सद्गुरु: लिंग शब्द का मतलब है “आकार”। हम इसे “आकार” इसलिए कह रहे हैं क्योंकि जो अप्रकट है, वो जब खुद को प्रकट करने लगता है, या दूसरे शब्दों में कहें तो जब सृष्टि की उत्पत्ति शुरु हुई तो जो सबसे पहला आकार इसने लिया था, वो एक दीर्घवृताकार था । एक पूर्ण दीर्घवृत्त या इल्लिप्स को हम एक लिंग कहते हैं। सृष्टी की शुरुआत हमेशा एक दीर्घवृत्त या एक लिंग के रूप में हुई और उसके बाद ये कई रूपों में प्रकट हुई। और हम अपने अनुभव से यह जानते हैं कि जब आप ध्यान की गहरी अवस्था में जाते हैं तो पूर्ण विलीन होने वाला बिंदु आने से पहले ऊर्जा एक बार फिर एक दीर्घवृत या एक लिंग का रूप ले लेती है। तो इस तरह से सबसे पहला आकार भी लिंग है और सबसे आखिरी आकार भी लिंग है।
“ज़रूरी तकनीक से, एक साधारण जगह, यहां तक कि एक पत्थर के टुकड़े को एक दिव्य जीवंतता में तब्दील किया जा सकता है। यह ईश्वरत्व को स्थापित करने की प्रक्रिया है।” - सद्गुरु
सद्गुरु: अगर आप मुझे कोई चीज़, मान लीजिए कि एक कागज़ का टुकड़ा देते हैं तो मैं उसे अत्यधिक ऊर्जावान बनाकर आपको वापस दे सकता हूं। अगर आप मेरे छूने से पहले और छूने के बाद इसे पकड़ेंगे तो आप दोनों के बीच का अंतर महसूस कर पायेंगे। लेकिन एक कागज़ इस ऊर्जा को बनाए नहीं रख सकता है। लेकिन अगर आप एक सही लिंग आकार बनाते हैं तो ये ऊर्जा का एक असीमित भंडारगृह बन जाता है। एक बार आप इसे प्रतिष्ठित कर देते हैं, तो ये हमेशा वैसा ही रहेगा।
सद्गुरु: प्रतिष्ठा का अर्थ है, ईश्वरत्व को स्थापित करना। इस तरह की स्थापना का जो सबसे सामान्य तरीका है, वो है मंत्रों, अनुष्ठानों तथा अन्य प्रक्रियाओं का इस्तेमाल करना अगर आप किसी आकार की स्थापना या प्रतिष्ठा मंत्रों के माध्यम से करें, तो आपको उस देवता को जीवंत बनाए रखने के लिए उसके निरंतर रख रखाव की ज़रूरत होती है।
प्राण-प्रतिष्ठा ऐसी प्रक्रिया नहीं है। जब एक आकार की प्रतिष्ठा या स्थापना जीवन ऊर्जाओं के माध्यम से की जाती है, न कि मंत्रों या अनुष्ठानों से, तो जब यह एक बार स्थापित हो जाए, तो यह हमेशा के लिए रहता है। इसे किसी रख-रखाव की आवश्यकता नहीं पड़ती। यही कारण है कि ध्यानलिंग में पूजा नहीं की जाती क्योंकि इसे ऐसे रख रखाव की ज़रूरत नहीं है। इसे प्राण-प्रतिष्ठा द्वारा स्थापित किया गया है और यह हमेशा ऐसा ही रहेगा। यहां तक कि अगर आप लिंग का पत्थर वाला हिस्सा हटा दें, यह फिर भी वैसा ही रहेगा। अगर पूरी दुनिया का अंत भी हो जाए, तब भी यह वैसा ही रहेगा।
सद्गुरु: लिंग को बनाने का विज्ञान एक अनुभव से जन्मा विज्ञान है, जो हजारों सालों से यहां मौजूद है। परंतु पिछले आठ सौ या नौ सौ सालों में, खासतौर पर जब भारत में भक्ति आंदोलन की लहर फैली, तो मंदिर निर्माण का विज्ञान खो गया। एक भक्त के लिए अपनी भावनाओं से अधिक महत्वपूर्ण कुछ नहीं होता। उसका रास्ता भावनाओं का है। यह उसकी भावनाओं की ही ताकत होती है, जिसके दम पर वह सबकुछ करता है।
