सद्गुरु के मार्गदर्शन से जीवन को बदल देने वाले दृष्टिकोण के लिए तैयार हो जाइये। अगर आप सीमाओं को तोड़कर जीवन के गहरे सत्य को खोजने की तीव्र इच्छा रखते हैं तो ये लेख आपके लिए हैं। जानिए मानव जाति की स्वयं के लिए बनाई हुई कैद के बारे में, मुक्ति के मायने और जीवन के एक गूढ़ अनुभव के लिए अपनी यात्रा कैसे प्रारम्भ करें ? जीवन को निकल मत जाने दीजिये - इसे गहराई से जीने का साहस कीजिए।
प्रश्नकर्ता: नमस्कारम सद्गुरु! मैं जीवन में कुछ गहन अनुभव पाना चाहता हूँ। मैं जहाँ भी गया, मुझे कुछ अद्भुत अनुभव हुए लेकिन कुछ भी गहन नहीं था। मुझे लगता है कि समय निकला जा रहा है। मैं क्या करूँ?
सद्गुरु: पहली बात तो यह कि अगर किसी व्यक्ति ने यह जान लिया कि वो अभी जहाँ है, उससे अधिक गहन कहीं कुछ है, तो यह भी उसके लिए एक बड़ा वरदान है। अधिकांश लोग इस बारे में जागरूक ही नहीं हैं। वे सोचते हैं कि वे जो खा-पी रहे हैं और जो काम कर रहे हैं बस वही सब कुछ है। इसलिए कहीं कुछ बहुत गहन है – यह जागरूकता ख़ुद में एक बहुत बड़ा वरदान है। लेकिन उस गहनता को एक शिकारी की तरह मत खोजिए।
सबसे गहन और सबसे कलुषित, दोनों ही यहाँ मौजूद है। आपको जो चाहिए, वह है गहन तक पहुंचने के साधन। इनर इंजीनियरिंग उन साधनों को हासिल करने के लिए ही है। अगर मैं आपसे किसी फर्नीचर के स्क्रू को खाली हाथों से निकालने के लिए कहूँ तो संभावना यह भी है कि उस स्क्रू के बाहर आने से पहले आपके सारे नाखून बाहर आ जाएँ। लेकिन अगर मैं आपको स्क्रूड्राइवर दे दूँ तो आप 1 मिनट में स्क्रू निकाल देंगे। अगर वही स्क्रूड्राइवर आप अपने कान में डालकर घुमाने लगें तो कुछ और ही हो जाएगा।
मान लीजिए कि आपने अपना पूरा जीवन एक बड़े से हॉल में गुज़ार दिया। ऐसे में आपको पता ही नहीं होगा कि उस कमरे के बाहर भी दुनिया है। अधिकांश लोगों के जीवन की यही अवस्था है - वे अपने ही छोटे से कमरे में रहते हैं - उनका अपना मन, इस बात से अनजान कि इसके परे भी कुछ है।
तो आपको कम से कम ये तो पता है कि इसके परे भी कुछ है और आप वहाँ जाने के लिए बेचैन हैं। अगर मैं आपको एक चाभी दूँ, तो इन सब दरवाज़ों और दीवारों के बीच आपको वो छोटा सा ताला ढूँढना है जो इस चाभी में बिलकुल ठीक बैठेगा। अगर आप उस ताले में चाभी डालकर सही तरह से घुमाएं तो ये आपके लिए एक नई दुनिया खोल देगा। बाकी के दरवाजों और दीवार में कहीं भी, और चाहे तो अपने दिमाग में भी ये चाभी लगाइए, इससे कुछ नहीं खुलेगा। यही जीवन की प्रकृति है।
मानव जाति की हालत को बताने के लिए योग में एक उपमा दी जाती है - कहते हैं कि मनुष्य एक पक्षी की तरह है जिसने पिंजरे में बहुत लंबा समय बिताया है। अगर किसी दिन पिंजरे का दरवाज़ा खोल भी दिया जाए तो पक्षी फिर भी पिंजरे के आराम और समय पर खाना मिलने की वजह से पिंजरा नहीं छोड़ेगा। अगर आप मुक्त होकर उड़ना पसंद करते हैं तो आपको अपना भोजन ख़ुद ढूँढना होगा। ये स्वतंत्रता कुछ जोखिम के साथ आती है। आपको शिकारी गोली मारकर गिरा सकता है, हिंसक जानवर आपको मारकर खा सकते हैं या आप किसी इमारत से टकरा सकते हैं। कुछ भी हो सकता है।
