सदगुरु : भारत ही ऐसा एकमात्र स्थान है जहाँ हमारे भगवानों को नृत्य करना ज़रूरी है। अगर वे नृत्य नहीं कर सकते तो वे भगवान नहीं हैं। ये इसलिये है कि अगर सृष्टि रचना की घटना के लिये कोई सबसे करीबी समानता दी जा सकती है तो वो है नृत्य की। आज, आधुनिक भौतिकविज्ञानी इन शब्दों का इस्तेमाल कर रहे हैं - वे कहते हैं कि सृष्टि रचना नृत्य में होती प्रतीत होती है। अगर आप कोई नृत्य देखें तो सतही तौर पर ऐसा लगता है कि जो कुछ हो रहा है, उसमें कोई तार्किक संबद्धता नहीं है। पर अगर आप काफी ध्यान दे कर नज़दीक से देखें तो सारी प्रक्रिया में आपको एक गहरी प्रणाली दिखेगी।
उदाहरण के लिये, भारतीय शास्त्रीय नृत्य में आपको ऐसा लग सकता है कि नर्तक अपने हाथ पैर बस यूँ ही, बेतरतीब ढंग से हिला रहे हैं। सतही तौर पर इसमें कुछ खास नहीं लगता। पर अगर आप काफी ध्यान दे कर, नज़दीक से देखें तो जो कुछ हो रहा है, उसमें आपको बहुत गहरी सुसंगति दिखेगी। अगर ये सुसंगति न हो तो आपको नृत्य में मजा ही नहीं आयेगा। अपने हाथ पैरों को इधर उधर फेंकने जैसी अतार्किक चीजों को करने और उसके साथ ही जो चीजें नर्तक दर्शाना चाहते हैं, उनके साथ पूरी तरह मेल में होने के लिये सालों का प्रशिक्षण और अभ्यास लगता है। अगर नृत्य में वो ज्यामितीय सुंदरता है तो देखने वालों पर ये एक खास तरह का प्रभाव डालेगा, चाहे फिर वे कहानी न भी जानते हों या आपके नृत्य को न समझते हों। ऐसा ही, एक अलग आयाम में, संगीत के साथ भी होता है।
अब, भौतिकविज्ञानी भी इस बात से सहमत हो रहे हैं। सृष्टि पूरी तरह आकस्मिक और बेतरतीब लगती है, जिसमें कोई सुसंगति न हो। पर, बहुत ध्यान से देखने पर, हर चीज़, किसी न किसी प्रकार से, एक दूसरे के साथ सुसंगत लगती है। हर चीज़ में किसी न किसी तरह की सुसंगति है, जिसका पता अभी भी वैज्ञानिक नहीं लगा सके हैं। योग संभव ही इसीलिये होता है क्योंकि व्यक्तिगत जीवन और सृष्टि की अभिव्यक्ति के बीच एक खास तरह की सुसंगति है। अगर ये सुसंगति न होती तो आप अस्तित्व के साथ एक नहीं हो सकते थे। मिलन की, एकीकरण की कोई भावना ही न बनती अगर कोई सुसंगति न होती।
पिछले कुछ सालों से, विज्ञान के क्षेत्र में एक सिद्धांत चल रहा है जिसे कंस्ट्रक्चुअल थ्योरी कहते हैं और ये सिद्धांत बताता है कि प्रकृति में अलग अलग आकार कैसे बनते हैं। ये सिद्धांत समझाता है कि आप चाहे एक परमाणु ले लें या कोई मनुष्य या हाथी या फिर सारा ब्रह्मांड - मूल आकार, मूल डिज़ाइन एक ही है। जैसे, जैसे बनावट बढ़ती जाती है, वैसे वैसे जटिलता ही बढ़ती है।
हमने, हमेशा से, ऐसा ही योग में कहा है। सूक्ष्म जगत और विराट ब्रह्मांड मूल रूप से एक ही प्रकार हैं। इसी में से यौगिक क्रियायें शुरू हुईं। हमने कहा - अंड, पिंड और ब्रह्मांड - वे घटक तत्व जो जीवन, व्यक्ति और ब्रह्मांड को बनाते हैं - एक ही चीज़ की तीन अभिव्यक्तियाँ हैं। वे सभी एक ही समक्रमिकता में हैं, एक ही साथ होने वाली घटनायें हैं। इन सब की बनावट एक ही होने के कारण, आप एक को दूसरे में रख सकते हैं। आप एक गाजर को खा कर, उसे मनुष्य बना सकते हैं क्योंकि इन सब की बनावट एक ही है।
जिस तरह से ये ब्रह्मांड काम कर रहा है, उसकी सबसे करीबी समानता इस तरह बताई जा सकती है या उसका वर्णन इस तरह दिया जा सकता है कि ये एक नृत्य है, क्योंकि ये सब एक बेतरतीब ढंग से, बिना किसी योजना के हो रहा लगता है पर इस सब के पीछे एक प्रणाली है, संगठन है और एक समक्रमिकता है। बात बस ये है कि संगठन के बारे में अधिकतर लोगों के विचार बहुत ही बुद्धिवादी और विभाजनकारी हैं। उदाहरण के लिये, हम जंगल और एक अच्छी तरह से, साफ सुथरे ढंग से बना हुआ और सही रख रखाव वाला बगीचा लेते हैं। बगीचे का मतलब है कि सब कुछ व्यवस्थित है, संगठित है। पर, अगर आप 3 महीने तक इस बगीचे की देखभाल न करें तो ये बर्बाद हो जायेगा। पर एक जंगल आप के, किसी के भी ध्यान दिये बिना लाखों सालों तक रह सकता है। तो आप किसको बेहतर व्यवस्था, बेहतर संगठन मानेंगे?