तो उन्होंने विज्ञान को किनारे रख दिया और मनचाहे तरीके से मंदिर बनाने लगे। आप जानते हैं, यह एक प्रेम संबंध होता है? एक भक्त जो चाहेकर सकता है। उसके लिए सब जायज है क्योंकि उसके पास एक ही चीज है और वह है अपनी भावनाओं की ताकत। इसी वजह से लिंग बनाने का विज्ञान खत्म होने लगा। वरना यह एक बहुत गहन विज्ञान था। यह एक आत्मपरक विज्ञान या सब्जेक्टिव साईंस है और इसे कभी लिखा नहीं गया। क्योंकि लिखने से इसके गलत समझे जाने की पूरी संभावना थी। इस तरह से, बिना किसी विज्ञान की जानकारी के, अनेक लिंगों की स्थापना की गई।
सद्गुरु: चक्र, ऊर्जा तंत्र में वे स्थान होते हैं जहां प्राण की नाड़ियाँ मिलती हैं और ऊर्जा का एक भंवर बनता है। वैसे तो शरीर में 114 चक्र होते हैं लेकिन आम तौर पर जब हम चक्रों की बात करते हैं तो हम सात महत्वपूर्ण चक्रों की ही बात करते हैं, जो कि जीवन के सात आयामों को दर्शाते हैं। ये सात महत्वपूर्ण ट्रैफिक जंक्शन की तरह हैं।
इस समय, भारत में अधिकतर लिंगों में केवल एक या दो चक्र ही स्थापित है। ईशा योग केंद्र में मौजूद ध्यानलिंग की खासियत ये है कि इसमें सातों चक्रों को अपने चरम तक ऊर्जावान बनाकर स्थापित किया गया है। यह ऊर्जा की सबसे उच्चतम संभव अभिव्यक्ति है । ये इस तरह से है कि अगर आप ऊर्जा को लेते हैं और उसे उसकी तीव्रता की चरम सीमा तक ले जाते हैं तो, केवल एक निश्चित सीमा तक ये एक आकार को धारण कर सकती है, उसके बाद ये आकार छोड़ देती है। जब ये अपना आकार छोड़ देती है तो लोग इसे अनुभव नहीं कर पाते। ऊर्जा को उस बिंदु तक धकेलना कि जिसके बाद वो आकार छोड़ दे, और ठीक तभी उसे एक निश्चित रूप दे देना- इस तरह से ध्यानलिंग की स्थापना/प्रतिष्ठा की गई है।
सद्गुरु: योग की सबसे बुनियादी साधना है भूतशुद्धि। पंचभूत, प्रकृति के पांच तत्व हैं। अगर आप खुद को देखें तो आपका शरीर पांच तत्वों का बना हुआ है। ये हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश। ये आपस में एक खास तरीके से मिलकर भौतिक शरीर के रूप में प्रकट होते हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया, भौतिक प्रकृति और इन पंच तत्वों से परे जाने की प्रक्रिया है। इन तत्वों की उन सभी चीज़ों पर बहुत ही मज़बूत पकड़ है जिन्हें आप अनुभव करते हैं। इनसे परे जाने के लिए योग का एक बुनियादी अभ्यास है, जिसे भूत शुद्धि कहते हैं। हर एक तत्त्व के लिए एक खास तरह का अभ्यास है, जिसे आप कर सकते हैं और उस तत्त्व के मुक्त हो सकते हैं।
दक्षिण भारत में पांच भव्य मंदिरों की रचना की गई थी। हर एक मंदिर में एक लिंग स्थापित किया गया था, जो पंचतत्वों में से एक तत्व को दर्शाता है। अगर आप “जल” तत्व के लिए साधना करना चाहते हैं तो आप तिरुवनईकवल जाएं। आकाश तत्व के लिए आप चिदंबरम जाएं, वायु तत्व के लिए कालाहस्ती, पृथ्वी तत्व के लिए कांचीपुरम और अग्नि तत्व की साधना करने के लिए आप थिरुवन्नामलई जा सकते हैं।
