सद्गुरु : हम अभी तक इस स्थिति में नहीं हैं कि पूरी मानव जाति को एक इकाई के रूप में संभाल सकें। राष्ट्र वह सबसे बड़ी इकाई है जिसके ज़रिए मानव जाति के एक बड़े हिस्से को संभाला जा सकता है। जब हम ‘भारत’ कहते हैं, तो हम 140 करोड़ लोगों की बात कर रहे होते हैं। यह मानव जाति का एक बहुत बड़ा हिस्सा है। दरअसल, राष्ट्र निर्माण का मतलब इन लोगों की ख़ुशहाली है। अगर पश्चिमी पैमाने से देखें तो लोगों की खुशहाली को जी.डी.पी., आय, संपत्ति आदि के आधार पर तय किया जा सकता है।
दरअसल, राष्ट्र निर्माण का मतलब लोगों की ख़ुशहाली है
अब अगर इसे दूसरी तरह से देखें तो हम अपने जीवन में जिन भी भौतिक चीज़ों का इंतज़ाम करते हैं वो केवल हमारी सुख-सुविधा और आराम के लिए हैं। उससे खुशहाली नहीं आएगी। दुनिया का सबसे अमीर और समृद्ध देश अमेरिका, इसका सबसे अच्छा उदाहरण है। अभी, करीब 46% अमेरिकन को जीवन के किसी न किसी पड़ाव पर मानसिक बीमारी का सामना करना पड़ रहा है।
किसी भी व्यक्ति, समाज, या राष्ट्र को सुख-समृद्धि की चाह इसलिए होती है ताकि उसके पास अपने भरण-पोषण के लिए अधिक विकल्प हों, जिससे उसके पास चुनने की सुविधा हो। एक बार भरण-पोषण की व्यवस्था हो जाने के बाद यह चाहत जीवन-शैली के चुनाव की हो जाती है। दुनिया का सबसे अमीर देश, जिसके पास भोजन और जीवन शैली के चुनाव की कई सुविधाएँ हैं, वहाँ लोगों को बहुत अधिक शारीरिक एवं मानसिक समस्याएँ हैं। इसका मतलब साफ़ है कि भौतिक सुख-सुविधाओं से खुशहाली नहीं आती है।
यदि हमारे जैसा राष्ट्र, जिसके पास 140 करोड़ की आबादी और उपजाऊ ज़मीन है, पश्चिमी तरीकों की नकल करता है तो वो कारगर नहीं होगा।
अगर हम वास्तव में खुशहाली चाहते हैं तो हमारे लिए यह बहुत ज़रूरी है कि भारत पश्चिमी तरीके को न दोहराए। हमें अपना तरीका खोजना होगा। इस देश में लोगों की खुशहाली का मतलब है - पहली चीज पौष्टिक आहार, शुद्ध हवा, शुद्ध जल, उपजाऊ मिट्टी, शांत और ख़ुशहाल मन और, निश्चित रूप से वे इंतज़ाम जो धन-संपत्ति से हो पाते हैं। इन चीज़ों की व्यवस्था करने की ज़रूरत है।
यदि हमारे जैसा राष्ट्र, जिसके पास 140 करोड़ की आबादी और उपजाऊ ज़मीन है, पश्चिमी तरीकों की नकल करता है तो वो कारगर नहीं होगा। अमेरिकन और यूरोपियन मॉडल साम्राज्यवाद के दौरान विकसित हुए। साम्राज्यवाद बस एक अच्छा शब्द है, जो कहता है - ‘केवल अपने लोगों का पेट भरने के लिए, बाकी दुनिया के संसाधनों को लूट लो।’ यह मॉडल अब अतीत की बात हो गई है।
अब, सारी दुनिया सुखी रहना और अपनी जनता का भरण-पोषण करना चाहती है। इसलिए, ये बहुत जरूरी है कि हममें इतना लचीलापन रहे कि हम फिर से ख़ुद को बेहतर स्थिति में ला सकें। इसका ये मतलब नहीं कि हम दुनिया के लिए अपने दरवाज़े बंद कर रहे हैं, हमें अपने द्वार दुनिया के लिए खोलने ही चाहिए पर हमें ख़ुद में वापस उठने की लचक रखनी होगी। आत्म-निर्भर होना और अपने विकास के लिए लचक रखने का मतलब एक बंद अर्थव्यवस्था होना नहीं है।
