प्रश्नकर्ता: सद्गुरु, कर्ण और परीक्षित की मृत्यु श्राप के कारण हुई थी। किसी को श्राप देने के लिए किस तरह की क़ाबिलियत चाहिए? क्या वह ब्राह्मण जिसने कर्ण को श्राप दिया था, या एक योगी का वह शिष्य जिसने परीक्षित को श्राप दिया था, कर्ण और परीक्षित से अधिक शक्तिशाली थे?
सद्गुरु: ऐसा कहा जाता है कि अगर कोई शूद्र आपको श्राप दे तो कोई असर नहीं होगा। यदि एक वैश्य आपको श्राप दे तो आपको एक शाम का भोजन नहीं मिलेगा। अगर एक क्षत्रिय आपको श्राप दे दे, तो आप अपना अंग या जीवन खो सकते हैं। और अगर एक ब्राह्मण आपको श्राप दे दे तो आपका सब कुछ ख़त्म हो सकता है।
किसका श्राप सबसे प्रभावशाली होता है?
दरअसल ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र को किसी ख़ास परिवारों या जाति में जन्में लोगों के रूप में नहीं देखा जाता था, जैसा कि अब देखा जाता है, बल्कि एक ख़ास योग्यता के रूप में देखा जाता था। एक शूद्र वो होता था जो सेवा का काम करता था, उसे केवल अपने शरीर का ज्ञान था। वैश्य वो होता था जो अपने शरीर का और कुछ हद तक अपने दिमाग का भी इस्तेमाल करता था। अपने परिवार के अलावा किसी और चीज़ के लिए उसके अंदर कोई भावना नहीं होती थी। उसका शरीर एवं उसके हिसाब-किताब उसके स्वभाव से चलते थे। एक क्षत्रिय अपने जीवन को भी दाँव पर लगा देने को तत्पर रहता था। उसमें मुख्य रूप से भावनाएँ प्रबल होती थीं, नहीं तो वह शासन नहीं कर पाता, या उस चीज़ के लिए अपना जीवन न्यौछावर नहीं कर सकता था जिसे वह सही समझता था।
एक वैश्य कभी भी अपने जीवन का बलिदान नहीं करता था - वह बातचीत करता था, मोलभाव करता था, और अपनी जरूरत के हिसाब से सौदा तय करता था। एक क्षत्रिय के लिए प्रतिष्ठा सबसे महत्वपूर्ण थी, और वो समझौता करने के बजाय मरना पसंद करता था। उसके लिए, समझौता मौत के समान था। एक ब्राह्मण वो होता था जिसके बारे में माना जाता था कि उसने अपने भीतर ब्रह्म या कहें अपनी परम प्रकृति को स्पर्श कर लिया है। यदि ऐसा कोई मनुष्य आपको श्राप दे, तो यह निश्चय ही फ़लित होगा।
कर्ण को दो ब्राह्मणों से श्राप मिला था। एक बहुत प्रबल था, दूसरा साधारण था, लेकिन उसे दोनों श्राप लग गए। दूसरे ब्राह्मण ने उसे केवल यह श्राप दिया था कि उसका रथ का पहिया फंस जाएगा। अगर केवल उसके रथ का पहिया ही अटकता पर मंत्र याद रहता, तब भी वह अर्जुन का वध कर सकता था। लेकिन उससे भी बड़ा श्राप परशुराम का था, जिसके कारण अवसर आने पर वह अपने अस्त्रों का मंत्र भूल गया।
जब कर्ण के रथ का पहिया अटक गया था तब भी वह नीचे कूदकर लड़ सकता था पर समस्या ये थी कि वह मंत्र भूल गया था। वह रथ का पहिया निकालते समय उसे याद करने की कोशिश कर रहा था। वह जितना ज्यादा सोचता उतना भ्रमित होता जाता था। अब उसकी मृत्यु निश्चित थी।
आशीर्वाद या श्राप की कीमत क्या होती है?
चाहे आप श्राप दें या आशीर्वाद, दोनों में ही आपने जो कुछ अर्जित किया है उसमें से कुछ दे रहे होते हैं। अपने जीवन के उत्थान के लिए जिस ऊर्जा का आपने निर्माण किया है, उसमें से कुछ ऊर्जा आपको गंवानी पड़ेगी। आशीर्वाद या श्राप में कितनी ऊर्जा खर्च होती है, यह इस पर निर्भर करता है कि वो कितना प्रबल है। इसी कारण भारत में अगर आप किसी संत के पास जाएंगे, वो पहले आपको देखेंगे, फिर दूर देखते हुए कहेंगे, ‘जय हो।’ मुश्किल से कभी वे आपको ‘विजयी भव’ का आशीर्वाद देंगे। क्योंकि इसमें बहुत अधिक ऊर्जा लगती है। ‘जय हो’ आपके आंतरिक जीत के लिए है, जो कि वास्तविक विजय है।
आमतौर पर यही आशीर्वाद वे देते हैं। वो भी तब, जब वे सचमुच में संत या मुनि हों। वो लोग जो केवल वेश धारण करते हैं, पर वास्तव में भिखारी या व्यवसायी हैं, उनकी बात अलग है। वो कुछ भी बोल या कर सकते हैं। अगर आपके खजाने में कुछ है ही नहीं, फिर आप उसे हर समय खुला रख सकते हैं। हाँ, अगर आपके पास कुछ कीमती चीज़ है, तब फर्क पड़ता है।
तो, आशीर्वाद आमतौर पर आध्यात्मिक कल्याण के लिए होता है। अगर आपको किसी को भौतिक सुख-समृद्धि के लिए आशीर्वाद देना हो तो इसमें बहुत ऊर्जा लगती है, क्योंकि इसे भौतिक रूप में रूपांतरित होना है। अगर हम मान लें कि आपको आंतरिक कल्याण के लिए आशीर्वाद देने में एक यूनिट ऊर्जा लगती है, तो अगर मुझे आपको उस परीक्षा में पास होने का आशीर्वाद देना पड़े, जिसके लिए आपने पढ़ाई नहीं की है, तो उसमें सौ यूनिट ऊर्जा लगेगी।
आशीर्वाद असल में काम कैसे करता है?