ये मंदिर पूजा के लिए नहीं, साधना के लिए बनाए गए थे।
सद्गुरु: भारतीय संस्कृति, इस धरती की उन गिनी-चुनी संस्कृतियों में से एक है, जिसमें हजारों बरसों से लोगों ने केवल मानव जाति के परम कल्याण पर ही ध्यान दिया है। जिस पल आपने भारत में जन्म लिया, आपकी जिंदगी का मतलब आपका कारोबार नहीं था, आपकी पत्नी या आपका परिवार नहीं था। जिंदगी का हर पहलू आपकी मुक्ति के बारे में ही था। पूरा-का-पूरा समाज इसी तरह बना हुआ था।
इस सिलसिले में, हमारी संस्कृति में कई शक्तिशाली साधन बनाए गए हैं। ज्योतिर्लिंग इसी दिशा में एक बहुत शक्तिशाली साधन के रूप में स्थापित किए गए थे। इन आकृतिओं की मौजूदगी में होने से एक शक्तिशाली अनुभूति होती है।
ज्योतिर्लिंगों में ज़बरदस्त शक्ति होती है, क्योंकि उन्हें एक खास तरीके से बनाया गया है। इन्हें बनाने में न केवल मानव क्षमताओं का बल्कि प्राकृतिक शक्तियों का भी उपयोग किया गया।
पूरी दुनिया में सिर्फ बारह ज्योतिर्लिंग हैं। भूगोल और खगोलशास्त्र की नजर से वे महत्वपूर्ण स्थानों पर स्थित हैं। इन स्थानों पर एक तरह की शक्ति है। काफी समय पहले कुछ खास तरह की समझ रखने वाले लोगों ने इन स्थानों को बारीकी से जांचा और खगोलीय गतिविधि के आधार पर इन जगहों का चुनाव किया था।
कुछ ज्योतिर्लिंग अब जीवंत नहीं हैं, लेकिन उनमें से कई अब भी बहुत शक्तिशाली यन्त्र की तरह है।
जो लोग कभी ध्यान के अनुभव से नही गुज़रे हैं, वे भी जब ध्यानलिंग मंडल में कुछ मिनट तक मौन होकर बैठते हैं तो वे ध्यान की गहरी अवस्था का अनुभव करते हैं। - सद्गुरु
संस्कृत में ध्यान का अर्थ है “मैडिटेशन” और लिंग का अर्थ है “आकार”। सद्गुरु ने अपनी प्राण ऊर्जाओं का प्रयोग करके प्राण प्रतिष्ठा नामक एक दिव्य प्रक्रिया द्वारा लिंग को उसके चरम पर स्थापित किया है। इस प्रक्रिया में सभी सातों चक्रों (शरीर में ऊर्जा के महत्वपूर्ण केंद्र) को उनके चरम तक ऊर्जावान बनाकर स्थापित किया गया है, जिससे ध्यानलिंग ज्यादा विकसित प्राणी के ऊर्जा शरीर के जैसा बन गया है।
इस ध्यान गर्भगृह में किसी भी तरह की पूजा या प्रार्थना करना ज़रूरी नहीं है, और यहाँ सभी धर्मों को एक ही स्त्रोत से प्रकट हुए अलग-अलग रूप माना जाता है।
सद्गुरु: शि-व का शाब्दिक अर्थ है- वो जो नहीं है या कुछ-नहीं। इन दो शब्दों, ‘कुछ’ और ‘नहीं’ को अलग करने वाला हायफ़न का चिन्ह ज़रूरी है। पूरा अस्तित्व एक विशाल शून्यता/खालीपन की गोद में ही घटित हुआ है। परमाणु और पूरे ब्रह्मांड का निन्यानवे फीसदी से ज्यादा हिस्सा खाली है। एक शब्द "काल", समय और स्पेस दोनों के लिए इस्तेमाल किया जाता है और शिव का एक रूप काल भैरव भी है। काल भैरव अंधकार की एक दिव्य स्थिति है लेकिन जब वो एकदम स्थिर हो जाते हैं, तब महाकाल का रूप ले लेते हैं। महाकाल समय का परम स्वरुप है।
