चर्चा में

भोजपुर लिंग की यात्रा : एक अपूर्व अनुभव

कल्पना कीजिए कि यह 1997 का साल है - ध्यानलिंग की प्राण-प्रतिष्ठा से दो साल पहले का समय, और आपको सद्‌गुरु के साथ एक रहस्यमयी यात्रा पर जाना है। ठीक ऐसा ही हुआ था उस ईशा साधक के साथ, जो यहाँ मन को झकझोर देने वाले अपने अनुभव का वर्णन कर रही हैं। तो आप भी समय में वापस जाकर उनके साथ भोजपुर की यात्रा का आनंद लें। भोजपुर एक ऐसी जगह है, जो कभी बहुत सारी रहस्यमयी गतिविधियों का गढ़ हुआ करता था, लेकिन आज वहाँ बस दुखद विफलता के निशान मौजूद हैं।

1994 का साल रहा होगा, जब सद्‌गुरु ने पहली बार भोपाल के पास भोजपुर में एक लिंग के बारे में कुछ जिक्र किया था और वह उस जगह जाना चाहते थे। उन्हें लगता था कि वह लिंग पूजा के लिए नहीं था बल्कि ध्यानलिंग की तरह प्रतिष्ठित किया गया था। विज्जी पूरी तरह से इस विचार के साथ थीं और चाहती थीं कि हम वहाँ जाकर सद्‌गुरु की मौजूदगी में ध्यान करें। लेकिन अफसोस, उनके रहते हुए ऐसा नहीं हो पाया।

सद्‌गुरु, अमेरिका से लौटने के बाद साल 1997 के खत्म होने से पहले भोपाल जाने के लिए बहुत उत्सुक थे। हम बेहद भाग्यशाली थे कि हमें 7 दिसंबर 1997 को अपने गुरु के साथ भोपाल की यात्रा पर जाने का मौक़ा मिला। हम सोमवार की सुबह भोपाल पहुँचे और सीधे भोजपुर चले गए, जो आधे घंटे की ड्राइव पर मौजूद था। क्या यह संयोग था कि वह सोमवार का दिन था, जिसे शिव का दिन कहा जाता है?

एक शानदार संरचना - खंडहर की हालत में

भोजपुर से करीब 10 किमी पहले, कार में अचानक सन्नाटा छा गया। सद्‌गुरु के हावभाव से किसी को कुछ पूछने या बातचीत करने की हिम्मत नहीं हुई। थोड़ी देर बाद, जब हम एक उतराई की तरफ बढ़ रहे थे, तो हमने एक छोटी सी पहाड़ी के ऊपर एक शानदार इमारत देखी। हालांकि इमारत खंडहर बन चुकी थी, फिर भी आलीशान थी, और हमारे मन में कोई संदेह नहीं था कि हम वहाँ पहुँच चुके थे। हमने कार पास की एक पार्किंग में खड़ी कर दी। सद्‌गुरु एकदम शांत थे और उनकी आँखें बंद थीं।ऐसा लग रहा था, जैसे वह किसी दूसरे काल में पहुँच गए हों। ऐसा लग रहा था, जैसे उनका शरीर बहुत शक्तिशाली और पीड़ादायक प्रक्रिया से गुजर रहा था। हमें भी ऐसा लगा, जैसे हवा बहुत भारी हो गई हो और हमें एक गहरी उदासी का एहसास हुआ। हम वहीं कार में बैठे हुए उस जगह को महसूस करते रहे और इंतज़ार कर रहे थे कि सद्‌गुरु अपनी आँखें खोलें और नीचे उतरें। 

