आश्रम छोड़ने से पहले मुझसे पूछा गया कि क्या मैं कैलाश दर्शन के (जो अभी होना बाकी था) अपने अनुभव के बारे में एक लेख लिख सकता हूँ। मैं खुशी-खुशी तैयार हो गया - लेकिन लौटने पर, कई दिन पहले जब मैं लिखने बैठा तो एक खाली पन्ने को बस घूरता रहा, समझ नहीं आ रहा था कि क्या लिखना है। जब मैंने उन दो हफ्तों के बारे में कुछ समझने की कोशिश करते हुए अपने दिलो-दिमाग में झाँका, तो मुझे लगा कि वे दो हफ़्ते मेरी समझ से परे थे। उस दौरान कुछ महत्वपूर्ण तो हुआ था, लेकिन मैं उसका कोई मतलब नहीं निकाल पा रहा था।
रूस, यूक्रेन, जर्मनी, यूके, यूएस, कनाडा, चेक गणराज्य, ईरान, लेबनान, नेपाल और भारत सहित दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से तीस प्रतिभागी और पंद्रह स्वयंसेवक आए हुए थे। सद्गुरु के साथ यात्रा करने वाला हमारा छोटा सा दल कोविड प्रतिबंधों के कारण इस साल ईशा से जाने वाला एकमात्र जत्था था। हमें इस बार चीन में प्रवेश करने की अनुमति नहीं थी, इसलिए हमें पूरी ट्रेकिंग नेपाल में करते हुए, नेपाल के पहाड़ों में स्थित एक ऊँचे मैदान से लगभग पचास मील दूर से कैलाश पर्वत के दर्शन करने थे।
मेरी ज़िम्मेदारी थी सद्गुरु के साथ सत्संग के लिए ऑडियो व्यवस्था का ध्यान रखना और साथ ही मैं संगीत टीम का हिस्सा भी था। मुझे ढोल बजाना भी सीखना था - सुबह लोगों को जगाने के लिए, और शाम को उन्हें नचाने के लिए!
शेरपाओं के एक मजबूत दल के साथ हमने नेपाल के पहाड़ों में ट्रेकिंग और ड्राइविंग करते हुए एक सप्ताह से ज्यादा समय बिताया। हम कुछ ऐसे इलाकों से गुज़रे जो अद्भुत रूप से सुंदर थे, जैसा मैंने पहले कभी नहीं देखा था। इस भू-भाग में बहुत कम हरियाली के अलावा एक अलग तरह की सुंदरता थी - कच्चा, ऊबड़-खाबड़ और विशालकाय पहाड़। हम चट्टानों, नदियों और हवा से निकल रही जीवन शक्ति को महसूस कर रहे थे। स्थानीय नेपाली आदिवासी लोगों ने आसपास की प्रकृति को जैसे अपना लिया हो।
मुझे याद है कि सद्गुरु एक बार उनके एक छोटे से समूह की तस्वीर लेने के लिए रुक गए थे। मैं उनके इस व्यवहार से बहुत प्रभावित हुआ। मौसम की मार झेलने वाले लेकिन जीवंत चेहरे - पुरुष और महिलाएं, सरल और आडंबरहीन, लेकिन संतुलन की गहरी भावना के साथ – मेरे ख्याल से वे इस बात से अनजान थे कि उस क्षण उन्हें किसके लेंस में आने का सौभाग्य मिला था।
जैसे-जैसे ट्रेक आगे बढ़ा, लोगों ने अपनी सीमाएँ तोड़नी शुरू कर दीं। वे एकदम साधारण सुविधाओं के साथ भी सहज हो गए, और न तो ठंड और न ही बारिश उनके उत्साह को कम कर पा रही थी। कुछ दिनों के बाद प्रतिभागियों और स्वयंसेवकों के बीच का अंतर धूमिल होता गया, जो भी किए जाने की जरूरत थी, हर कोई उसमें शामिल होता था। सभ्यता के अंतिम चिह्नों को अपने पीछे छोड़कर, पहाड़ों में आगे बढ़ते हुए मैं दल में खुशी और बेफिक्री की एक भावना महसूस कर सकता था।
