इस श्रृंखला में, हर महीने, हमारे ईशा ब्रह्मचारी और संन्यासी अपनी व्यक्तिगत पृष्ठभूमि और अनुभव साझा करते हैं कि उनके लिए इस पवित्र "ब्रह्मचर्य मार्ग" पर चलने का क्या अर्थ है।
स्वामी विभु कहते हैं, ‘स्वामी एकपदा के बारे में सबसे अच्छी बात यह है कि वह न तो एक कदम आगे बढ़ा सकते हैं और न ही पीछे - यथास्थिति में दृढ़ता से जमे रहने में वे कुशल हैं। वे भय-विहीन हैं। कहा जाता है कि जब भी ज़रूरत होती है, स्वामी एकपदा सबसे पहले आते हैं!’ स्वामी विभु उन्हें तब से जानते हैं, जब 2000 में उन्होंने ईशा योग कक्षा की थी। दोनों एक साथ ही ईशा होम स्कूल से भी जुड़े रहे।
वैसे तो स्वामी एकपदा ने आर्किटेक्ट की पढ़ाई की है, लेकिन वे एक प्रतिभाशाली वक़्ता, अभिनेता और नाट्य-शिक्षक हैं। नाटक सिखाने की भूमिका में उनका आना इत्तेफ़ाक ही था। अपनी बात को ख़ूबसूरती से कहने की उनकी अद्भुत क्षमता, अपनी आवाज़ में उतार-चढ़ाव लाते हुए उसे एक नाटकीय अंदाज़ देना, बड़े ही नहीं, बच्चों को भी मंत्रमुग्ध कर देता है।
‘स्वामी एकपदा नाटक में एक अलग ही भाव ले आते हैं। गंभीर किस्म का नहीं, बल्कि एक ऐसा जिसके ज़रिए दर्शक आपको गंभीरता से नहीं, बल्कि सहजता से लेते हैं। ये भी हमारे द्वारा बनाए गए अपने सीमित व्यक्तित्व को ध्वस्त करने का एक और रचनात्मक तरीका है,’ टीना जबर कहती हैं, जिन्होंने एक थिएटर कार्यशाला में, जिसे विशेष रूप से ईशांगों के लिए डिज़ाइन किया गया था, स्वामी एकपदा के साथ भाग लिया था।
इस नाट्य कार्यशाला के अंतिम दिन सद्गुरु ईशांगों का नाटक देखने आए थे। जैसे ही वे हॉल में आए, सद्गुरु स्वामी एकपदा की ओर देखकर एक पैर पर खड़े हो गए। ऐसा इसलिए क्योंकि सद्गुरु स्वामी को चिढ़ाते हुए उनके नाम का अर्थ याद दिलाए रखना चाहते थे। यहां हम आपके आनंद के लिए ब्रह्मचारियों की बैठक के दौरान दोनों के बीच के मजाक की एक झलक पेश कर रहे हैं।
‘एक पैर पर खड़े होकर पूछिए स्वामी?’, जैसे ही स्वामी ने प्रश्न पूछने के लिए माइक्रोफोन लिया, सद्गुरु ने कहा।
स्वामी एकपदा: मैंने अपने चप्पल किधर रख दिए?
सद्गुरु: स्वामी, आपको केवल एक ही चप्पल की जरूरत है। इसलिए एक चप्पल गायब हो गई और दूसरी इधर है, ये आपके लिए काफी है।
स्वामी एकपदा: सद्गुरु, ये तो पहला सवाल था, दूसरा सवाल ये है कि… आपने मुझे एकपदा कहा, तो मेरा असली सवाल ये है कि कौन सा एक पैर, दाहिना या बाँया?
सद्गुरु: ये तो बहुत गंभीर प्रश्न है! इसमें बहुत गहन अर्थ छिपा है। ये कोई हल्का सवाल नहीं है। एक चप्पल कहाँ गुम गया - ये ठीक सवाल नहीं था, क्योंकि आपको एक की ही जरूरत है।
स्वामी: क्या अस्तेय (चोरी न करने का यम, जो योग का एक अंग है) का पहचान से कोई संबंध है, यह मानते हुए कि आप शरीर नहीं हैं, आप मन नहीं हैं? (आखिरकार स्वामी अपनी बात पूछ पाते हैं।)
सद्गुरु: भले ही आप एक पैर पर खड़े हों, लेकिन आप समझदार होते जा रहे हैं. . .