चिदंबरम मंदिर में नटराज की मूर्ति है - यहाँ शिव नृत्य के भगवान हैं। नटेश या नटराज, शिव के सबसे महत्वपूर्ण रूपों में से एक हैं। मैं जब स्विट्जरलैंड में स्थित,भौतिकविज्ञान की बड़ी प्रयोगशाला, सीईआरएन गया था, जहाँ एटम स्मैशिंग के प्रयोग - परमाणुओं को तेज गति से दबाने, पटकने के प्रयोग किये जाते हैं, तो मैंने देखा कि प्रवेश द्वार के पास, वहाँ नटराज की मूर्ति लगी है, क्योंकि उन्हें ये पता चला कि वे जो कुछ कर रहे हैं, उसके सबसे करीब, मानवीय संस्कृति में, इससे बेहतर कुछ भी नहीं है।
हमने कहा कि दिव्यशक्ति एक नर्तक है क्योंकि सृष्टि एक नृत्य ही है। अगर दिव्यता नर्तक न हो तो वे इस नृत्य को कैसे होने देंगे? जब हम कहते हैं कि शिव नटराज हैं तो हम किसी व्यक्ति के नृत्य करने की बात नहीं कर रहे हैं। आपने देखा होगा कि नटराज को जिस तरह दिखाया जाता है, उनके चारों ओर एक गोला, एक वृत्त है। वृत्त हमेशा से ब्रह्मांड का ही प्रतीक है क्योंकि जब कुछ भी चलता है, तो अस्तित्व में जो सबसे ज्यादा स्वाभाविक चीज़ होती है, वह वृत्त ही है। जो कुछ भी अपने आप होता है, वह वृत्त है, या फिर कोई अंडाकार रूप है, जो वृत्त का ही थोड़ा बड़ा, बिगड़ा हुआ प्रकार है, क्योंकि वृत्त एक ऐसा आकार है, जिसमें सबसे कम प्रतिरोध है। धरती, चंद्रमा, सूर्य आदि सब वृत्त ही हैं।
यही कारण है कि नटराज के चारों ओर का वृत्त ब्रह्मांड को दर्शाता है, ये ब्रह्मांड का प्रतीक है। नटराज ब्रह्मांडीय नर्तक हैं। उनका वर्णन हमेशा इसी तरह से किया गया है। इसका ये मतलब नहीं है कि कोई व्यक्ति सारे ब्रह्मांड में नाच रहा है। हम कहते हैं कि ब्रह्मांड एक नृत्य में है और नृत्य एक खास बुद्धिमत्ता से होता है। स्वयं व्यक्ति होने के कारण हम हर चीज़ को अलग अलग जीवन प्रकारों के रूप में देखते हैं और इसीलिये हम उसे भी एक व्यक्ति की तरह दिखाते हैं क्योंकि नटराज हमारी समझ के लिये है। शिव शब्द का अर्थ है 'वह, जो नहीं है' या 'वह, जो कुछ नहीं है'। ये कुछ नहीं है, ये खाली स्थान है पर ये नृत्य कर रहा है। सब कुछ इसीलिये हो रहा है क्योंकि ये नृत्य कर रहा है।
शिव का नटराज रूप मूल रूप से दक्षिणी भारत से आता है, विशेष रूप से तमिलनाडु से। ये सृष्टि की प्रचुरता का प्रतीक है। सृष्टि का नृत्य, जिसने स्वयं की रचना हमेशा रहने वाली स्थिरता में से की। चिदंबरम में जो खड़ा है वो नटराज बहुत ही प्रतीकात्मक है क्योंकि आप जिसे चिदंबरम कहते हैं वो सम्पूर्ण स्थिरता, शांति है। इस मंदिर के रूप में यही बात प्रकट की गयी है।