स्थान का अद्भुत प्रभाव

सद्‌गुरु ने बहुत धीरे-धीरे अपनी आँखें खोलीं और मुझे उन्होंने अपनी बाईं एड़ी को दबाने के लिए कहा। उनका पैर सख्त था और बहुत ठंडा महसूस हुआ। उन्हें कार से बाहर निकलने में भी परेशानी हुई। फूल बेचने वालों ने हमें घेर लिया था। लेकिन सद्‌गुरु, जो आमतौर पर ऐसे हालतों में अपनी प्रतिक्रिया देते हैं, अपने आस-पास घटित हो रही हर चीज़ से जैसे बेखबर थे। थोड़ी देर बाद, हम धीरे-धीरे पहाड़ी पर चढ़कर उस शानदार खंडहर की ओर बढ़े। यहाँ उदासी की भावना और भी ज्यादा व्याप्त थी।

लिंग विशाल था और लगभग हमारे ध्यानलिंग के बराबर आकार और अनुपात का था। वह भूरे रंग के पत्थर से बना था और एक चौकोर अवुदयार (गौरीपीठ) के ऊपर स्थित था। लिंग टूटा हुआ और सीमेंट से जोड़ा हुआ था लेकिन वैसे अच्छी स्थिति में था। ढांचा अधूरा लग रहा था, जीर्ण-शीर्ण हालत में था और उसकी मरम्मत की जा रही थी।

पीड़ा और उदासी की सदियों पुरानी टीस

जब सद्‌गुरु लिंग की परिक्रमा कर रहे थे, हम बैठकर ध्यान करने लगे। मैं ध्यान में चली गई और मेरी पीठ के निचले हिस्से में एक धीमा सा दर्द उठा। कुछ व्यवधान भी थे, जिनके बारे में कुछ स्पष्ट पता नहीं चल रहा था। फिर हर कुछ मिनट पर, मेरी कमर के निचले हिस्से में तेज़ दर्द उठने लगा जो लहरों की तरह मेरे शरीर में फैल रहा था। उस जगह और माहौल में बहुत उदासी वाली कुछ बात थी। मैं कुछ ही क्षणों तक ‘मैं’ थी, फिर एक नई ऊर्जा मेरे ऊपर हावी हो गई जो एक से दूसरे चक्र में जा रही थी।बहुत तीव्र एहसास, भावनाएँ और संवेदनाएँ जो मेरी नहीं थीं, मेरे अस्तित्व से होकर गुज़र रही थीं। बस मैं सद्‌गुरु को ‘शिव-शंभो’ गाते हुए सुन सकती थी। मेरे शरीर पर हमला करने वाले ये सभी तत्व गायब हो गए, और मेरी रीढ़ की जड़ से मेरे सिर के ऊपर तक एक खोखला खंभा खड़ा हो गया, जिसने मुझे सभी शारीरिक संवेदनाओं से ख़ाली कर दिया। मुझे नहीं पता कि मैं कितनी देर तक ऐसी स्थिति में रही लेकिन मुझे बताया गया कि सद्‌गुरु के बहुत हिलाने-डुलाने पर ही मैं सामान्य स्थिति में आई।

एक असीम मौजूदगी के रूप में सद्‌गुरु का अनुभव

जैसे ही मैंने अपनी आँखें खोलीं, सद्‌गुरु की जगह मुझे एक असीम प्राणी नज़र आया, एक विशाल मौजूदगी, जिसके आगे मैं सिर्फ श्रद्धा और आभार से झुक सकती थी। उन्हें उस शक्तिशाली स्थिति में देखकर एकाएक मेरे अंदर एक डर पैदा हुआ। उन सभी पलों की यादों की बाढ़ मेरे भीतर आ गई, जब-जब मैंने उनकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया था या अनसुना कर दिया था या मैंने उन्हें हल्के में लिया था। मैं इन सभी भावनाओं से निकलना चाहती थी जो मुझे डुबो रही थीं। मैं बस कुछ देर अकेले रहना चाहती थी, इसलिए मैं उस ढांचे के चारों ओर टहलने चली गई।