फिर सद्गुरु ने अपने जाने-पहचाने अंदाज़ में स्पष्टता और सटीकता के साथ उनके सवाल का उत्तर दिया।
स्वामी एकपदा 2002 में आश्रम में आए और 2004 में उन्होंने ब्रह्मचर्य धारण किया। ‘जब मैं छोटा था, मैंने यीशु की शिक्षा को बहुत गंभीरता से लिया। वो कैसे थे, उन्होंने क्या किया, उन्होंने अपने विषय में क्या कहा, ये सब बातें मुझे हैरान करती थीं, लेकिन मैंने कभी कल्पना नहीं की थी कि कोई इन चीजों का अनुभव भी कर सकता है। जैसा कि आप जानते हैं, वे 'ईश्वर के पुत्र' थे - और मैं अभी एक बालक था। मुझे याद है एक दिन मैं रोते हुए अपने कमरे में आया और प्रार्थना के लिए बैठ गया। आंसुओं और पीड़ा के साथ, मैंने तीव्रता से प्रार्थना की, 'हे ईश्वर, मैं केवल आपको जानना चाहता हूँ, मेरे लिए और कुछ मायने नहीं रखता।' उस समय मुझे नहीं पता कि उसका क्या मतलब था, लेकिन उस पल में, मेरी यही इच्छा थी।’ स्वामी बताते हैं कि कैसे उनके जीवन में एक समय आया जब शिव उनके मित्र, एक मार्ग, एक लक्ष्य बन गए।’ वे वह सब कुछ बन गए जिसे मैं पाना चाह रहा था, जिसे मैं जानना चाह रहा था। अब कुछ और मायने नहीं रखता था।’ यहां हमारे पास एक ऐसे साधक की एक असाधारण कहानी है जिसकी सत्य की खोज सभी धर्मों और संस्कृतियों से परे थी ...
स्वामी एकपदा
ईशा से पहले
किशोरावस्था में जब मैं अपने आसपास के लोगों को देखता था तो लगता था कि सबकी जिंदगी बिलकुल सेट है। लोग स्कूल जाते हैं, फिर कॉलेज, फिर नौकरी, शादी, फिर बच्चे। लेकिन समय-समय पर ये मुझे परेशान करता था। कई बार मैं सोचता था, ‘जिंदगी में कुछ और नहीं है? अगर है तो वह क्या है? मैं उसे कैसे जानूँ?’
19 साल की उम्र तक मैंने कई पुस्तकें पढ़ डाली, हीलिंग में गया और भी कई चीज़ें की ताकि कुछ खुशी मिले... यहाँ तक कि शाकाहारी भी बन गया। मैं अनीश्वरवादी और कुछ-कुछ दार्शनिक बनने लगा। बहुत खोज के बाद मुझे एक अनुभूति हुई, वैसी खुशी मुझे पहले कभी महसूस नहीं हुई थी।
ये जून 1998 में हुआ। कुछ दोस्तों के साथ मैं हरिस्सा में पहाड़ की चोटी पर गया। हालाँकि वहाँ पर एक मूर्ति थी और वह एक धार्मिक तीर्थ स्थल था, लेकिन हम उसके लिए वहाँ नहीं गए थे। हम तो इसलिए गए थे कि वहाँ से नीचे बेरूत का सबसे सुन्दर दृश्य दिखता था। इसके चारों ओर स्पाइरल रैंप था जिस पर लोग चढ़ सकते थे। सबसे अच्छा दृश्य देख पाने के लिए हम जितना ऊपर संभव था उतना ऊपर चले गए। उस स्थान पर पहली बार, मुझे याद है, बिना किसी कारण के ,पहली बार मैंने सच्ची खुशी महसूस की। मुझे पक्का विश्वास है वह एक आध्यात्मिक अनुभव था।
समय के साथ, ये अनुभव मुझमें बढ़ता गया- मैं अपने आसपास की चीजों से जुड़ाव महसूस करने लगा और सहज ही सबके प्रति करुणा रखने लगा। मेरे बचपन के प्रश्न का उत्तर मुझे मिल गया था - जिंदगी में वास्तव में और भी चीजें हैं। छः महीने के बाद, एक दिन मैं जागा तो पता चला कि वो अनुभव जा चुका है।
