मुख्य चर्चा

क्या करें कि प्रेम हमारे लिए पीड़ा न बने?

क्या प्रेम में इतनी ताक़त है कि वो एक आध्यात्मिक साधक को चरम तक पहुँचा पाए? हम बिना उलझे हुए प्रेम कैसे करें? आध्यात्मिक होने के लिए क्या ईश्वर से प्रेम करना जरूरी है? सद्‌गुरुसे जानते हैं इन सवालों के जवाब और साथ में और भी बहुत कुछ :

सद्‌गुरु: भावना हमेशा किसी व्यक्ति या किसी चीज़ के लिए होती है। बिना किसी विषय-वस्तु के कोई भावना नहीं होती। वह विषय-वस्तु आपके पति, पत्नी, पुत्र, पुत्री, घर, व्यापार, या माता-पिता हो सकते हैं। ये बंधन की ओर ले जाएगा। अगर आप एक व्यक्ति से प्रेम करते हैं, तो आप बंधन में पड़ जाएँगे। अगर आप इससे ऊपर उठ भी गए, तो हो सकता है दूसरा व्यक्ति ऊपर न उठ पाए। दोनों लोग एक साथ ऊपर उठें ये बहुत सुन्दर बात है ,पर ये कभी-कभी ही होता है। इसलिए जो दूसरा चयन लोग करते हैं , वो है उससे प्रेम करना, जिसे आप ईश्वर कहते हैं।

ईश्वर से प्रेम करने का फायदा ये है कि वो आपके लिए समस्या खड़ी नहीं करते। आप जब चाहे उन्हें छोड़ सकते हैं। प्रेम को ईश्वर की ओर मोड़ने पर कई बंधन टूट जाते हैं, क्योंकि दूसरी पार्टी आपको मुक्त करने के लिए हमेशा तैयार है। नुकसान ये है कि ईश्वर की कोई माँग नहीं है - आप चीज़ों को अपनी सुविधा के अनुसार तय कर सकते हैं, पर इससे प्रेम का पोषण नहीं होगा।

एक गुरु वो व्यक्ति होता है जिससे आप गहराई से जुड़ सकते हैं, लेकिन जब ज़रूरत होगी वो आपको मुक्त करने को तैयार होता है।

तो, सबसे अच्छी बात ये है कि ईश्वर आपको मुक्त करना चाहते हैं, पर नुकसान ये है कि उनकी कोई माँग नहीं है। इस मामले में, गुरु-शिष्य संबंध महत्वपूर्ण होता है। एक गुरु वो व्यक्ति होता है जिससे आप गहराई से जुड़ सकते हैं, लेकिन जब ज़रूरत होगी वो आपको मुक्त करने को तैयार होता है। पर ईश्वर के विपरीत, एक गुरु की कुछ माँग भी होती है।

मन को ईश्वर का प्रतिबिंब बनाना

अपने प्रेम को ईश्वर की तरफ़ मोड़ने या किसी ऐसी चीज़ की तरफ़ मोड़ने के पीछे, जिसे हम अपने मन में उतना ही ऊँचा स्थान देते हैं, एक कारण होता है। मन तरल होता है। मैं जो चाहूँ वो सोच सकता हूँ। मैं अपने मन को एक बाघ के जैसा भी बना सकता हूँ और एक योगी के जैसा भी। मैं इसे शांत रख सकता हूँ और इसे आक्रामक भी बना सकता हूँ। मैं जिस किसी के बारे में सोचूँ मन वैसा बन जाता है। यह तरल है और किसी भी आकार के बर्तन में फ़िट हो सकता है। अपने जीवन में जिसे हम सबसे श्रेष्ठ मानते हैं, उसे हम ईश्वर कहते हैं। जब आप ईश्वर के बारे में सोचना और उससे प्रेम करना शुरू करते हैं तो धीरे-धीरे आपका मन भी वैसा ही हो जाता है।

अगर आपका मन दिव्य बन जाता है, तो यह दिव्यता नहीं है – यह केवल दिव्यता का प्रतिबिंब है। लेकिन यह प्रतिबिंब अच्छा है। अगर आप ईश्वर को आइने में देख पाएँ तो यह उन्हें साक्षात देखने जैसा ही है। सूर्य की किरणें आप तक सीधे भी आती हैं, या फिर वे चंद्रमा से टकराकर परावर्तन के रूप में भी आती हैं। वो सूर्य से सीधे आने वाली किरणों जैसी नही होती हैं, पर अपने आप में सुन्दर होती हैं। हो सकता है ये सूर्य के समान जीवन-दायक न हो, हो सकता है ये सूर्य की तरह पृथ्वी पर रूपांतरण करने में सक्षम न हो, लेकिन ये मनमोहक है। अगर मन दिव्य बन जाता है, तो भले ही हम उसे दैवीय नहीं कह सकते, पर बहुत सी चीज़ें बदलनी शुरू हो जाएँगी। जब तक आपका मन वैसा नहीं बनता, आपकी कैमिस्ट्री के वैसा बनने की कोई संभावना नहीं है।