अगर आप मेरे पास परीक्षा पास होने के लिए आशीर्वाद लेने आते हैं, तो मैं आपको अंतिम परीक्षा में पास होने का आशीर्वाद दूंगा, न कि दसवीं की परीक्षा पास होने का। मुझे कोई मतलब नहीं कि आपने दसवीं की परीक्षा पास की है या नहीं। जब मैं ख़ुद अपनी परीक्षा में बैठा तो भी मुझे परवाह नहीं थी। इसलिए, ऐसी चीजों के लिए मेरे पास मत आइए। दुनियावी चीज़ों के लिए आशीर्वाद माँगने से अच्छा है, कृपा की छांव में रहें।
अगर आप कृपा के साथ रहें, तो आपकी अपनी ही ऊर्जा खिल उठेगी और आप अपने भौतिक जीवन को प्रभावशाली तरीके से अपने अनुसार ढाल सकते हैं। लेकिन अगर आप गलतियां करने वाले मूर्ख हैं, जो खुद कुछ नहीं करते पर चीज़ों के हो जाने की उम्मीद करते हैं, तो आशीर्वाद देने वाले को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। वे इसे वापस नहीं ले सकते। चाहे वरदान हो या श्राप, अगर उन्होंने कोई एक आयाम खोल दिया है तो उसे अचानक बंद नहीं किया जा सकता है।
आशीर्वाद देने की कितनी कीमत चुकानी पड़ेगी, यह इस बात पर निर्भर करता है कि जिसे आशीर्वाद दे रहे हैं उसकी बुद्धि, कौशल और समर्पण कितना है। मान लीजिए कि मैं यह सुनिश्चित करना चाहता हूँ कि आपका जो उद्देश्य है उसमें आप सफल हों, और मैं आपको आशीर्वाद दे देता हूँ। अब यदि आप बुद्धिमान, कुशल और उस उद्देश्य के प्रति समर्पित हैं, तो मुझे कम कीमत चुकानी पड़ेगी। यदि आप पूरी तरह फ़ोकस्ड और सक्रिय हैं, और आप कोई बाधा पार नहीं कर पा रहे, तब आशीर्वाद एक हल्के से धक्के की तरह है। लेकिन अगर आप आशीर्वाद हासिल कर लेते हैं और घर जाकर अपनी मूर्खतापूर्ण चीजें करने लगते हैं तो ये हर रोज़ मेरी शक्ति का दोहन करेगा। आशीर्वाद की क़ीमत सिर्फ़ उसे देते समय ही नहीं चुकानी पड़ती, बल्कि बाद में भी मुझे इसकी कीमत चुकानी पड़ती रहती है।
श्राप पाने वाले व्यक्ति का क्या महत्व है?
आशीर्वाद और श्राप दोनों ही अपनी कीमत लेंगे, पर श्राप की कीमत कहीं अधिक होगी। अगर आपकी इच्छा के अनुरूप मैं आपको आशीर्वाद दे दूँ, तो मेरे आशीर्वाद के साथ आप भी इस दिशा में काम करते हैं। आशीर्वाद के साथ एक आशा होती है कि आप भी इस दिशा में कोशिश करेंगे। पर यदि मैं आपको श्राप दूँ, तो आप इसके ख़िलाफ़ काम करेंगे। इसलिए इसकी कीमत आशीर्वाद से दस गुना अधिक चुकानी पड़ती है, क्योंकि आप इसके ख़िलाफ़ काम करने की कोशिश करेंगे, जबकि मेरी शक्तियाँ इसके लिए काम करेंगी।
कर्ण को मंत्र भूल जाने का श्राप मिला था। मुझे विश्वास है कि उसने हर रोज़ हज़ारों बार इस मंत्र का जाप किया होगा ताकि जब जरूरत हो तब वो उसे भूल न जाए। कर्ण ने इसके लिए पूरी कोशिश की होगी कि श्राप काम न कर पाए। लेकिन परशुराम दृढ़ थे कि श्राप काम करे, इसलिए उन्हें भारी कीमत देनी पड़ी होगी। जिस व्यक्ति को श्राप मिला है उसकी इच्छाशक्ति और योग्यता के अनुसार श्राप, आशीर्वाद की तुलना में भारी कीमत ले सकता है।