ये कुछ ऐसा था जैसे एक प्यासा कुएँ तक पहुँचकर भी उसे ढूँढ नहीं पा रहा था। मैं टूट गया और बेचैन हो गया। मैंने और भी पुस्तकें पढ़ीं, कई नए जमाने के वर्कशॉप और प्रक्रियाओं में, जहाँ जो मिला, शामिल हुआ। किसी भी प्रकार का आध्यात्मिक अनुभव जो भी मुझे मिलता मैं उसी में लग जाता, लेकिन जितनी ज्यादा झलक मुझे मिलती मैं उससे ज्यादा गहरा, ज्यादा अर्थपूर्ण और स्थाई चीज पाने के लिए उतना अधीर होता जाता।
ईशा का मेरे जीवन में प्रवेश
मैंने पहली बार अपनी माँ से सद्गुरु के बारे में सुना। वो उन दिनों बहुत मुश्किल दौर से गुजर रही थीं, इसलिए उन दोस्तों के कहने पर, जिन्होंने उन्हें योग कार्यक्रम में भाग लेने की सलाह दी थी, उन्होंने तुरंत ईशा योग कक्षा के साथ-साथ भाव-स्पंदन कार्यक्रम के लिए नाम लिखवा दिया। मैंने सोचा, शायद यह एक और कार्यशाला है? इससे फायदा होगा या नहीं, यह देखने के लिए मैंने इंतजार किया। उनके भाव-स्पंदन कार्यक्रम से वापस आने पर उनका चेहरा देखकर मैं उन्हें पहचान ही नहीं पाया। उनके चेहरे पर एक अलग ही चमक थी, वह बिलकुल तनावमुक्त थीं, जैसे उनके जीवन से एक बड़ा बोझ उतर गया हो। मैं समझ गया कि उन्होंने जो कुछ भी किया है वो कारगर रहा है। मैंने अगले ईशा योग कार्यक्रम में दाखिला ले लिया। कार्यक्रम के दौरान कक्षा के सारे पहलू सीधे मेरे सिर के ऊपर से निकल गए। इसके खत्म होने पर मैं फूट-फूट कर रोया - क्योंकि मुझे कुछ भी अनुभव नहीं हुआ, या कहें कि जो मैं चाहता था वैसा मैंने कुछ अनुभव नहीं किया। फिर भी कक्षा के माहौल से मुझे लगा कि यह कुछ अलग था। सद्गुरु अलग थे। यह एक और नए युग की नौटंकी नहीं थी।
सद्गुरु एक साल बाद लेबनान आए। इस बार मैंने कार्यक्रम में स्वयंसेवक के तौर पर भाग लिया। तब तक उस पहाड़ी पर हुए मेरे अनुभव को दो साल बीत चुके थे, और उसे फिर से पाने की मेरी ललक की पीड़ा चरम पर पहुँच रही थी। उनमें से एक सत्र के बाद सद्गुरु को देखकर मैं पागलों की तरह सिसक रहा था, हालांकि मुझे शर्मिंदगी महसूस हो रही थी, लेकिन मेरे भीतर कुछ ऐसा था जिसे मैं निकल जाने देना चाहता था। तब जाकर मुझे एहसास हुआ कि सद्गुरु के पास जो है वो मेरी समझ से कहीं अधिक है।
भाव स्पंदन कार्यक्रम के दौरान मैं स्वयंसेवकों के सेवा भाव से बहुत प्रभावित हुआ। मुझे लगा कि उन्हें कुछ प्रेम, कुछ खुशी ऐसी मिली है जो मेरे पास नहीं थी – नहीं तो वे हमारी ऐसी सेवा नहीं करते मानो हम ही उनके लिए सब कुछ हों! सद्गुरु ने जिस तरह शिव शंभो का जाप किया, मैं समझ गया कि वो मेरे अनुभवों से परे बहुत अधिक जानते हैं। मैं ललक और उत्सुकता में रोते हुए आंसुओं में बह गया, जैसे मुझे कुछ बेशक़ीमती चीज़ मिल गई हो। तभी मैंने पहली बार शिव के बारे में सुना, और ये कि वो संहारक थे। एक प्रक्रिया में मैंने पूरी कोशिश करने का निर्णय लिया और मैंने खुद को पूरी तरह से झोंक दिया और कुछ क्षणों के लिए तो मुझे अहसास ही नहीं रहा कि मेरा शरीर कहाँ है। एक दूसरी प्रक्रिया में, मेरे संपूर्ण शरीर में तीव्र संवेदनाएँ दौड़ गईं। मैं काँप रहा था और बेकाबू होकर रो रहा था! मैंने हर प्रतिभागी में एक दैवीय रूप देखा। मैंने स्वाभाविक रूप से सभी को नमन किया।
सम्यमा का विस्फोट
