बिना कुत्ते के नहीं
सद्गुरु: देवलोक के द्वार पर खड़े देवदूत ने कहा, ‘देवलोक में कुत्तों को आने की अनुमति नहीं है।’ युधिष्ठिर ने कुत्ते की ओर देखा, कुत्ते ने युधिष्ठिर की ओर उम्मीद भरी आँखों से देखा। फिर युधिष्ठिर ने कहा, ‘मैं इस कुत्ते को नहीं छोड़ सकता। मैंने उसे बुलाया नहीं, लेकिन वह बहुत लम्बी यात्रा तय करके आया है। मेरी पत्नी और चार भाई, जो मेरे अनुसार सदाचारी पुण्यात्मा थे, वे सब रास्ते में ही गिर गए, क्योंकि वे यहाँ तक आने के योग्य नहीं थे। इस कुत्ते के कर्म ज़रूर कुछ ऐसे होंगे, जिसकी वजह से वह यहाँ तक पहुंच पाया। उसे ठुकराना मेरे बस की बात नहीं है। हम कुत्ते को साथ लेकर आएँगे।’ उन्होंने कहा, ‘हमारे यहाँ कोई कुत्ता नहीं आ सकता है।’
युधिष्ठिर ने कहा, ‘तो मैं भी नहीं जाऊंगा। मैं बस इस पहाड़ पर बैठकर अपना शरीर यहीं छोड़ दूंगा।’ वे बहुत हैरान हुए, ‘क्या! यदि आप अपने कुत्ते को नहीं ला सकते, तो आप ख़ुद भी स्वर्ग में नहीं आएँगे?’ युधिष्ठिर ने कहा, ‘यह मेरा कुत्ता नहीं है। मुझे नहीं पता कि यह किसका कुत्ता है। मुझे बस इतना पता है कि इसने यात्रा की है, इसलिए शायद यह स्वर्ग जाने के योग्य है। इसके लिए फैसला आपको नहीं करना चाहिए।’
युधिष्ठिर की न्याय की प्रबल भावना
युधिष्ठिर का ऐसा करने का कारण उनका कुत्ते से साथ लगाव नहीं था। उन्हें ऐसा लगा कि कुत्ते ने यह लम्बी यात्रा तय की है, इसलिए उसे स्वर्ग जाने के पुरस्कार से वंचित करना अन्याय होगा। यही उनकी धर्म-भावना थी। तो, वे कुत्ते के साथ देवलोक में पहुंचे। युधिष्ठिर ने जो पहली बात पूछी, वह थी, ‘मेरे भाई कहाँ हैं? पांचाली कहाँ है?’ रक्षकों ने कहा, ‘पहले इंद्र की सभा में चलते हैं।’ वे इंद्र की सभा में चले गए, और युधिष्ठिर ने दुर्योधन को अपने स्वाभाविक अहंकार के साथ वहाँ बैठे देखा।
युधिष्ठिर अवाक रह गए, ‘दुर्योधन यहाँ कैसे पहुँच गया है!’ फिर उन्होंने दूसरी तरफ देखा, दुस्शासन और भी अहंकार से वहाँ बैठा था और शकुनि भी वहीं था। लेकिन उनके भाइयों या कर्ण या पांचाली का कोई नामो-निशान नहीं था। उन्होंने कहा, 'यह सही नहीं है। दुर्योधन यहाँ कैसे पहुंचा? हमारे और कई अन्य लोगों के जीवन में इतनी हत्या, इतने दर्द और पीड़ा का वह कारण रहा है। उसे आख़िर यहाँ प्रवेश कैसे मिला? और मेरे भाई कहाँ हैं? मेरी पत्नी कहाँ है?’ उन्होंने कहा, ‘आपके भाई और पत्नी दूसरी जगह हैं।’
युधिष्ठिर ने कहा, ‘मुझे इस सभा में कोई दिलचस्पी नहीं है। पहले मैं वहाँ जाकर देखना चाहता हूँ कि वे कैसे हैं।’ उन्होंने पूछा, ‘क्या आप इंद्र के साथ नहीं बैठना चाहते हैं?’ उन्होंने कहा, ‘नहीं, मेरे लिए इसका कोई मतलब नहीं है। देवलोक में ऐसे प्रमुख स्थानों पर बैठे दुर्योधन, दुस्शासन और शकुनि मुझे पसंद नहीं हैं। मैं अपने भाइयों से मिलना चाहता हूँ।’ इसलिए वे उन्हें एक घुमावदार रास्ते पर ले गए।
नर्क की स्वैच्छिक यात्रा