जैसे-जैसे सद्गुरु की मौजूदगी हमें अपने आग़ोश में समेटते जा रही थी, हम सभी के बीच एक तरह का रिश्ता बनता जा रहा था। धीरे-धीरे मैंने इस यात्रा में शामिल होने वाले उन खुशकिस्मत लोगों के साथ बहुत गहराई से खुद को जुड़ते पाया। वे कुछ खोज रहे थे, लेकिन नहीं जानते थे कि क्या। उनमें से कई अपने क्षेत्रों में सफलता के शिखर पर पहुँचे हुए लोग थे, लेकिन उन्होंने महसूस किया था कि उनके जीवन में अभी भी कोई बुनियादी कमी है। वे सब यह महसूस करते थे कि सद्गुरु उस आयाम तक पहुँचने की एक जीवित संभावना हैं। जानने की उनकी प्यास ने मेरे भीतर फिर से कुछ जगा दिया - ऐसा कुछ जिसे मैंने 24 साल की उम्र में पहली बार आश्रम में आने पर बहुत मजबूती से महसूस किया था, और शायद इतने सालों में वह धीरे-धीरे कम हो चुका था।
जब आखिरकार हम उस व्यू-प्वाइंट पर पहुँचे जहाँ से हमें कैलाश पर्वत के दर्शन होने थे, सद्गुरु ने दीक्षा प्रक्रिया शुरू की। शुरू में आसमान में बादल छाए हुए थे, और जैसे ही सद्गुरु बैठे और दूर निगाह टिका दी, बादल धीरे-धीरे छँट गए और कैलाश पर्वत दिखने लगा। लेकिन जैसे ही दर्शन हुआ, सद्गुरु ने घोषणा की कि मौसम खराब होने वाला है और हमें इस प्रक्रिया को जारी रखने के लिए तुरंत सत्संग टेंट के अंदर जाने की जरूरत है। जैसे ही सद्गुरु ने दीक्षा की प्रक्रिया पूरी की, मेरी आँखों के सामने बर्फ की बौछार होने लगी।
हालाँकि शुरुआती योजना सिर्फ तीन घंटे तक व्यू-प्वाइंट पर रुकने की थी, लेकिन खराब मौसम के कारण सद्गुरु ने कहा कि हम सभी को वहीं रात बिताने की जरूरत पड़ेगी। तापमान शून्य से नीचे था, और हम में से अधिकांश के पास टेंट नहीं थे। सभी को रात में सत्संग वाले टेंट में बैठने के लिए कहा गया, और हम एक साथ दुबककर बैठ गए, गर्मागर्म डिनर का आनंद लेने के लिए हर कोई एक ही बिस्तर पर बैठा था। इस समय आराम और दोस्ती दोनों ही मामले में, हम करीबी स्कूली दोस्तों के ग्रुप की तरह बन गए थे, जो अपने जीवन के बेहतरीन एडवेंचर का आनंद ले रहे थे।
सुबह करीब 3:30 बजे, मैं मंत्रों की आवाज़ से जगा। मैं टेंट से बाहर निकला तो धुंध इतनी गहरी थी कि दूर तक देखना मुश्किल था लेकिन मैं सद्गुरु के टेंट से निकलती रोशनी देख सकता था, और मैंने उन्हें ऊँची आवाज़ में जाप करते सुना:
शिवनागी बंदानो योगेश्वरा
शिव योगेश्वर के रूप में आए हैं
शिवनागी बंदानो भूतेश्वरा
शिव भूतेश्वरा के रूप में आए हैं
शिवनागी बंदानो कालेश्वरा
शिव कालेश्वरा के रूप में आए हैं
शिवनागी बंदानो जगदीश्वरा
शिव जगदीश्वरा के रूप में आए हैं
बंदानो महादेव बहुरूपिया
देवों के देव महादेव कई रूपों में आए हैं
कंदानो कंदानोइजीविया
उसने यह जीवन देखा है
इंजीवनदानो शिव रूपिया
और शिव के रूप में उन्होंने मुझे समा लिया है
तंदानो तंदानो ज्ञानमूर्ता
ज्ञान का रस लाते हुए
कितना पावन पल था जब मैं पहाड़ पर खड़ा, धुंध में तैरते उन कन्नड़ शब्दों को सुन रहा था! मैंने उस जगह पर होने के लिए खुद को बहुत ही धन्य महसूस किया।
17 सालों तक ब्रह्मचारी रहने के बाद, कैलाश सेक्रेड वॉक पर स्वयंसेवा करने का यह मेरा पहला अवसर था। बरसों पहले मैं कभी-कभी सोचता था कि मेरा समय कब आएगा? लेकिन मैंने यह कहकर खुद को समझा लिया था, ‘शिव, जब मैं तैयार हो जाऊँ, तब ही आप मुझे बुलाना, नहीं तो मेरे लिए वह मौका बेकार हो जाएगा।’ तो जब मुझे आने के लिए कहा गया, तो मैं इतना उत्साहित नहीं था, बल्कि थोड़ा हैरान था यह सोचकर कि क्या अब मैं तैयार था?