ये अच्छी तरह जानते हुए कि सम्यमा के बाद मेरी जिंदगी पहले जैसी नहीं रहेगी, नवनिर्मित सम्यमा हाल में जाने के पहले, मैं पीछे मुड़ा और दुनिया को मैं जिस रूप में जानता था उसे अलविदा कहा और कार्यक्रम में शामिल हो गया।
प्रक्रिया के दौरान, मुझे पता नहीं क्या हो रहा था- एक पल में मैं सांप जैसे फुंफकार रहा था, अगले पल चीते जैसे गुर्राता था। मैंने खुद को जैसे जंगल में खुला छोड़ दिया। कई बार मैं चक्कर खाकर फर्श पर गिरा। अकल्पनीय अनुभवों के ज़रिए शिव मेरे लिए सब कुछ बन गए थे।
लेबनान लौटने पर, ऐसा लगा जैसे अपने परिवार से पहले जैसा भावनात्मक लगाव ख़त्म हो गया है। मैं अपनी साधना में गहराई से डूब जाता, और अक्सर गहन अवस्था में पहुंच जाता था। शिव एक मित्र, एक मार्ग, एक लक्ष्य बन गए थे। जीवन के बारे में जानने के लिए वही सब कुछ थे।
जब ये सब अंदर चल रहा था, बाहर कुछ नहीं बदला था। मैं अब भी पढ़ाई कर रहा था, आजीविका के उपाय ढूँढ रहा था। हालाँकि अब ये चीज़ें कम मायने रखने लगी थीं। धीरे-धीरे मेरी ललक गुस्से में बदलती गई, क्योंकि जो चीज मेरे लिए मायने नहीं रखती थी मैं उसके पीछे अपनी ज़िंदगी बर्बाद नहीं करना चाहता था।
इसलिए मैंने अपनी भीतरी उन्नति को प्राथमिकता दी, भले कुछ भी हो जाए। इसने मेरा उद्देश्य प्रबल तरीक़े से स्पष्ट कर दिया। मैंने ऐसे काम किए जो मैं सोच भी नहीं सकता था। मेरे अनुभव में ये सब कुछ समर्पित कर देने जैसा था। मैंने हर परिस्थिति को विकास के अवसर के रूप में लिया। ये मेरे जीवन का सबसे अधिक भयहीन समय था।
ललक को मजबूत बनाना
ग्रेजुएशन के तुरंत बाद मैं 3 महीने के लिए आश्रम में आ गया। मैं बड़े उत्साह और खुशी के साथ नियमित रूप से साधना करने लगा। तब मुझे अपने मन का पागलपन दिखाई दिया। हर चीज जैसे सतह पर आ गई थी और उस पर यक़ीन करना और पचाना बहुत मुश्किल था। मैं कहीं खो गया था। दसवें दिन, मुझे सद्गुरु से मिलने का अवसर मिला। जैसे ही मैं कमरे में घुसा, मैं रोते हुए उनके पैरों पर गिर पड़ा और पूछने लगा कि ये क्या हो रहा है। उस मुलाकात में उन्होंने मुझमें कुछ चीजें सेट कर दीं। साथ ही उन्होंने संकेत भी दिया कि अगर मेरी इच्छा हो तो मैं यहीं रह सकता हूँ। मैंने सोचा भी नहीं था कि ऐसा भी संभव है।
14वें दिन मैंने महसूस किया कि आश्रम में ऊर्जा का वही स्रोत है जो मैं अपने भीतर चाहता था, यानी मेरे लिए यहाँ रहने के सिवाय और कोई विकल्प नहीं था। मुझे यहीं रहना था – पागलपन के साथ या पागलपन के बिना, यह मुझे देखना था। लेबनान वापस जाने से पहले, सद्गुरु के साथ मेरी एक और मुलाकात हुई। ‘इस पेड़ को विकसित करने के लिए इसके ऊपर पड़ा बहुत सा मैल साफ करना होगा,’ उन्होंने मुझसे कहा। उनका मतलब क्या था, मुझे कुछ समझ में नहीं आया ।
एक गंदला तालाब
नहीं चाहता गुज़रना
मैं अपने मन से होकर
जो है एक गंदला तालाब सरीखा
भरा हुआ गाढ़े, गंदले कीचड़ से।
हे प्रभु बना लीजिए
इस तालाब को अपना
और कर दीजिए इसे
शुद्ध - पहाड़ों की हवाओं की तरह,
शांत - किसी महासागर की तरह,
और स्थिर – विशाल पेड़ की जड़ों की तरह।
ताकि थम जाए भटकाव,
