जीवन के प्रश्न

क्या जीवन को हम बना सकते हैं पर्फ़ेक्ट?

सुन्दरता क्या है? जीवन को पूर्णता में जीने के लिए क्या हमें ‘पर्फ़ेक्ट’ होने की कोशिश करनी चाहिए? सद्‌गुरु शंकर पिल्लई और रविंद्रनाथ टैगोर की कहानियाँ सुनाते हुए रोचक तरीक़े से अपने उत्तर को स्पष्ट करते हैं।

क्या कोई पर्फेक्ट हो सकता है?

सद्‌गुरु: कुछ समय पूर्व, भारत में एक प्रसिद्ध महिला ने मुझसे पूछा, ‘सद्‌गुरु, क्या आप एक पर्फ़ेक्ट गुरु हैं?’ मैंने पूछा, ‘क्या आप एक पर्फ़ेक्ट जिज्ञासु हैं?’ वे बोलीं, ‘मुझे ऐसा नहीं लगता।’ फिर मैंने पूछा, ‘क्या आप एक बेकार जिज्ञासु हैं?’ वह बोलीं, ‘नहीं सद्‌गुरु, मैं इस मामले में गंभीर और ईमानदार हूँ। मैं सच में जानने की इच्छा रखती हूँ।’ मैंने कहा, ‘ठीक है, अगर आप एक जिज्ञासु हैं, तो देखते हैं कि हम क्या कर सकते हैं। जब आप पर्फ़ेक्ट बन जाएंगी, तब मैं भी आपके लिए कुछ पर्फ़ेक्ट चीज करूंगा।’

ये ‘पर्फ़ेक्ट गुरु’ की धारणा लोगों के मन में कुछ आध्यात्मिक किताबें पढ़ने की वजह से आई है। जीवन में जो भी पर्फ़ेक्शन की तलाश कर रहा है, वह दरअसल नहीं जानता कि जीवन है क्या? अगर जीवन पर्फ़ेक्ट होता, तो क्या ये विकसित हो पाता? अगर आप पर्फ़ेक्ट होते, क्या आप विकास करते?’ पर्फ़ेक्शन का मतलब अनजाने में मरे हुए जैसा हो जाना है। मृत्यु हमेशा पर्फ़ेक्ट होती है। क्या आपने कभी किसी को आधे-अधूरे तरीक़े से मरते देखा है? लेकिन हर व्यक्ति आधा-अधूरा जीवन जी रहा है। जो कोई भी जीवन के प्रति खुला है, वह जानता है कि पर्फ़ेक्शन संभव ही नहीं है। आप जो भी करें, उसे उससे बेहतर करने की संभावना हमेशा रहती है।

एक बार ऐसा हुआ। शंकरन पिल्लै ने एक फ्रेंच मॉडल से विवाह किया। शादी के बाद उन्होंने वापस यूरोप जाने का फैसला किया। उसने देखा कि पत्नी ने सात बड़े सूटकेस, तीन बड़े-बड़े मेकअप केस, और भी कई चीजें पैक कर ली हैं। हर चीज़ एक बड़ी सी गाड़ी में भरकर वो एयरपोर्ट गए। शंकरन पिल्लै सब सामान निकालकर एयरलाइन काउंटर तक गया। फिर वो वापस मुड़ा और बोला, ‘काश मैं पियानो भी ले आया होता।’ पत्नी बोली, ‘तुम्हें मेरा मज़ाक़ उड़ाने की जरूरत नहीं है।’ उसने कहा, ‘अरे नहीं, मैंने टिकट पियानो पर ही रखा था।’

केवल मृत लोग ही पर्फ़ेक्ट होते हैं

अगर आप समझदार और खुले विचारों के हैं, तो आपको हमेशा लगेगा कि ओह! मैंने एक और काम कर लिया होता। लेकिन अगर आप ख़ुद से भरे हुए हैं, तो आपको लगेगा कि आप पर्फ़ेक्ट हैं। जब आप पर्फ़ेक्शन खोजने लगते हैं, आप जीवित से अधिक मरे हुए को महत्व देने लगते हैं। जीवित लोगों की तुलना में अक्सर मरे हुए लोगों के अधिक प्रशंसक होते हैं, क्योंकि वे पर्फ़ेक्ट लगते हैं।

जब आदियोगी जीवित थे, तब उनके केवल सात अनुयायी थे। जब कृष्ण जीवित थे, तब उनका केवल एक अनुयायी था। जब जीसस जीवित थे, तब उनके पास केवल बारह शिष्य थे, और उनमें से एक ने उन्हें धोखा भी दिया। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद आज देखिए उनके अनुयायियों की संख्या कितनी है! क्योंकि जब वे मर गए, वे पर्फ़ेक्ट लगने लगे।

गुज़रे लोगों की तारीफ़ करना बहुत अच्छी बात है, लेकिन आप उनके पीछे-पीछे नहीं चल सकते, क्योंकि अगर आप ऐसा करना चाहेंगे, तो आपको मरना होगा। चूँकि आप मरने के लिए तैयार नहीं है, इसलिए आप उनके वापस आने की बात करने लगते हैं। मैं अमेरिका में हर जगह ये होर्डिंग देखता हूँ – ‘जीसस आ रहे हैं।’ भारत में लोग अक्सर कहते हैं, ‘कृष्ण फिर अवतार लेंगे।’ यह सब इसीलिए क्योंकि आपको गुज़र गए लोग पसंद हैं। जब वे जीवित थे तब वे कितने भी अद्भुत क्यों न रहे हों, वे मुश्किल से मुट्ठीभर लोगों को ही प्रभावित कर पाए। लेकिन, जब वो मृत्यु को प्राप्त हो गए, उनकी क्षमता तो देखिए! कभी-कभी तो मुझे लगता है कि अब मुझे चले जाना चाहिए क्योंकि ऐसा लगता है कि ये अधिक काम करेगा!

