सद्गुरु हमें उन चार महत्वपूर्ण जगहों के बारे में बता रहे हैं, जहां शिव ने समय बिताया था। साथ ही वे इन स्थानों की शक्ति के बारे में समझा रहे हैं।
सद्गुरु: योगिक परंपरा में, शिव को ईश्वर के रूप में नहीं देखा जाता। वे एक ऐसे देव हैं, जिनके कदम इस धरती पर पड़े और जो यौगिक परंपरा का स्रोत हैं। वे पहले योगी, आदियोगी और पहले गुरु, आदिगुरु हैं। योगिक विज्ञान का पहला संचार कांतिसरोवर के तट पर हुआ, जो हिमालय में केदारनाथ से कुछ मील दूर पर स्थित एक बर्फीली झील है। यहीं पर आदियोगी ने अपने पहले सात शिष्यों को यौगिक विज्ञान संचारित किया था। इन्हीं सात शिष्यों को सप्त ऋषियों के नाम से जाना जाता है।
किंवदंती यह है कि शिव और पार्वती कांतिसरोवर के तट पर रहते थे, और केदार में बहुत से योगी रहते थे, जिनसे शिव और पार्वती मिलते-जुलते थे। कई साल पहले तक, मैं हर साल अकेले एक-दो महीने के लिए हिमालय पर चला जाता था। पहली बार 1994 में मैं कांति सरोवर गया। कांति सरोवर वही झील है,जो 2013 की बाढ़ के दौरान उमड़कर केदार तक आ गई।. आज इसे गांधी सरोवर कहा जाता है। यह असल में कांति सरोवर है। कांति का मतलब है कृपा, सरोवर का मतलब है झील। यह कृपा की झील है।
जब मैं लंबी दूरी तक चढ़ाई करने के बाद केदार पहुंचा, तो मैंने कांतिसरोवर के बारे में सुना। एक दोपहर मैंने वहां जाने का फैसला किया। मैं दोपहर के लगभग 2 या 2.30 बजे चला और एक घंटे से थोड़े ज्यादा समय में वहां पहुंच गया। वहां झील थी और उसके चारो ओर बर्फीले पहाड़ थे। यहां की प्राकृतिक सुंदरता अद्भुत थी। बिल्कुल निश्चल जल वाली यह झील, आस-पास कोई पेड़-पौधे नहीं और पूरी तरह शांत जल में बर्फ से लदी चोटियों का प्रतिबिंब। यह बहुत शानदार जगह थी।
सद्गुरु कान्तिसरोवर पर
मैं बस वहां बैठा और उस जगह की शांति, मौन और पवित्रता मेरी चेतना पर छा गए। वहां तक की चढ़ाई, ऊंचाई और उस जगह की एकाकी सुंदरता ने मुझे स्तब्ध कर दिया। मैं उस शांति में एक छोटी से चट्टान पर बैठ गया और खुली आंखों से अपने चारो ओर के सभी प्राकृतिक रूपों को आत्मसात करने लगा। धीरे-धीरे आस-पास के दृश्यों ने अपना आकार खो दिया और वहां सिर्फ नाद रह गया। पर्वत, झील और सारे दृश्य, यहां तक कि मेरा शरीर भी, अपने सामान्य रूप में नहीं था। सब कुछ बस ध्वनि या नाद बन गया था। मेरे अंदर यह गीत उभरा “नाद ब्रह्मा विश्व स्वरूपा”
नाद ब्रह्मा
नाद ब्रह्मा विश्वस्वरूपा
नाद हि सकल जीवरूपा
नाद हि कर्मा नाद हि धर्मा
नाद हि बंधन नाद हि मुक्ति
नाद हि शंकर नाद हि शक्ति
नादं नादं सर्वं नादम्
नादं नादं नादं नादम्
मैं हमेशा संस्कृत भाषा सीखने से बचता रहा हूं। हालांकि मुझे यह भाषा बहुत पसंद है और मुझे इसकी गहराई के बारे में पता है, मगर मैं इसे सीखने से बचता रहा, क्योंकि जैसे ही आप संस्कृत सीखते हैं, आप इस भाषा के ग्रंथों को पढ़ना शुरू कर देंगे। . मेरी अपनी दृष्टि ने कभी एक पल के लिए भी किसी चीज में मुझे धोखा नहीं दिया है, इसलिए मैं ग्रंथों और इन सारी परंपराओं से खुद को अस्त-व्यस्त नहीं करना चाहता था। इसलिए मैंने संस्कृत भाषा से दूरी बनाए रखी।