और ख़त्म हो जाएँ
मन की उठती लहरें
जिससे देख सकूँ मैं
मन के धरातल पर
आपके शाश्वत आकाश का
अनंत अंधकार।
मैं वापस लेबनान चला गया, लेकिन 3 महीने के बाद मैं हमेशा के लिए वापस आश्रम में आ गया। शुरू में मैंने डायनिंग, किचन, ऑडियो और आर्काइव में सेवा की। तब मै एक घंटे में 70 सूर्य नमस्कार करता था और चीज़ें बड़ी बौखलाहट भरी हो रही थीं। मेरा वज़न भी तब बहुत कम हो गया था। एक दिन मुझे मैदान में सद्गुरु ने देख लिया, और मुझे देखकर उन्होंने डाँटा, ‘क्या कर रहे हो? जाओ खाना खाओ, अभी जाकर खाओ!’ उसके बाद मैंने खाना शुरू किया… सच कहूँ तो हर खाना घंटे भर तक ठूँसता रहता। इसके बावजूद कुछ महीनों में मेरा वजन कुछ किलो और कम गया।
2004 में मुझे ब्रह्मचर्य की दीक्षा मिली। अब तक, अंदर और बाहर कई ऐसी चीज़ें हो रही थीं जो मैं संभाल नहीं पा रहा था। मैं बहुत उत्साहित था – लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा था। काम-काज भी मैं ठीक से नहीं कर पा रहा था। साधारण निर्देशों के साथ मैं काम कर लेता, पर जटिल निर्देशों से मुझे कठिनाई होती।
अपने तरीके से - उपयोगी बनने की चाहत
जैसे उन्हें पता था कि मैं अंदर ही अंदर एक कामयाब वास्तुकार (आर्किटेक्ट) बनना चाहता था, सद्गुरु ने मुझे उस वास्तुकार के साथ काम करने के लिए कोयंबटूर भेजा, जिसके साथ ईशा ने कुछ प्रोजेक्ट्स पर काम किया था। वह सद्गुरु से बहुत प्रेरित थे। मुझे ईशा के नए बिजनेस - एक बुटीक, के लिए एक इंटीरियर डिजाइन तैयार करना था। यह ईशा की सामाजिक आउटरीच प्रोजेक्ट्स के लिए आर्थिक सहायता देता था। मुझे लगा कि मुझे एक भारी सम्मान और जिम्मेदारी दी गई है।
इस काम में मुझे डिजाइन करने से लेकर, साइट पर उसे अमली रूप देने और लोगों के साथ तालमेल बैठाने तक के सारे काम संभालने थे। मैं इसे किसी भी तरह से करना चाहता था। अपने जीवन में पहली बार मुझे लगा कि मेरा भी कोई स्थान है - हालाँकि यह अभी भी मेरे लिए एक अजीब जगह थी, जहाँ लोग एक अनजान भाषा बोलते थे, एक ऐसी संस्कृति थी जिसके बारे में मुझे कुछ नहीं पता था। मैं तीन महीने तक प्रति दिन आश्रम से कोयंबटूर तक पूंडी (आश्रम के पास का एक गाँव) की बस से जाता था। मैंने उस बस में इतना समय बिताया कि अगर कोई मुझसे पूछता कि मैं क्या काम करता हूँ, तो मैं मज़ाक में उनसे कह देता, ‘मैं पूंडी बस विभाग में काम करता हूँ।’
भीतर ही भीतर मैं अपनी सीमाओं के साथ काफी संघर्ष कर रहा था। मुझे ये समझने में बड़ी मेहनत लगी कि कैसे लोगों से जुड़ना है और विभिन्न स्थितियों में क्या कहना और क्या करना है। दुर्भाग्य, गलतफहमियां और पछताना नियमित रूप से होता था। मैं अभिभूत हो जाता था, जिसकी वजह से कई बार काम करना कठिन हो जाता था। उस वास्तुकार और हमारी ब्रह्मचारी टीम की सहायता से, हमारी क़ाबिलियत से कहीं बेहतर काम हुआ।
जब यह सब भीतर और बाहर घट रहा था, तब एक दिन मेरा बुलबुला फट गया और मुझे एहसास हुआ कि मैं वास्तव में कुछ भी नहीं जानता! इससे मेरी कुछ कष्टपूर्ण यादें ताजा हो गईं।
जब मैं एक सच्चा स्वयंसेवक बन गया!