चार विशाल स्तंभ लिंग के ऊपर एक गुंबद को सहारा दे रहे थे। इसके चारों ओर, बारह स्तंभ गुंबद के चारों ओर एक वर्गाकार छत को सहारा दे रहे थे। स्तंभों पर मूर्तियां खुदी थीं। दिलचस्प बात यह थी कि उकेरी गई उन सभी मूर्तियों में वीरासन में बैठी महिलाएं दिखाई गई थीं। वीरासन एक आसन है जिसमें हम अक्सर अपने ध्यानलिंग के लिए कुछ प्रक्रियाओं के दौरान बैठते हैं।

अजीब किंतु सुंदर अवशेष

वह ढांचा कभी पूरा नहीं हुआ था, यह बात बिल्कुल साफ थी। विशाल पत्थरों को पहाड़ी तक ले जाने के लिए एक विशाल रैंप अब भी था। जगह-जगह आधे-अधूरे पत्थर के टुकड़े बिखरे पड़े थे। चट्टानों की सतहों पर भवन योजना के विस्तृत स्केच बने थे। एक गोल आकार का सुंदर पत्थर का टुकड़ा भी था, एक 16-पंखुड़ियों वाला कमल, जिसके बारे में सद्‌गुरु ने बताया कि इसका उपयोग गुरु पूजा करने और षोडशोपचार (एक गुरु के उपचार के 16 तरीके), के लिए किया जाता था, जैसा कि ईशा में किया जाता है।
इस जगह एक ध्यानलिंग बनाने की जबरदस्त कोशिश हुई थी जो जाहिर है कि कभी पूरी नहीं हुई थी। यहां का वातावरण बहुत ही सुंदर था। यह कैसी जगह होती, अगर यह पूरी हो गई होती। और वह कैसा इंसान रहा होगा जिसने इस जगह का सपना देखा था। एक कोशिश की गई थी और लगभग पूरी हो गई थी, प्राण-प्रतिष्ठा के आखिरी चरण के सिवाय।

शानदार कोशिश का दुखद नतीजा

लगभग एक हज़ार साल पहले, एक बहुत शक्तिशाली योगी ने भोजपुर में ध्यानलिंग बनाने का सपना देखा था और उनके पास साधन भी थे। शायद शुरू में उनके पास एक राजा का पूरा समर्थन भी था। उनके आस-पास ऐसे लोग भी थे, जिनके पास इसके बारे में जरूरी समझ थी। उन लोगों के जीवन को दांव पर लगाते हुए, बहुत वैज्ञानिक तरीके से लिंग की प्राण-प्रतिष्ठा की प्रक्रिया इस महान प्राणी की मौजूदगी में शुरू की गई। 

फिर किसी हमले या समाज में उथल-पुथल की वजह से उत्पन्न हिंसा में योगी का बायां पैर कट गया। इडा [1] (मानव प्रणाली के बाईं तरफ की ऊर्जा का मार्ग) के क्षतिग्रस्त होने पर प्रक्रिया को आगे बढ़ाने में असमर्थ योगी ने लिंग के साथ विलीन होने का चरम कदम उठाया। दुर्भाग्य से, ऊर्जा को लॉक करने का आखिरी चरण अपेक्षानुसार पूरा नहीं हो पाया, जिससे लिंग टूट गया। यह महत्वपूर्ण कोशिश कभी पूरी नहीं हो पाई और यह इस बात का एक और उदाहरण है कि समाज जिन चीज़ों को नहीं समझ पाता, उन्हें स्वीकार नहीं करता। यह शिव की खोज करने वाले लोगों के लिए शिव की परीक्षा भी है।