पिंजरे में बैठे रहने में कुछ ख़ास तरह का आराम है। मानव जाति के पास पिंजरे में बैठे रहने का एक लम्बा कर्म है, अगर दरवाज़ा खुला हो तब भी। यह परिस्थिति अधिकांश लोगों की है। विकासवादी प्रक्रिया ने आपको उस जगह खड़ा कर दिया है जहाँ दरवाज़ा खुला है फिर भी पिंजरे में रहना आपको आरामदायक और सुरक्षित लगता है।
हमारे देश में जब कभी गैंगवार होता है तो कुछ अपराधी छोटे-मोटे अपराध करके जेल चले जाते हैं जहाँ राज्य की हथियारबंद पुलिस उनकी सुरक्षा करती है। इसलिए वे ज़्यादा सुरक्षित रहेंगे। बाहर हो सकता है कि वे मार दिए जाएँ।
यह बस उसी तरह है - आप पिंजरे के आराम के आदी हो गए हैं। आप अपने लिए जो सीमाएं बनाते हैं वो आपको आराम देती हैं। किसी जेल की कोठरी में रहना बहुत सुरक्षित है। हमने दक्षिण भारत और अमेरिका की कुछ जेलों के कैदियों के लिए कार्यक्रम किया है – ‘आतंरिक मुक्ति’। इसके पीछे यह मक़सद है कि जेल में होते हुए भी आप अपने भीतर मुक्त रह सकते हैं।’
कोयम्बटूर सेंट्रल जेल में मुझे पहली बार यह कार्यक्रम करने का मौका मिला। हुआ यूँ कि एक बार स्थानीय महिला क्लब ने मुझे नाश्ते के साथ बातचीत के लिए आमंत्रित किया था। क्लब के बगल में ही मैंने एक असाधारण लम्बी दीवार देखी। उसकी ऊँचाई करीब 20 फ़ीट से ज़्यादा थी। शहर में नया होने के कारण शहर के बीचों-बीच इस लंबी दीवार ने मुझे कौतुहल में डाल दिया। मैंने उसके बारे में पूछा तो किसी ने कहा ये सेंट्रल जेल है।
मैं देखना चाहता था कि उस दीवार के पीछे कौन लोग हैं। मुझे पता चला कि जेल के सुपरिंटेंडेंट एक साधक हैं। जब हमने बताया कि हम जेल में एक योग कार्यक्रम करना चाहते हैं तो शुरुआत में वे संशय में थे। उन्हें इस बात के लिए राज़ी होने में ढाई साल लग गए।
सुरक्षा कारणों की वजह से वे मुझे कार्यक्रम के दौरान 10 दिन वहां रहने की अनुमति नहीं दे सके। इसलिए मैं वहाँ सेशन लेने के लिए रोज़ सुबह जाता था। तब से ये योग कार्यक्रम जेल में अनिवार्य हो गए हैं। कई मायनों में यह जेल एक उल्लेखनीय जगह है। 160 एकड़ में फैली हुई इस जगह पर कोयम्बटूर शहर के कुछ सबसे बड़े वृक्ष हैं। आप यहां बड़े-बड़े, 100 वर्षों से भी ज़्यादा पुराने वर्षा वृक्ष देखेंगे जिनमे से हरेक की छाया करीब-करीब आधे एकड़ में फैली हुई है।
मैंने देखा कि जेल में खाना एकदम सही समय पर आता है, कोई आपके लिए दरवाज़ा खोलता है और बंद करता है। ये अपने आप में एक समाज है - लोग काम करते हैं, उनके अपने दोस्त बन जाते हैं, वहाँ बहुत कुछ चल रहा है। समस्या केवल यह है कि चाभी किसी और के पास है। हालाँकि ऊपरी तौर पर सब कुछ सामान्य लगता है, लेकिन माहौल में एक गहरे दर्द की अनुभूति होती है।
