आप 12 या 13 साल के थे तब आप जानते थे कि आप क्या करना चाहते हैं – ‘मैं एक खगोलशास्त्री बनना चाहता हूँ। मैं ये बनना चाहता हूँ। मैं वो बनना चाहता हूँ।’ ये सब बस एक तरह का सामाजिक कचरा है। यदि आप एक आदिमानव होते तो आप क्या सोच रहे होते? ‘मैं इसे मारना चाहता हूँ। मैं उसे मारना चाहता हूँ।’ आप नहीं जानते कि आपको क्या करना है क्योंकि आप नहीं जानते कि आप क्या हैं। यदि आप अपने अस्तित्व की प्रकृति नहीं जानते तो आप ये कैसे जान पाएंगे कि आपके कर्मों की प्रकृति कैसी होनी चाहिए। आप खोजी तभी बनते हैं जब आप सच में कुछ भी नहीं जानते।