अगर आपका मन दिव्य बन जाता है, तो यह दिव्यता नहीं है – यह केवल दिव्यता का प्रतिबिंब है। लेकिन यह प्रतिबिंब अच्छा है। अगर आप ईश्वर को आइने में देख पाएँ तो यह उन्हें साक्षात देखने जैसा ही है।

आप सही तरह की साधना के द्वारा अपने सिस्टम के बुनियादी रसायन को बदल सकते हैं। लेकिन अगर आपकी साधना यहाँ और मन कहीं और है, तो आपको कष्ट होगा, क्योंकि आप न यहाँ हैं न वहाँ। आध्यात्मिक साधक इस वजह से बहुत कष्ट भोगते हैं। यदि आपके विचार और प्रवृत्तियाँ आपको एक दिशा में खींच रही हैं लेकिन आपके रसायन आपको दूसरी ओर खींच रहे हैं, तो इससे बहुत कष्ट होगा। केवल तभी, जब मन और साधना दोनों एक ही दिशा में हों, यह एक सुन्दर अनुभव होगा, नहीं तो यह एक संघर्ष बन जाएगा।

अगर हमारा पूरा ध्यान उसी दिशा में केंद्रित हो, तो हम सरलता से ईश्वत्व की प्राप्ति कर सकते हैं। मन के ईश्वरतुल्य बने बिना, देवत्व की प्राप्ति दूर की बात है, बशर्ते कोई चीज़ बिजली की भाँति आपको छू न जाए, जो कि बिरले ही होता है, वह भी तब अगर आपकी पिछली साधना और पिछले कर्म ऐसे हों। 

प्रेम बन जाना

चाहे आप अपने जीवनसाथी से प्रेम करें या ईश्वर से, ये एक भावना ही है। जब भावना विषय-वस्तु के परे चली जाती है, तब वहाँ कोई भावना नहीं बचती - वहाँ केवल प्रेम रह जाता है। अक्सर, प्रेम का अर्थ होता है दो लोगों के एक साथ होने की लालसा। ये प्रेम की ओर पहला कदम है। यदि आपमें कुछ करने की लालसा है, तो मात्र लालसा होने का ये मतलब नहीं कि आप जो करना चाहते थे वो आपने पूरा कर लिया। इसी तरह, आप प्रेम बनना चाहते हैं पर ये हुआ नहीं है।

जब इसे अभी होना बाकी है, तो यह एक लालसा है और इसलिए यहाँ एक खिंचाव है। ये एक ललक और पीड़ा है क्योंकि जो आप बनना चाहते हैं अभी तक वो हुआ नहीं है। आप उसे प्रेम तभी कह सकते हैं जब दो लोग एक हो जाते हैं। अगर आपने हर चीज़ को अपने ही एक अंग के रूप में अनुभव करना शुरू कर दिया है, तो आप प्रेम बन गए हैं - ये अब कोई भावना नहीं रही बल्कि होने का तरीका है।

आप उसे प्रेम तभी कह सकते हैं जब दो लोग एक हो जाते हैं।

भावना आपमें किसी और चीज को मिला देती है। यह एक तरह का वाहन है जो आपको कहीं पहुँचा सकता है। इसका खुद कोई मक़सद नहीं है। अगर दो प्राणी मिलकर एक हो जाएँ, तो ये भावना उपयोगी है। अगर आप अपनी जिंदगी भावनाओं मे बहने में बिता दें पर कभी एक न हो पाएँ, तो इसका कोई महत्व नहीं है। ये आपके जीवन को कई तरह से ख़ाली कर देता है। मान लीजिए मैं कोयंबटूर जाना चाहता हूँ, इसलिए मैं एक बस में सवार हो गया। अब अगर बस लगातार चलती रहे पर कभी कोयंबटूर नहीं पहुँचे, तो उस बस पर चढ़ने का कोई मतलब नहीं है। ये अर्थहीन और निराशाजनक है।

अगर भावना ही मार्ग हो, तो इसके पूरी होने की आशा और उससे संतुष्टि की उम्मीद होती है, लेकिन उम्मीदों के पूरे न हो पाने का भय और पीड़ा के रूप में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। अगर प्रेम एक भावना है, तो इसका मतलब आप प्रेम बनना चाहते हैं पर अभी तक बने नहीं हैं। अगर आप वो बन जाते हैं, तब आप खुद प्रेम होते हैं, लेकिन एक भावना के रूप में नहीं।