ऐसा कभी नहीं हुआ कि जेल का दौरा करने के बाद मैं आँखों में आंसू लिए बिना बाहर निकल पाया। क्योंकि वहाँ के वातावरण में एक गहरे दर्द की अनुभूति होती है। अधिकांश कैदी बाहर के लोगों की तुलना में ज़्यादा स्वस्थ हैं, वे सुरक्षित हैं और वहाँ कम कष्ट, बीमारियां और संक्रमण हैं। सब कुछ ठीक लगता है लेकिन वहाँ पीड़ा है। यही मानव की स्थिति है - सबसे महत्वपूर्ण चीज मुक्ति है।
चाहे कोई दूसरा आपको बंद कर दे या आप ख़ुद को बंद कर लें, आज़ादी के न होने से दर्द पैदा होता है। लोग ख़ुद को लगातार व्यस्त रखते हैं क्योंकि अगर उन्हें केवल एक जगह स्थिर बैठना हो तो उन्हें यह समझ आ जाएगा कि वे दरअसल कैद में हैं।
आप यह प्रयोग करके देख सकते हैं, तीन दिन तक केवल एक जगह बिना कुछ किए बैठे रहिए, कोई फ़ोन नहीं, कोई टेलीविज़न नहीं, कोई किताब नहीं, कोई मन बहलाव नहीं, किसी से बात नहीं। बस जगे रहिए, अच्छे से खाना खाइए और बैठे रहिए। फिर देखिए आपकी मानसिक दशा क्या होती है।
जीवन-यापन की प्रक्रिया से परे जाने की लालसा ही पहला कदम है। कोई किसी चीज़ को तब तक प्राप्त नहीं करता जब तक कि उसमें उसे पाने की चाह न हो। अब हम बात कर रहे हैं उन सीमाओं के परे जाने की जो हमारी भौतिक प्रकृति ने हमारे ऊपर लगाई हैं। भौतिक में सीमाओं का होना स्वाभाविक है। सीमाओं की यह इच्छा हमारे रेप्टिलियन ब्रेन से आती हैं, जो हमारे मस्तिष्क का एक हिस्सा है जो एक मुट्ठी जितना बड़ा होता है। मस्तिष्क का एक और हिस्सा होता है जिसे सेरिब्रल कोर्टेक्स कहते हैं, जिसे हमेशा विस्तार की चाह होती है।
ये दोनों आयाम परस्पर विरोधी दिख सकते हैं लेकिन ये हैं नहीं। ये जीवन के 2 अलग-अलग पहलू हैं। चाहे आप कोई भी हों, भौतिक शरीर को सीमाओं की ज़रूरत होती है। आप अपने भौतिक शरीर पर किसी प्रकार का अतिक्रमण नहीं चाहते हैं। आपके भीतर की बाकी हर चीज को विस्तार चाहिए। अगर आप इसमें अंतर नहीं कर सकते कि क्या भौतिक है और क्या उसके परे है तो आपके भीतर हमेशा एक असमंजस रहेगा - एक तरफ मुक्ति की चाह होगी तो दूसरी तरफ भौतिक शरीर की सीमाओं को सँभालने की ज़रूरत।
एक महत्वपूर्ण बदलाव जो चाहिए वह यह है कि आप सचेतन तौर पर अपनी पहचान को भौतिकता से अलग करें। आपको यह देखना होगा कि यह भौतिक शरीर आपका है लेकिन यह आप ख़ुद नहीं हैं। जैसे कि कोई सामान आपका होता है लेकिन वह सामान आप नहीं हैं। आप इसे अभी इस्तेमाल कर रहे हैं और यह ठीक भी है। इसी तरह यह शरीर भी आपका है, यह ख़ुद आप नहीं हैं, इसे अच्छी तरह समझना होगा।
मुक्ति की तलाश मत करें। बस ये पहचानें कि आपको क्या बांध रहा है। अगर आप उसे तोड़ देते हैं, तो आप मुक्त हो जाते हैं।