मेरे पास इसका उत्तर तो नहीं था, लेकिन यह निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि यह यात्रा मेरे लिए बेकार नहीं गई। जिस रात हम व्यू-प्वाइंट से नीचे उतरे, हमने अलाव जलाया। जब मैंने ऐसी बेपरवाही के साथ, जिसे मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था, संगीत की धुन पर खुद को नाचने दिया तो मुझे पता चल गया कि मैंने अपना कुछ पीछे छोड़ दिया है, लेकिन कुछ ऐसा जिसे मैं तार्किक रूप से समझ नहीं पा रहा था। उस क्षण मैं जानता था कि सद्गुरु और कैलाश पर्वत की कृपा से साथी साधकों के इस समूह के साथ जो बंधन जुड़ गया है, वह हमेशा मेरे साथ रहेगा।
आश्रम में लौटने के बाद, जब मैं रात को संघ (ब्रह्मचारियों के रहने का स्थान) लौटने से पहले एक स्वामी से बात कर रहा था, तो वे बोले, ‘कैलाश से वापस आने के बाद आप चमक रहे हैं।’ मुझे खुशी थी कि उन्होंने ऐसा सोचा था, लेकिन मैं खुद इसे इतना स्पष्ट रूप से नहीं देख पा रहा था, हालांकि मुझे अपने भीतर कुछ अलग महसूस हो रहा था। ‘यह अजीब है,’ मैंने कहा, ‘पिछले दो हफ्तों में मुझे नहीं पता कि मैं कितनी साधना करने में कामयाब रहा, और मैं यह भी सोच रहा हूँ कि क्या मुझे कैलाश के दर्शन ठीक से हुए भी थे या नहीं, क्योंकि वह बहुत दूर था और मेरा ध्यान ऑडियो सिस्टम को ठीक रखने की कोशिश करने पर ज्यादा था!’
फिर वह हँसने लगे और अपने अनुभव के बारे में बताया, ‘उन्हीं क्षणों में, जब हम वहाँ नहीं होते, तभी ‘वह’ आते हैं और उस जगह को भर देते हैं।’ और आखिरकार कोई चीज़ मुझे समझ में आई।
[1] ब्रह्मचारियों का निवास स्थान
पहाड़ों का चोर
पहाड़ों का चोर देखता है
अनदेखे को चुपचाप
और जब मेरा घर खाली होता है
वह उतर आता है मुझसे चुराने
अकूत संपत्ति से
लेता है वह थोड़ा सा
उलझन में हूँ, जानता हूँ कि कुछ गायब है
लेकिन क्या, यह ठीक-ठीक नहीं पता
एक सहृदय और अल्हड़ चोर
उसकी अजीब शरारत है
कहते हैं पड़ोसी कि घर में अंधेरा था
मगर अब एक दीप जल रहा है
पहाड़ का चोर हँसता है
ओह, अगर तुम चले जाओगे
आपको किश्तों में लूटने की जगह
यह चुरा लेगा आपका दिल !!