कुछ ही समय बाद, एक सप्ताह लंबा ब्रह्मचारियों का समागम होना था, लेकिन मैं वीज़ा की कुछ समस्या के कारण नेपाल में फंस गया था। हमें मौन में रहना था, इसलिए मैंने भी मौन रहने की तैयारी की और मुझे साधना की दिनचर्या भेज दी गई। एक दिन जब मैं उपस्थिति के लिए बैठा था, एक कोमल लेकिन बहुत ही गहन पल घटित हुआ, मानो मैं ख़ुद में ही धराशायी हो गया, और वहाँ सद्गुरु थे। मुझे लगा कि मैं अब ‘स्वयं’ नहीं रहा। मुझे वापस आने और अपने आस-पास के सभी लोगों के काम आने के लिए प्रोत्साहित किया गया। लेकिन इस बार कुछ भी मेरे अनुसार नहीं होने वाला था।
आपका मार्ग
चल रहा हूँ मैं,
एक तनी रस्सी पर जो
बंधी है दोनों सिरों से
जिस पर चलने के लिए
बनाना है संतुलन मुझे
अपने ही ख़तरनाक तरीक़ों और
तेरी प्रज्वलित कृपा के बीच
अपने तरीके पर चलकर,
शायद बना लूँ मैं
अपना जीवन जहर;
और अगर चलूँ तुम्हारे तरीके से,
जहर भी बन जाता है जीवन।
हे शम्भो,
तुम ही चलाओ मेरा जीवन
जिस तरह भी तुम चाहो,
क्योंकि मेरे तरीके ज़हरीले हैं,
और तुम्हारे तरीक़े में ही है
मेरा जीवन।
एक बार जब मैं नेपाल से वापस आया तो मैं एक नई शुरुआत के लिए पूरी तरह से तैयार था। सद्गुरु ने मुझे एक निर्देश के साथ ईशा होम स्कूल भेजा – ‘आध्यात्मिक होकर रहना, लेकिन आध्यात्मिक बात नहीं करना।’ जाहिर है, मुझे कुछ समझ नहीं आया।
ईशा होम स्कूल में मेरा पहला दिन - मैं अपना अभ्यास समाप्त करके असेंबली के लिए आया। दिन अद्भुत था, स्कूल का वातावरण युवा उत्साह से ओतप्रोत था। मैंने सोचा यहाँ अच्छा होने वाला है। और ऐसा ही हुआ।
एक दिन असेंबली के दौरान माइक काम नहीं कर रहा था तो मैंने जाकर ऐम्प्लिफ़ायर में प्लग को ठीक करके लगा दिया। तब से मुझे यह सुनिश्चित करने की ज़िम्मेदारी दे दी गई कि ऑडियो हर दिन काम करे। तब से स्कूल में ऑडियो का ज़िम्मा मेरे पास ही रहा है।
एक महीने के भीतर मैंने एक और ‘गलती’ की – हाँ कहने की। एक अंग्रेजी शिक्षक के पूछने पर कि क्या मैं कुछ छात्रों की एक नाटक करने में मदद कर सकता हूँ, मैंने ‘हाँ’ कर दिया। मैं हमेशा ड्रामा से जुड़ा रहा था, इसलिए यह मेरे लिए बिल्कुल स्वाभाविक बात थी। नाटक सफल रहा। छात्रों को सीखने और सुधार करने के लिए प्रेरित किया गया। अगली बात जो मुझे पता चली, वो ये कि मुझे छोटे बच्चों के लिए नाटक की कक्षाएं चलाने के लिए नियुक्त कर दिया गया। फिर धीरे-धीरे, कक्षाएं बढ़ीं, नाटकों के प्रदर्शन बेहतर होते गए। इस तरह की चीज़ें होती रहीं।
धीरे-धीरे वह कवच जो मैंने खोलना शुरू किया था, उसमें मैं दूसरों को मिलाने और जोड़ने लगा।
अदृश्य हाथ
2010 से लेकर अगले कुछ सालों तक, मैं अत्यधिक थकावट से जूझता रहा। समय-समय पर लगी शारीरिक चोटों के कारण, कई बार कोशिशें भी असंभव लगने लगीं और तब मैंने हार मान ली।
पागलपन
शुरुआत हुई थी जिसकी
प्रेम, पीड़ा, और तीव्र कामनाओं के साथ ...
मिले मार्ग में,
बहुत दर्द और खुशियाँ भी...
असफलताओं से गुज़रा मैं,
और सफलताओं से प्रेरित हुआ...
हजारों बार खुद को खोया और पाया...
कहा था मैंने खुद से,
कि नहीं हो सकता मैं सफल!
कही थी मैंने खुद से,
हर वो बात जो थी
मेरी असफलता का आधार।
कहा था मैंने खुद से
कि यह असंभव है ...
लेकिन ऐसा नहीं है, ऐसा नहीं है!
पागलपन की सही खुराक के साथ
ईश्वर की नज़र मुझ पर
पड़ सकती है फिर से,
हाँ, वे देख सकते हैं
मुझे एक बार फिर!