उज्जैन का महाकाल मंदिर एक ज़बरदस्त प्राण-प्रतिष्ठित स्थान है। यह शक्तिशाली अभिव्यक्ति यक़ीनन कमज़ोर दिल वालों के लिए नहीं है। यह ज़बरदस्त शक्ति वाला स्थान उन सभी लोगों के लिए उपलब्ध है जो पूर्ण रूप से विसर्जित हो जाना चाहते हैं। जैसा कि हमें मालूम है, परम विसर्जन का मतलब है समय का नाश हो जाना।
विश्व के किसी भी हिस्से में, आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब हमेशा भौतिकता से परे जाना ही रहा है, क्योंकि भौतिक चीजें चक्रों के अधीन हैं। इसलिए काल भैरव को अज्ञानता का नाश करने वाले के रूप में देखा जाता है, वे जो जीवन और मृत्यु, होने और न होने के बाध्यकारी चक्र को तोड़ देते हैं।
सद्गुरु: ऐसा कोई आत्मज्ञानी नहीं है, जिसने शिव के असीम आयाम या भौतिक प्रकृति से परे होने के बारे में बात न की हो। अंतर बस इतना है कि उन्होंने शायद अपने धर्म के संकेतों तथा भाषा का प्रयोग करके इसे अभिव्यक्त किया होगा।
हालांकि पिछले 1500 सालों में दुनिया भर में धर्म का बहुत आक्रामक तरीके से प्रसार होने की वजह से अतीत की ज़्यादातर महान संस्कृतियां जैसे प्राचीन मेसोपोटामिया की सभ्यता, मध्य एशियाई सभ्यताएं और उत्तरी अफ़्रीकी सभ्यताएं गायब हो चुकी हैं। इसलिए ये अब बहुत ज्यादा दिखाई नहीं देतीं, लेकिन अगर आप इतिहास में गहराई से देखें तो ये हर जगह मौजूद थी। तो कहीं न कहीं आध्यात्मिक विज्ञान हर संस्कृति में मौजूद हुआ करता था। लेकिन पिछले 1500 सालों में विश्व के अन्य हिस्सों में एक बड़े स्तर पर इनका पतन हुआ है।
सद्गुरु: वो लिंग जो प्राकृतिक तरीके से बने हैं, उन्हें स्वयं निर्मित या स्वयम्भू लिंग कहते हैं। जम्मू के उत्तरी क्षेत्र में अमरनाथ में एक गुफा है। इस गुफा के अन्दर हर साल बर्फ का एक शिव लिंग बनता है। यह लिंग प्राकृतिक तरीके से स्टैलैगमाईट से बनता है, जो कि गुफा की छत से टपकता रहता है। यह देखना एकदम अद्भुत है कि गुफा के ऊपरी हिस्से से पानी की छोटी छोटी बूंदे गिर रही होती हैं और नीचे गिरते ही बर्फ बन जाती हैं।
कुछ लिंग पत्थर, लकड़ी या मणि/रत्न को तराश कर बनाए गए होते हैं। जबकि दूसरे लिंग मिट्टी, बालू या किसी धातु से गढ़े होते हैं। ये प्रतिष्ठित लिंग होते हैं। कई लिंग धातु की एक परत से ढके होते हैं और उन्हें एक चेहरे की आकृति भी दी जाती है ताकि भक्त उनसे ज्यादा बेहतर तरीके से जुड़ सकें। इन्हें मुखलिंग कहते हैं। कुछ लिंग में तो शिव की पूरी छवि सतह पर तराशी हुई होती है।
लिंग, पौरुष और स्त्रैण ऊर्जा के मिलन को दर्शाते हैं। लिंग का आधार स्त्रैण को सूचित करता है जिसे गौरीपीठम या आवुदैयार कहते हैं। लिंग और उसका आधार दोनों मिलकर शिव और शक्ति के मिलन को दर्शाते हैं, जो कि पौरुष और स्त्रैण ऊर्जा के सूचक हैं।