जैसे-जैसे वे नीचे चलते जा रहे थे, अंधेरा गहरा होता जा रहा था, और धीरे-धीरे युधिष्ठिर को हर तरह की बुरी गंध की महक आने लगी थी, और पीड़ा और दर्द की चीखें सुनाई पड़ने लगीं। यह सब कुरुक्षेत्र की लड़ाई से भी बदतर था। उन्होंने पूछा, ‘यह कौन सी जगह है?’ तभी उन्होंने एक महिला के चीखने की आवाज सुनी। ‘क्या वह पांचाली है? वह चीख क्यों रही है? क्या आप उसे प्रताड़ित कर रहे हैं?’ एक-एक करके उन्होंने अपने सभी भाइयों की आवाजें सुनीं। उन्होंने कहा, ‘जब दुर्योधन और उसका कुल स्वर्ग में हैं तो मेरी पत्नी और भाई नरक में क्यों हैं? यह ठीक नहीं है।’
जो देवदूत उन्हें नीचे ले गए थे, उन्होंने कहा, ‘यह फैसला हम नहीं लेते हैं। धर्म और कर्म का निर्धारण चित्रगुप्त द्वारा किया जाता है, जो सारे हिसाब रखते हैं। अगर आपको यह जगह पसंद नहीं है, तो चलिए वापस चलते हैं।’ उन्होंने कहा, ‘मैं अपनी पत्नी और भाइयों को यहाँ कैसे छोड़ सकता हूँ? मुझे उन्हें अपने साथ ले जाना है।’ देवदूत ने कहा, ‘यह हमारा काम नहीं है। हम ऐसा नहीं कर सकते।’ युधिष्ठिर ने थोड़ी देर तक सोचा और बोले, ‘मुझे देवलोक नहीं जाना है। मैं अपनी पत्नी और भाइयों के साथ नरक में ही रहूंगा।’ उन्होंने पूछा, ‘क्या आपको पूरा यकीन है?’ उन्होंने कहा, ‘हाँ, मैं यहीं रहूंगा।’
दैवीय हस्तक्षेप
तब इंद्र स्वयं प्रकट हुए और बोले, ‘आपकी न्याय की भावना ऐसी है जिसकी हम वास्तव में सराहना करते हैं। दुनिया में आपके जैसा कोई दूसरा आदमी नहीं है, लेकिन आपने अभी भी दुर्योधन और उसके भाइयों के लिए अपनी नफरत नहीं छोड़ी है। जब आपने उन्हें स्वर्ग में देखा तो आप दंग रह गए। जब आपकी पत्नी और भाई पहाड़ से गिरे तब आपने पीछे मुड़कर नहीं देखा। आपमें इतना वैराग्य था। लेकिन जिस क्षण आपने दुर्योधन, दुशासन और शकुनि को देवलोक में बैठे देखा, आपमें सब कुछ फिर लौट आया। जब तक आप अपनी नफ़रत नहीं छोड़ेंगे, तब तक आप और आपके भाई यहाँ नहीं आ पाएंगे।’
जय!
युधिष्ठिर वहीं पाल्थी लगाकर बैठ गए, अपने भीतर देखा, और पाया कि उनमें घृणा के बीज दबे हुए थे, लेकिन ख़त्म नहीं हुए थे। वे बीज कभी भी अंकुरित हो सकते थे, यदि हालात उन्हें पोषित कर दें, और फिर से युद्ध हो सकता था, चाहे किसी अन्य रूप में ही क्यों न हो। इसलिए उन्होंने अपने भीतर घृणा के बीज को नष्ट कर दिया। जब वह ऐसा करने में कामयाब हुए, तो सभी देवता उसके पास आए और कहा, ‘जय!’
जीत दो तरह की होती है। एक है - ‘विजय,’ जिसका अर्थ है किसी बाहरी चीज पर विजय हासिल करना। भौतिक संसार में सफलता - चाहे वह अध्ययन हो, शिल्प में महारत हो या किसी देश पर हासिल जीत हो - विजय कहलाती है। लेकिन जब आपने अपने भीतर की सभी बाधाओं को पार कर लिया और आंतरिक जीत हासिल करने में कामयाब रहे, तो वह है - ‘जय।’ युधिष्ठिर ने कुरुक्षेत्र युद्ध के माध्यम से विजय प्राप्त की, लेकिन इससे उन्हें कहीं भी मुक्ति नहीं मिली। जब उन्होंने नकारात्मकता के हर बीज पर विजय प्राप्त की और अपने भीतर की हर छोटी बाधा को पार किया, तो यह उनकी जय थी।
आगे क्या होगा? क्या युधिष्ठिर अंततः स्वर्ग जाएंगे? जानने के लिए पढ़ें ईशा लहर का अगला अंक।