जब मैं वहां बैठा था, तो निश्चित रूप से मेरा मुंह बंद और आंखें खुली थीं, और मैंने ये गीत अपनी ही आवाज में सुना। यह गीत मेरी आवाज में ऊंचे स्वर में गूंज रहा था, और यह एक संस्कृत गीत था। मैंने उसे साफ तौर पर, ऊंचे स्वर में सुना। ऐसा लग रहा था कि पूरा पर्वत गा रहा है। मेरे अनुभव में हर चीज ध्वनि में बदल गई थी। तभी मैंने इस गीत का अनुभव किया। मैंने उसे नहीं बनाया। मैंने उसे नहीं लिखा, वह बस मुझ पर बरसने लगा। पूरा गीत संस्कृत में अपने आप बह रहा था। वह अनुभव अभिभूत कर देने वाला था।
धीरे-धीरे कुछ समय बाद सब कुछ अपने पूर्व आकार में आ गया। मेरी चेतना का उतरना, नाद से रूप – में बदलना, मेरी आंखों को आंसुओं से भर दिया।
अगर आप इस गीत में खुद को डुबो दें, तो इसमें एक तरह की शक्ति है। अगर आप वाकई इसमें खुद को झोंक दें, तो इसमें किसी इंसान को विलीन कर देने की क्षमता है।
हिंदू जीवनशैली , में कैलाश को शिव का वास कहा गया है। इसका मतलब यह नहीं है कि वह नाचते हुए या बर्फ में छिपे हुए वहां बैठे हैं। इसका मतलब है कि उन्होंने अपना ज्ञान वहां भर दिया। जब आदियोगी ने पाया कि हर सप्तऋषि ने ज्ञान के एक-एक पहलू को ग्रहण कर लिया है और उन्हें कोई ऐसा इंसान नहीं मिला, जो सातों आयामों को ग्रहण कर सके, तो उन्होंने अपने ज्ञान को कैलाश पर्वत पर रख देने का फैसला किया। ताकि योग के सभी सात आयाम, जीवन की प्रक्रिया को जानने के सातों आयाम एक ही जगह पर और एक ही स्रोत में सुरक्षित रहें। कैलाश धरती का सबसे बड़ा रहस्यमय पुस्तकालय बन गया – एक जीवित पुस्तकालय, सिर्फ जानकारी ही नहीं, बल्कि जीवंत!
कैलाश का दक्षिणी भाग
जब कोई इंसान आत्मज्ञान पा लेता है और उसका अनुभव या बोध सामान्य बोध से परे चला जाता है, तो अक्सपर ऐसा होता है कि वह अपने बोध को अपने आस-पास के लोगों में संचारित नहीं कर सकता। उसका सिर्फ एक छोटा सा हिस्सा ही संचारित किया जा सकता है। ऐसा बहुत ही कम होता है कि किसी गुरु को ऐसे लोग मिलें जिन्हें वो खुद को पूरा संचारित कर पाए।
तो आप इस सारे ज्ञान को कहां छोड़ते हैं। आप नहीं चाहते कि यह ज्ञान नष्ट हो जाए। इसलिए, हजारों सालों से, आत्मज्ञानी लोग हमेशा कैलाश की ओर जाते रहे हैं और अपने ज्ञान को एक ऊर्जा रूप में वहां जमा करते रहे हैं। उन्होंने इस पर्वत को एक आधार रूप में इस्तेमाल किया। इसी वजह से दक्षिण भारतीय आध्यात्मिकता में हमेशा से कहा गया है कि अगस्त्य मुनि, जो रहस्यवाद या आध्यात्मिकता के इस रूप का आधार हैं, कैलाश के दक्षिणी छोर पर रहते हैं। बौद्धों का कहना है कि उनके तीन मुख्य बुद्ध इस पर्वत पर रहते हैं। जैनियों के मुताबिक उनके चौबीस तीर्थंकरों में से पहले तीर्थंकर ऋषभ कैलाश पर रहते हैं।