[1] मानव शरीर की बाईं तरफ मौजूद ऊर्जा की नाड़ी

सद्‌गुरु ने उन दुखद घटनाओं को फिर जिया

हमारे गुरु ने सिर्फ वहाँ मौजूद होकर एक हज़ार साल पहले एक दूसरे योगी के जीवन की घटनाओं को पूरी तरह जिया। उस जगह पहुँचने से भी पहले, इतिहास में उनकी यात्रा ने उनके बाएं पांव को सुन्न कर दिया, मानो वह हो ही नहीं। बाद में, वहाँ टहलते हुए, एक बड़ा सा काँटा उनके बाएं पांव में एड़ी के पास चुभ गया जो उसी घटना की एक हल्की पुनरावृत्ति थी।
वहाँ मौजूद तीव्र ऊर्जा के प्रति असंवेदनशील लोगों को लिंग के सामने पोज़ देते और तस्वीरें लेते देखकर सद्‌गुरु ने कहा, ‘यहाँ जो कुछ हुआ था, उसकी विशालता को अनुभव करने के लिए बस थोड़ी सी संवेदनशीलता चाहिए। भले ही वे अभी कुछ न महसूस करें, लेकिन वे निश्चित रूप से अपने साथ कुछ वापस लेकर जा रहे हैं। यह किसी न किसी रूप में उन्हें छुएगा।’

स्थिति को हल्का बनाना

जब हम नदी की ओर जा रहे थे, तो एक व्यक्ति सारंगी बजा रहा था और गा रहा था। वह अपनी देहाती आवाज के चरम पर गाते हुए और अपनी ही धुन पर नाचते हुए कुछ देर हमारे लिए बजाता रहा। उसने शिव और हमारे गुरु की स्तुति में गीत गाए। जब जाने का समय हुआ, तो सारंगीवाला सद्‌गुरु के चरणों में गिर पड़ा और कहा, ‘आपके लिए गाकर, मैं अपने दुखों से मुक्त हो गया हूँ।’ उसने सद्‌गुरु में शिव को देखा। जब आखिरकार हम वहाँ से चले तो हर किसी ने सद्‌गुरु और उनकी भव्य सुंदरता के आगे सिर झुकाया। हमें ऐसा लगा मानो इस जगह की ऊर्जा सद्‌गुरु को पकड़कर रखने की कोशिश कर रही है, और हमें अतीत की दुखद पकड़ से बाहर निकालने के लिए सारंगीवाले की धुन और नाव की सवारी की जरूरत थी।

हम देर शाम भोपाल लौटे। हल्के नाश्ते के बाद, हम शहर में एक ड्राइव के लिए गए और अंत में शाम की सब्जी मंडी में सैर की। हल्की बूंदाबांदी हो रही थी और हमने भीगने की सारी हिचकिचाहट छोड़ दी। अपने गुरु को एक बच्चे की मासूमियत और जिज्ञासा के साथ बाजार में घूमते देखकर खुशी हो रही थी, वे हमें समझा रहे थे कि आलू उनके पैतृक शहर चिक्कबल्लापुर से आए थे। हमारे लिए यह एक ऐसा अनुभव था जिसे हम कभी नहीं भूल पाएंगे।

हमें अगली सुबह भोपाल से निकलना था। लेकिन हमारी उड़ान 5 घंटे से ज्यादा देर हो गई। हम वापस शहर में गए और शहर के बीचों-बीच मौजूद एक बड़ी झील में नाव की सवारी की। हमने नाविक से कहा कि वह हमें एक छोटे से टापू पर ले चले। वहाँ हम शाह अली शाह बाबा की समाधि पर पहुँचे। वह एक तपस्वी थे, जो एक लंबे समय तक उस छोटे टापू पर पाए जाने वाले कंदमूल को खाकर रहे थे। हमें बताया गया कि सभी धर्मों के लोग वहां अपनी श्रद्धा अर्पित करने आते हैं।

नाव की सवारी और सुबह की ठंडी हवा और नाव पर किए गए ध्यान ने हमारे हौसले बुलंद कर दिए। उस यात्रा से पहले तक, भोपाल हमेशा गैस त्रासदी की भयानक तस्वीरों के लिए हमें याद आता था। लेकिन अब भोपाल मेरे दिल में गहरी श्रद्धा के साथ एक दर्द ले आता है।

- भारती देवी