योग विज्ञान ऊर्जा की जिन विभिन्न स्थितियों पर काम करता है, वो पांच इन्द्रियों के दायरे से भीतर नहीं है। इन भीतरी स्थितियों का अनुभव करने के लिए एक गुरु के मार्गदर्शन की ज़रूरत पड़ती है। कई संबंध मानसिक, भावनात्मक और शारीरिक जुड़ाव पर निर्भर करते हैं, लेकिन गुरु-शिष्य संबंध कुछ अलग है - क्योंकि यह ऊर्जा पर निर्भर करता है।
आधुनिक विज्ञान ने, पांच इन्द्रियों पर पूरी तरह से निर्भर होने के कारण, अनुसंधान या खोज में अनुभवजन्य या तार्किक दृष्टिकोण को ज्यादा महत्त्व दिया है, और खुद को मानव मन की साधारण शक्तियों पर सीमित कर दिया है। आधुनिक शिक्षा ने इसी दृष्टिकोण को अपनाया है और व्यक्ति के ग्रहण करने की क्षमता को नज़रंदाज़ कर दिया है। इस तरह के वातावरण में एक गुरु की ऐसी अंतर्दृष्टि रखने की क्षमता पर बहुत संदेह किया जाता है जो तार्किकता से परे हो। फिर भी, पूरे इतिहास में यह देखा गया है कि जिज्ञासु सहज रूप से एक गुरु की तरफ खिंचते हैं। आध्यात्मिक मार्गदर्शन की इच्छा को पूरा करने के लिए कुछ दूरदर्शी गुरुओं ने ऐसे ऊर्जा स्थानों का निर्माण किया है जो एक गुरु की उपस्थिति और उसकी ऊर्जा जैसा ही हैं।
ध्यानलिंग, एक गुरु की परम अभिव्यक्ति है। यह यौगिक विज्ञान का प्रतिष्ठित सार है जो भीतरी ऊर्जा को उसके चरम पर अभिव्यक्त करता है।
ऐसा कहा जाता है कि एक बार ब्रह्मा और विष्णु के सामने एक विशाल अग्नि स्तम्भ अवतरित हुआ। तेज़ रौशनी के इस अनंत स्तम्भ से ॐ की ध्वनि उत्पन्न हो रही थी। वो मंत्रमुग्ध हो गये और उन्होंने इसका पता लगाने का फैसला किया। ब्रह्मा ने इस स्तम्भ का ऊपरी सिरा खोजने के लिए एक हंस का रूप धारण किया और नीले आकाश में काफी ऊंचाई तक उड़ गये। जबकि विष्णु इस स्तम्भ की बुनियाद या आधार को ढूंढने के लिए वाराह का रूप धारण करके ब्रह्मांड की गहराई में उतर गये।
दोनों हार गये। क्योंकि यह विराट स्तम्भ कोई और नहीं बल्कि खुद शिव थे। कोई उसे कैसे माप सकता है जो असीमित है? जब विष्णु वापस लौटे, तब उन्होंने अपनी हार मान ली। जबकि ब्रह्मा हार स्वीकार नहीं करना चाह रहे थे और उन्होंने यह दावा किया कि उन्होंने इस स्तम्भ का शिखर ढूँढ लिया। प्रमाण के तौर पर उन्होंने एक सफ़ेद केतकी का फूल दिखाया और दावा किया कि ये उन्हें ऊपर शिखर पर मिला।
जैसे ही यह झूठ बोला गया, शिव, आदियोगी (सबसे पहले योगी) के रूप में प्रकट हो गये। ये दोनों भगवान (विष्णु और ब्रह्मा) उनके पैरों पर गिर पड़े। ब्रह्मा के इस झूठ के लिए शिव ने यह घोषित किया कि वो पूजा किये जाने के सौभाग्य से वंचित रहेंगे। इस फूल ने ब्रम्हा के इस अपराध में साथी बनने की वजह से अपना सम्मान खो दिया। आदियोगी ने इसके बाद इसे अर्पण/भेंट के रूप में स्वीकार करने से मना कर दिया। हालांकि महाशिवरात्रि की पावन रात्रि के लिए एक अपवाद है। इस दिन, वर्ष की सबसे ज्यादा अंधेरी रात, महाशिवरात्रि की रात में केतकी के सफ़ेद फूल को पूजा के लिए अर्पण किया जाता है। इस रात को असीम आध्यात्मिक संभावनाओं की रात माना जाता है।