एक साधक के लिए, कैलाश का मतलब इस धरती पर परम स्रोत को स्पर्श करना है। जो रहस्यवाद, की खोज में हैं, उनके लिए यही उपयुक्त जगह है। ऐसी कोई और जगह नहीं है।
इस देश में, प्राचीन समय में मंदिर केवल भगवान शिव के बनाए जाते थे - और किसी के नहीं। सिर्फ लगभग पिछले 1000 सालों में अन्य मंदिर बनने लगे। शिव शब्द का अर्थ है - वो "जो नहीं है"। तो मंदिर उसके लिए बनाए जाते थे - "जो नहीं है"। "जो है" - वह भौतिक अभिव्यक्ति है। "जो नहीं है" वो भौतिकता से परे है। एक मंदिर एक छेद की तरह है, जिससे गुज़रकर आप उस स्थान पर पहुँचते हैं - "जो नहीं है"। इस देश में हज़ारों शिव मंदिर हैं, और ज्यादातर मंदिरों में कोई विशेष रूप स्थापित नहीं है। उनमें सिर्फ एक सांकेतिक रूप है, और वो रूप आम तौर पर एक लिंग है।
नीचे दिए मैप को आप यहां से डाउनलोड कर सकते हैं.
दक्षिण भारत में हम जिस जगह पर हैं, उसके बहुत पास रहस्यवाद का एक और भंडार है - वेल्लिंगिरी पर्वत।. इसे दक्षिण का कैलाश कहा जाता है। यह एक अद्भुत स्थान है। ज्ञान का सबसे बड़ा ढेर कैलाश है। मगर दक्षिण के बहुत से आध्यात्मिक गुरुओं और योगियों ने अपने ज्ञान को संचित करने के लिए वेल्लिंगिरी को चुना। एक विशाल पुस्तकालय के रूप में कैलाश की बराबरी किसी से नहीं हो सकती, मगर गुणों में वेल्लिंगिरी भी उतना ही गुणवान है।
इस पर्वत को सेवन हिल्स यानि सात पहाड़ी के नाम से जाना जाता है, क्योंकि चढ़ाई में आपको सात उतार-चढ़ाव मिलते हैं, जिससे आपको महसूस होता है कि आप सात पहाड़ियों की चढ़ाई कर रहे हैं। आखिरी चोटी पर बहुत तेज हवाएं चलती हैं – यहां घास के अलावा कुछ नहीं उगता। यहां सिर्फ तीन विशाल चट्टानें हैं, जिन्होंने आपस में मिलकर एक छोटे सेलिंग के साथ छोटे मंदिर जैसा आकार बनाया है। यह बहुत ही शक्तिशाली जगह है।
इस पर्वत पर आने वाले योगी और सिद्ध पुरुष बिल्कुल अलग किस्म के थे – उग्र और प्रचण्ड लोग। यहां बहुत से महापुरुषों ने कदम रखे हैं, जिनसे देवताओं को भी ईर्ष्या होगी क्योंकि उन्होंने बहुत गरिमा और महानता के साथ जीवन बिताया। इन महापुरुषों ने अपना ज्ञान यहां छोड़ दिया, जिसे इस पर्वत ने आत्मसात कर लिया और वह ज्ञान कभी नष्ट नहीं हो सकता। यही वह पर्वत है, जहां मेरे गुरु के चरण पड़े थे, और जिसे मेरे गुरु ने अपना शरीर त्यागने के लिए चुना था। इसलिए यह सिर्फ एक पर्वत नहीं, हमारे लिए एक मंदिर है।
हजारों सालों से दुनिया भर के लोग काशी आते रहे हैं। गौतम ने अपना पहला उपदेश यहीं दिया। गौतम के आने के बाद चीनी लोग यहां आए। नालंदा विश्वविद्यालय, जिसे शिक्षा का एक महान संस्थान माना जाता है, वह काशी से गिरी ज्ञान की एक बूंद भर है। आपने जिन लोगों के बारे में सुना है, जैसे आर्यभट और ऐसे कई लोग, वे इसी इलाके के थे। ये सब इसी संस्कृति से उपजे थे, जो काशी में जीवंत थी।