और कई बार अचानक ही कहीं से मदद मिल गई। एक दिन किसी ने मुझसे पूछा कि क्या मैं कक्षा के पहलुओं को लागू कर रहा हूँ या नहीं? मैंने उत्तर दिया, ‘कौन से पहलू? कैसे पहलू?’ आप यक़ीन नहीं करेंगे, लेकिन मैं सच में नहीं जानता था कि वे क्या थे। इसलिए कुछ वर्षों तक, मैंने एक वार्षिक ईशा योग रिफ्रेशर कोर्स में भाग लिया। हर साल क्लास का एक पहलू मेरे सामने स्पष्ट होता गया - हाँ, मैं इतनी मोटी बुद्धि वाला था - और मैं धीरे-धीरे अधिक समझदार होता गया। धीरे-धीरे मैं अपने शरीर और मन के लिए अधिक जिम्मेदार होता गया।
एक शक्ति संगमम में (एक कार्यक्रम जिसमें ब्रह्मचारियों को दो सप्ताह तक मौन रहकर साधना करनी होती है) मैंने अपना सारा ध्यान सतर्क रहने और अपनी साधना को गहन करने में लगाया। मैंने अपने पास एक पानी की बोतल रखी थी जिसे मैं ब्रेक के दौरान फिर से भर लेता था। जब भी जरूरत होती मैं इसे थोड़ा पीता और थोड़ा अपने सिर पर उड़ेल लेता ताकि ख़ुद को सतर्क रख सकूँ और ध्यान करता रह सकूँ। जानने की मेरी लालसा और बढ़ गई। कार्यक्रम के समापन सत्र में भरी आँखों के साथ मैं गुरु पूजा के लिए बैठा। पहला शब्द बोलने के साथ ही मैं एक ऐसी स्थिति में चला गया जहाँ कुछ अनियंत्रित रूप से एक ही दिशा में बढ़ता जा रहा था, जिसकी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी। जब मैं इससे बाहर आया तो मेरी धारणा पूरी तरह से बदल चुकी थी। हालाँकि वह अनुभव मेरे साथ कुछ ही घंटों तक रहा, लेकिन मुझे इस बात की एक झलक मिल गई कि मुझे चाहिए क्या, जिसके लिए मैं बिना हार माने लगा रह सकता हूँ।
एक दूसरे शक्ति संगमम में मैं एकादशी यात्रा पर गया। हम जागरूक रहते हुए पूरे दिन उपवास करते और चलते रहते। मैं कुछ साधनों के ज़रिए अपनी सतर्कता को बनाए रखने की कोशिश कर रहा था। धूप बढ़ने के साथ गर्मी अपने चरम पर थी। मैंने सिर उठाकर ऊपर सूर्य को देखा। अचानक लगा कि सूर्य गर्मी का स्रोत नहीं है - वो मेरे लिए ऊर्जा का एक प्रबल स्रोत बन गया। मैं अब थकावट से चूर होने के बजाय, ऊर्जा से सराबोर इतना हल्का महसूस कर रहा था जैसा पहले कभी नहीं महसूस किया था। गर्मी और थकावट से पैर घसीटने की जगह, मैं ऊपर सूर्य के देखते हुए सड़क पर वाकई उछल रहा था। मैं ऐसी खुशी से सराबोर था जो मैंने पहले कभी नहीं जानी थी।
मैं जानता था कि ये सद्गुरु का अदृश्य हाथ था। ये मेरी जिंदगी में तब आया जब मुझे इसकी सबसे अधिक जरूरत थी और इसने मुझे साधना की ओर भेजा। इस अनुभव ने ये भी स्पष्ट किया जो सद्गुरु कहते हैं - हमारे चार पहियों (शरीर, मन, भावनाएँ एवं ऊर्जा) को एक सीध में लाने की आवश्यकता है, तभी वाहन आगे बढ़ेगा।
कई उतार-चढ़ावों का अनुभव करने के बाद भी मुझे नहीं पता था कि वास्तव में हर समय खुद को एक सीध में कैसे रखा जाए। मेरे सीखने के लिए अभी भी बहुत कुछ था।
पिछली बार जब मैंने हार मानी
अभी हाल ही के दिनों में शायद मेरा सबसे गहन अनुभव पिछले साल का रहा है। एक तरफ़ मेरे शरीर के कई हिस्सों में दर्द था, सहनशक्ति और फिटनेस अभी भी अच्छी नहीं थी, दूसरी ओर मुझे अधिक जिम्मेदारी और काम का बोझ उठाना पड़ रहा था। मैं अनफिट होने के कारण बीमार और थका हुआ था और कुछ बाध्यताओं से उबरना चाहता था, इसलिए मैंने कुछ स्वामियों के साथ जॉगिंग करनी शुरू कर दी। सही ट्रेनिंग, वार्म अप और कूल डाउन रूटीन के साथ मैं धीरे-धीरे अपनी सहनशक्ति, फिटनेस और ताकत बढ़ा सका।
कुछ सप्ताह बाद मुझे लिंगार्पणम (ध्यानलिंग में की जाने वाली सेवा) का सौभाग्य प्राप्त हुआ। यह एक बहुत प्रभावशाली अनुभव था, क्योंकि मैं बहुत सी नकारात्मकता से ऊपर उठ सका। फिट रहने की वजह से मैंने अपने ब्रेक के दौरान जॉगिंग जारी रखी। इसके तुरंत बाद शक्ति संगमम हुआ। ठीक 20 साल पहले मेरे पहले सम्यमा की तरह मुझे फिर लगा कि चीजें बहुत जबरदस्त तौर पर बदल जाएंगी। मैं दुनिया को जिस रूप में जानता था उसे अलविदा कहा और अंदर चला गया।
शक्ति संगमम के तुरंत बाद मैं बैंगलोर चला गया और 10 कि.मी. मैराथन में भाग लिया। मांसपेशियों में खिंचाव होने के बावजूद, मैं इसे पूरा कर सका। मैंने कभी सोचा नहीं था कि मैं ऐसा भी कर सकता हूँ, क्योंकि कुछ साल पहले तक मैं 1 किलोमीटर भी बिना हाँफे नहीं चल सकता था!