हमें खुली लेकिन लचीली अर्थव्यवस्था बनने की ज़रूरत है। खासकर इस महामारी के समय में जब कोई भी चीज़ कुछ महीनों में ही पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो सकती है, ये विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। हम देख चुके हैं कि वे अर्थव्यवस्थाएँ जो बहुत बड़ी और सफल मानी जाती थीं, कैसे तीन महीने के अंदर ही अस्त-व्यस्त हो गईं। अगर तीस चालीस, पचास सालों के काम तीन महीनों में ही नष्ट हो सकते हैं, तो स्पष्ट है कि मानव-कल्याण या राष्ट्र-कल्याण के निर्माण का यह सुरक्षित तरीका नहीं है।
हमें खुली लेकिन लचीली अर्थव्यवस्था बनने की ज़रूरत है।
दरअसल, राष्ट्र एक आधार है जिसके बिना हम आज की दुनिया में काम नहीं कर सकते। राष्ट्र हमें कुछ निश्चित नियम-कानून, निश्चित संरक्षण और एक निश्चित अवसर देता है। अगर हम व्यक्तिगत रूप से, पारिवारिक रूप से, सामूहिक रूप से, राज्य के तौर पर और अंततः एक राष्ट्र के रूप में फलना-फूलना चाहते हैं, तो राष्ट्र के इस ढाँचे को स्थिर और मजबूत होना ही चाहिए।
हमारी व्यक्तिगत खुशहाली के लिए राष्ट्रवाद के रूप में एक मज़बूत आधार का निर्माण करना बहुत महत्वपूर्ण है। हर इंसान को ये समझना चाहिए। अपना काम करने के लिए राष्ट्र आपको जितनी भी इजाज़त देता है उसका महत्व समझकर आपको उसकी इज्ज़त करनी चाहिए। अगर हमारे पास राष्ट्र के रूप में एक मज़बूत आधार न हो, तो हमारा पूरा जीवन तुच्छ और अंतहीन संघर्षों में बेकार चला जाएगा। एक राष्ट्र का मतलब है कि वहाँ कुछ नियम-कानून और व्यवस्थाएँ हैं ताकि एक दूसरे के साथ अनबन किए बिना हम सब अपने रोजाना के काम सुचारु तरीक़े से कर सकें।
जिस भी तरह हो सके, हम सबको इसमें योगदान देना ही चाहिए, क्योंकि एक राष्ट्र की स्थिरता हमारे अस्तित्व के लिए बहुत ज़रूरी है।
चाहे आप एक बुद्धिजीवी हों, या फिर कवि, चित्रकार, योगी या कुछ और हों, योगदान देना आपकी जिम्मेदारी है, क्योंकि राष्ट्र आपको एक मंच दे रहा है जिसके बिना आप अपना काम नहीं कर सकते। जिस भी तरह हो सके, हम सबको इसमें योगदान देना ही चाहिए, क्योंकि एक राष्ट्र की स्थिरता हमारे अस्तित्व के लिए बहुत ज़रूरी है।
एक महत्वपूर्ण चीज़ जिसका हमने इस संस्कृति में ध्यान रखा है, वो है, व्यक्ति विशेष यानी इंडिविज़ुअल। बिना स्वस्थ व्यक्ति के, कोई स्वस्थ राष्ट्र नहीं बन सकता। बिना सशक्त लोगों के, कोई राष्ट्र सशक्त नहीं हो सकता। बिना योग्य व्यक्तियों के, कोई राष्ट्र योग्य नहीं हो सकता। बिना समृद्ध व्यक्तियों के, कोई राष्ट्र समृद्ध नहीं हो सकता।
इसलिए व्यक्ति विशेष पर ध्यान देना आवश्यक है, क्योंकि सबसे बड़ी संपदा जो अभी हमारे पास है, वो हैं इंसान। हमारे पास एक बड़ी आबादी है और उसमें भी एक बड़ा हिस्सा पैंतीस वर्ष से कम उम्र के लोगों का है। यही समय है राष्ट्र के निर्माण का। यदि हमें राष्ट्र का निर्माण करना है तो हमें ऐसे लोगों का निर्माण करना होगा, जो मज़बूत भी हों और इतने लचीले हों कि किसी भी हालात से वापसी कर सकें। ऐसे युवाओं को तैयार करना जो प्रेरित, केन्द्रित, संतुलित और सक्षम हों, बेहद ज़रूरी है। अगर हम ऐसा करते हैं तो 140 करोड़ लोग एक अद्भुत चमत्कार बन जाएंगे।
ज़मीन का एक टुकड़ा राष्ट्र नहीं बनता है - ये लोग हैं जो राष्ट्र का निर्माण करते हैं।
