चर्चा में

गुंबद

क्यों किसी को लगता है इतना समय

इतना अधिक समय, उसे देखने में

जो ठीक यहीं सामने है?

क्यों इतनी देर लग जाती है

उसे अपने बोध में समेटने में 

जो विशुद्ध सरल है 

इन उलझनों की जटिलताओं में?

कितनी ही बार गई मैं

अपने ही भीतर,

पर देख ना पाई

जान ना पाई

मूर्ख! ओह! कितनी मूर्ख थी मैं!

मूर्खता में अंधी थी मैं

आंखें नहीं थीं देखने को

सौंदर्य, उपहार और आनंद

उस गुंबद का

क्यों लगती है इतनी देर 

किसी को उसे देखने में

इन्द्रियों के चिन्तनशील नृत्य को

उसकी ख़ूबसूरती में अंधी होकर

ये आंखें – जो देख सकती थीं

उस उफनते झरने को?

ओह! अगर सीखा है कुछ मैंने 

तो धीरज धरना

क्योंकि हर वो फूल जिसे खिलना है

खिलेगा ही मेरे गुंबद में

—क्रिस्टीन, एक साधक