सुंदरता की नज़र

मरे लोगों के प्रति यह आकर्षण इसलिए भी है क्योंकि इस बात की निश्चितता होती है कि मरे हुए लोग कभी गलती नहीं करेंगे, जबकि जीवित लोग गलतियाँ कर सकते हैं। ‘ओह सद्‌गुरु, क्या आप मेरे साथ गलती करने वाले हैं?’ सवाल ये नहीं है। मुझे पता है क्या करना है और क्या नहीं करना है पर मैं यक़ीनन पर्फ़ेक्ट नहीं हूँ, क्योंकि मैं जो भी करता हूँ, मैं हमेशा सोचता हूँ कि और बेहतर किया जा सकता था। पूरी आध्यात्मिक प्रक्रिया अपने भीतर ऐसे मुक़ाम पर पहुँचने की है जहाँ आप बैठें, साँस लें, खाएँ, न खाएँ, आँखे खुली रखें या बंद - हर चीज़ सुन्दर बन जाती है। हर चीज़ इसलिए सुन्दर नहीं हो जाती क्योंकि बाहर कुछ बदल गया है, बल्कि आप ‘न ये, न वो’ बन गए हैं। इसलिए आप ‘ये और वो’ नहीं देखते - आप बस जीवन को सुन्दर रूपों में आकार लेते देखते हैं।

हर चीज़ एक बराबर सुन्दर है। फिर आप कहेंगे कि सुन्दरता का मतलब ही क्या है? अगर कोई चीज़ बदसूरत न हो तो सुन्दरता का अस्तित्व ही कैसे रहेगा? यह जीवन का एक स्तर है, जहाँ जीवन एक ख़ास संदर्भ में ही घटित होता है। अगर आप अपनी ज्ञानेंद्रियों की सीमाओं में जी रहे हैं, तो हर चीज़ को एक संदर्भ की जरूरत है, तुलना की ज़रूरत है। अगर कोई चीज स्वादिष्ट है तो इसका मतलब है कि किसी न किसी दूसरी चीज़ का बेस्वाद होना ज़रूरी है, यदि किसी चीज़ को आनंदमय होना है तो किसी दूसरी चीज़ को दयनीय होना होगा।

लेकिन जब आपकी अनुभूति में आप ‘यह या वह’ नहीं रह जाते तब अचानक हर चीज़ सुन्दर हो जाती है। नहीं तो अपने पूर्वाग्रह के अनुसार आप तुलना करके देखते हैं कि कि क्या सुन्दर है और क्या नहीं। यहाँ तक कि इंसानों के बीच भी, विभिन्न संस्कृतियों में अलग-अलग तरह के लोग सुन्दर कहे जाते हैं।

टैगोर का सौंदर्य दर्शन

रबीन्द्रनाथ टैगोर के साथ, जो एक नोबल-पुरस्कार विजेता कवि थे, ऐसा ही हुआ। संसार में बहुत कम लोग हैं जो कविता को समझकर उसका आनंद ले सकते हैं। बिरले लोग ही शब्दों, विचारों और अभिव्यक्तियों के इस तर्क-विहीन खेल की सुन्दरता को देख सकते हैं। किसी कवि को नोबल-पुरस्कार मिलना असामान्य बात है पर रवीन्द्रनाथ टैगोर को उनकी कविताओं के लिए नोबल-पुरस्कार मिला। उन्होंने भारत के लिए राष्ट्रगान भी लिखा, जो सबसे ख़ूबसूरत रचनाओं में से एक है जिसकी आप कल्पना कर सकते हैं।

एक कवि होने के नाते वो सुन्दरता को अपने मन और शब्दों में समेट लेना चाहते थे। उन्होंने सुन्दरता के बारे में बहुत अध्ययन किया। सौंदर्य की प्रकृति के ऊपर उन्होंने कई चर्चाओं तथा वाद-विवाद में भाग लिया। एक दिन, उनके हाथ सौंदर्य लहरी नाम की पुस्तक आई जो कि हजार साल पहले आदि शंकर द्वारा लिखी गई थी। सौंदर्य लहरी का शाब्दिक अर्थ है सौंदर्य की लहरें। वो नदी किनारे एक छोटी सी कुटिया में रह रहे थे ।

वह पूर्णिमा की रात थी, और वे एक मोमबत्ती की रोशनी में सौंदर्य लहरी पढ़ रहे थे, और सौंदर्य की धारणा को समझने की कोशिश कर रहे थे। वो समझ नहीं पा रहे थे, तो वो झल्ला गये और फूंककर मोमबत्ती को बुझा दिया। जैसे ही उन्होंने मोमबत्ती बुझाई, खिड़की और खुले दरवाजे से चंद्रमा की रोशनी अंदर आई और सुन्दरता उनके सामने थी। वे तेजी से दरवाजे से बाहर गए और देखने लगे – बिखरी हुई चाँदनी, सामने फैला जंगल, बहती नदी, नदी में दिखती चाँद की छवि - हर चीज़ अद्वितीय रूप से सुन्दर थी। बस उस दिन से उन्होंने सुन्दरता की तलाश बंद कर दी, क्योंकि उनकी आँखे खुल गईं थीं, और वे जीवन को उसी रूप में देखने लगे जैसा वो है।

चीज़ो को सुन्दर और असुन्दर, अच्छे या बुरे, ऊँचे या नीचे की दृष्टि से देखने से ही सभी द्वैत-भाव उभरते हैं। अगर आप सब चीज़ों को उसी रूप में देखें, जैसी वे हैं, तो हर चीज़ गूढ़ और सुन्दर है।