बिना व्यक्ति विशेष को विकसित किए, हम राष्ट्र का निर्माण नहीं कर सकते। ज़मीन का एक टुकड़ा राष्ट्र नहीं बनता है - ये लोग हैं जो राष्ट्र का निर्माण करते हैं। इस दिशा में कदम उठाने की ज़रूरत है। इस महामारी के दौरान यहाँ-वहाँ कई जगह आपको कमियाँ दिख सकती हैं, पर हमारे जैसी बड़ी आबादी के लिए, हमने अविश्वसनीय रूप से अच्छा काम किया है। भारतीय जनता को नमन, पुलिस बल, स्वास्थ्य कर्मचारियों और नागरिकों ने लाकडाउन को सफल बनाने के लिए शानदार काम किया है।
जब संकट के दौरान लोगों में इतना अनुशासन है, तो हमें इस महामारी का उपयोग एक सुदृढ और लचीले जनसमुदाय का निर्माण करने में करना चाहिए जो एक मज़बूत और लचीले राष्ट्र के निर्माण के लिए ख़ुद को प्रतिबद्ध कर सकें। बिना जनता को तैयार किए, कोई राष्ट्र-निर्माण नहीं हो सकता।
कोई भी दूसरी संस्कृति इस हद तक मानवता की गहराई में नहीं गई है, जैसी यह संस्कृति गई है। इस संस्कृति ने इसे एक विज्ञान के रूप में देखा है, यहाँ समझ का एक ऐसा ऊँचा स्तर विकसित किया गया जिससे मानव को उसकी चरम प्रकृति तक विकसित होने के लिए तरीक़ों का निर्माण हो सका। हम जानते हैं कि यदि आप कुछ निश्चित चीज़ें करेंगे तो हर इंसान में कुछ निश्चित परिणाम मिलेंगे। मोटे तौर पर कहें तो हमारे पास आत्मज्ञानी मनुष्य बनाने की तकनीक है।
अगर हम वास्तव में दुनिया में भारत का उत्थान चाहते हैं, तो इसका सबसे आसान रास्ता अपने ज्ञान के रास्ते आगे बढ़ना है।
कई पीढ़ियों तक लाखों लोगों ने इस आयाम में अपना जीवन अर्पित किया, जिसके कारण एक ख़ास स्तर की निपुणता हासिल हो पाई। अगर हम वास्तव में दुनिया में भारत का उत्थान चाहते हैं, तो इसका सबसे आसान रास्ता अपने ज्ञान के रास्ते आगे बढ़ना है। भले ही आप किसी भी मायने में ज्ञानी न हों, भले ही आपको कुछ भी अनुभव हासिल न हुआ हो, लेकिन फिर भी केवल संचित ज्ञान ही काफ़ी ज़बरदस्त है। अभी अगर आप अमेरिका या जर्मनी को देखें तो वहाँ कॉलेज का हर प्रोफेसर वैज्ञानिक नहीं होगा, पर वहाँ बहुत अधिक संचित ज्ञान है। केवल उसके बल पर वे महाशक्ति बन गए हैं।
भारत के पास बहुत अच्छा अवसर है, लेकिन हमारे अंदर इसे लपक लेने की इच्छा शक्ति और चुस्ती होनी चाहिए। इस महामारी के दौरान कई लोगों ने अपने संबंधियों एवं मित्रों को खो दिया है। लेकिन जो कुछ बनाना चाहते हैं, जो राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं, उनके लिए शोक मनाने का समय नहीं है। भारत में एक कहावत है- एक राजा के पास शोक के लिए समय नहीं होता है। यानी उसके चारों ओर लोग चाहे मृत्यु को प्राप्त हो जाएँ, लेकिन उसके जो कर्तव्य हैं, उनका उसे पालन करते रहना होगा।
भारत के पास बहुत अच्छा अवसर है, लेकिन हमारे अंदर इसे लपक लेने की इच्छा शक्ति और चुस्ती होनी चाहिए।
अभी हम एक लोकतंत्र हैं, इसका मतलब हममें से हर कोई एक राजा है। लोकतंत्र के लिए तमिल शब्द है, जननायकम - जिसका मतलब है जनता ही नायक यानी लीडर है। अब हम सब किसी न किसी रूप में राजा हैं, हम सब लीडर हैं। हम अभी तक ऐसा राष्ट्र हैं जहाँ बड़े पैमाने पर कुपोषण है, बड़े पैमाने पर बाल-मृत्यु-दर है और बहुत से लोग अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा नहीं कर पा रहे हैं। यदि हम इसका समाधान इसी पीढ़ी में करना चाहते हैं तो शोक मनाने के लिए समय नहीं है।
हमें आगे देखना ही होगा कि कैसे एक राष्ट्र का निर्माण किया जाए जिस पर हम सभी को अभिमान हो, एक राष्ट्र जो इसमें रहने वाले हरेक व्यक्ति की देखभाल कर सके।