आप नृत्य को नहीं समझ सकते क्योंकि वो हर चीज़ जो आप समझते हैं, वो एक गलत निष्कर्ष ही है। पर, आप नृत्य की सुंदरता का अनुभव कर सकते हैं या आप खुद ही नृत्य बन सकते हैं। अगर आप देख कर ही नृत्य की सुंदरता का अनुभव कर लेते हैं तो हम कहते हैं कि आप एक जिज्ञासु हैं - जानना चाहते हैं। आप जानना चाहते हैं कि ये क्या है, इसीलिये आप ध्यान दे रहे हैं। अगर आप खुद ही नृत्य बन जायें तो आप दिव्यता बन जायेंगे, आप एक योगी बन जायेंगे। ये एक ऐसा विकल्प है जो आपके पास है।
जब नृत्य इतना अचूक, इतना ज्यादा परिपूर्ण होता है तो आप नर्तक को लगभग भूल ही जाते हैं। पर, कोई भी नृत्य, नर्तक के बिना नहीं हो सकता। हम नर्तक को नहीं देख पाते क्योंकि हमारी दृष्टि, हमारी समझ सिर्फ सतह तक ही रहती है, हमारा ध्यान सतह तक ही रहता है। नृत्य में नर्तक को पहचानने के लिये, आपको नृत्य में इतना ज्यादा डूब जाना होगा कि आप खुद ही नृत्य बन जायें, आप दर्शक न रह जायें, आप खुद ही नृत्य हो जायें। फिर, आप अनुभव से नर्तक को जान सकेंगे। आप पर उसका असर हो जायेगा। पर, अगर आप नर्तक को उसकी पूरी गहराई में, उसके सभी आयामों में, जानना चाहते हैं, आप नृत्य के स्रोत को जानना चाहते हैं, वह जो इस घटना का आधार है - तो आपको सम्पूर्ण ध्यान देना होगा, एक प्रकार से नृत्य से अलग रह कर। ये चीजें विरोधाभासी लगती हैं। एक तरफ मैं कह रहा हूँ कि आपको नृत्य के अंदर उतर जाना चाहिये और दूसरी तरफ ये भी कह रहा हूँ कि आपको नृत्य को पूरी तीव्रता के साथ देखना आना चाहिये। पर ये विरोधाभासी बातें नहीं हैं। बात बस ये है कि आप इसे टुकड़ों में देखते हैं। अगर आप इसे टुकड़ों में काट कर देखते हैं तो सब कुछ विरोधाभासी ही लगेगा।
अगर आप नृत्य में पूरी तरह से शामिल हैं, उस काम में ही शामिल हैं तो जानने का ये एक तरीका है, या फिर अगर आप जानते हों कि उससे कैसे पूरी तरह अलग रहें, पूरी तरह से बिना शामिल हुए रहें, लेकिन फिर भी आप उस काम को पूरी तरह से देख पा रहे हों, तो आप नृत्य और नर्तक के बीच, उस काम और उसके करने वाले के बीच अंतर को समझ जायेंगे। तो ये भी एक तरीका है जानने का। दूसरे तरीके के लिये बहुत ज्यादा जागरूकता, तेजी, तीव्रता और प्रशिक्षण चाहिये। तो, नृत्य का एक भाग हो जाना ही ज्यादा आसान है। धीरे, धीरे, जैसे जैसे तालमेल बैठ जायेगा, जैसे, जैसे आप इसमें गहरे, और ज्यादा गहरे उतरते जायेंगे तो एक दिन आपको पता भी नहीं चलेगा कि आप कौनसे हैं और नृत्य कौनसा है। जब आप एक बार खुद ही नृत्य के भाग हो जायेंगे तो नर्तक की उपस्थिति आपसे अनदेखी नहीं रहेगी। आप उसको भी समझ ही लेंगे।