मेरे भीतर भी, बहुत सी चीजें व्यवस्थित हो गईं थीं - अब और हार नहीं माननी थी। मुझे मालूम था कि मुझे खुद को तालमेल में लाने के लिए धीरे-धीरे क्या करना है। मार्गदर्शन, कृपा और अवसरों के लिए मैंने सद्गुरु को नमन किया।
हार से परे
मिली असफलता
तुम्हें जानने की राह में
इसीलिए मन के अँधेरे में,
पैदा कर ली थी, मैंने निराशा।
हर कदम पर मिली हार,
थे तुम भी मेरी नज़रों से ओझल
कई बार हार मान ली मैंने,
और बुन लिए मैंने
निराशा के जाल।
दी हर मदद तूने
जिसकी थी ज़रूरत
ख़ुद की मुक्ति के लिए
फिर यह निराशा क्यों है?
क्यों है यह हार?
जब तक रोक न दूँ
अनदेखा करना
हर उस चीज़ को जो है मेरे सामने,
तब तक मैं बना रहूँगा निपट मूर्ख,
कृपा से अनजान।
कुछ और सत्य नहीं है
सिवा तुम्हारे - शिव!
दूर कर दूँगा निराशा को
और फिर हो जाऊँगा उठ खड़ा
मैं पूरी हिम्मत से जीवन जिऊँगा,
और नहीं मानूंगा हार कभी,
नहीं मानूंगा हार कभी!
मेरे लिए संघ और सद्गुरु क्या हैं?
संघ हमारे विकास को बहुत आसान बना देता है, क्योंकि हर अवसर एक परीक्षा और विकास का रास्ता बन जाता है। न केवल ब्रह्मचारियों का संघ, बल्कि आश्रमवासी और स्वयंसेवकों का भी। कई बार किसी अप्रत्याशित स्रोत से मदद मिली जो मेरे विकास में मददगार साबित हुई। क्या मुझे सबके सामने नतमस्तक नहीं होना चाहिए? क्या यह उनका अदृश्य हाथ नहीं है, जो मेरे जीवन को चला रहा है?
मैं सद्गुरु को उनकी भौतिक मौजूदगी के बजाए उनकी अनुपस्थिति में अधिक अनुभव करता हूँ। मेरे साथ क्या हुआ, कैसे हुआ, उसका श्रेय मैं सिर्फ उन्हें ही दे सकता हूँ। मैं उन्हें ऐसे रूप में देखता हूँ जो मुझे मेरी परम संभावना की ओर बढ़ने के लिए सारे साधन देते हैं, मुझे केवल उसे थामना होता है। वे अदृश्य हाथ हैं जो बाधाओं के बीच से मुझे थामकर निकाल लेते हैं। ये मेरा अनुभव रहा है कि जब भी मैं ग्रहण करने के लिए खुलता हूँ, उनकी कृपा, उनका मार्गदर्शन हमेशा मौजूद होता है... जो बस हमारे खुलने की प्रतीक्षा करता रहता है।
कुछ साल पहले ब्रह्मचारियों की एक बैठक में, सद्गुरु ने मुझसे कहा कि मुझे स्थिर और फ़ोकस्ड रहने की ज़रूरत है, और ये भी कहा कि मेरी राह धीमी है, मैं 40-50 की उम्र तक अपनी चेतना के गहन पहलुओं में जाने लगूँगा। अभी मैं 41 का हूँ... अपनी स्थिरता और ध्यान पर काम करते हुए आगे बढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ, और इंतजार कर रहा हूँ…. उनका इंतज़ार कर रहा हूँ।