योगियों ने जब ब्रह्मांड की इस प्रकृति को देखा कि वह किस तरह अपने भीतर से विकसित होती है और इसके विकसित होने की क्षमता असीमित है, तो वे अपनी खुद की सृष्टि बनाने को लालायित हो उठे। काशी को उन्होंने एक तरह के उपकरण के रूप में तैयार किया, जो स्थूल और सूक्ष्म को जोड़ता है। इस छोटे से इंसान में ब्रह्मांडीय प्रकृति के साथ एकाकार होने के आनंद, परमानंद और सुख को जानने की जबर्दस्त संभावना है। ज्यामितिय या बनावट के रूप से काशी इस चीज का सटीक उदाहरण है कि ब्रह्मांड और सूक्ष्म जगत किस तरह मिल सकते हैं। इस देश में ऐसे बहुत से उपकरण रहे हैं, मगर काशी जैसे शहर को बसाने के लिए एक जुनून, एक पागलपन की जरूरत होती है। उन लोगों ने हजारों साल पहले यह कर दिखाया। यहां 72,000 तीर्थस्थान थे। मानव शरीर में इतनी हीनाड़ियाँ होती हैं। यह पूरी प्रक्रिया ऐसी है मानो एक विशाल इंसानी शरीर एक बड़े ब्रह्मांडीय शरीर से संपर्क बना रहा हो। इसके कारण ही इस परंपरा की शुरुआत हुई कि अगर आप काशी जाते हैं, तो बस वही सब कुछ है। आप वहां जाने के बाद उस जगह को छोड़ना नहीं चाहते, क्योंकि जब एक बार आप ब्रह्मांडीय प्रकृति से जुड़ जाते हैं, तो फिर आप कहीं और क्यों जाना चाहेंगे?
काशी के बारे में प्रचलित कहानियां सौ फीसदी इस सिद्धांत पर आधारित हैं कि शिव स्वयं यहां वास करते थे। यह उनका शीतकालीन निवास था। इस बारे में बहुत सी कहानियां हैं कि किस तरह उन्होंने एक के बाद एक लोगों को काशी भेजा, मगर वे लौट कर नहीं आए, क्योंकि यह शहर इतना सम्मोहक और शानदार था। मगर हो सकता है कि इस कहानी का मतलब यह हो कि उन्होंने लोगों को इस शहर का निर्माण करने भेजा, जिसमें उन लोगों को काफी समय लगा। शहर के निर्माण के बाद जब वह यहां आए तो उन्हें काशी इतनी पसंद आई कि उन्होंने यहीं रहने का फैसला कर लिया।
पिछली कुछ शताब्दियों में काशी को तीन बार पूरी तरह ढहा दिया गया था। उसका कितना हिस्सा आज जीवंत है, इस बारे में संदेह है मगर निश्चित रूप से कुछ हिस्सा आज भी जीवंत है, वह पूरी तरह नष्ट नहीं हुई है। यह हमारा दुर्भाग्य है कि हम उस समय यहां नहीं थे, जब काशी अपने गौरव काल में थी। यह जरूर सबसे शानदार जगह रही होगी, क्योंकि इसने दुनिया भर से लोगों को अपनी ओर खींचा।
हम अतीत से बच कर आ गए, मगर सवाल यह है कि क्या हम भविष्य में भी बच पाएंगे? ‘हम’ से मेरा मतलब किसी खास धर्म से नहीं है। मैं धरती के उन लोगों की बात कर रहा हूं जो जीवन को उस रूप में देखना चाहते हैं, जैसा वह वास्तव में है, जो अपनी राय किसी और पर नहीं थोपना चाहते। दुनिया को किसी सिद्धांत, विचारधारा या सोच की जरूरत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि मानव क्षमता हमारी इंद्रियों से परे जाकर उस चीज का बोध या अनुभव करने में समर्थ हो पाए, जिसे अभी हम ‘परे’ मान रहे हैं। किसी इंसान के ज्ञान प्राप्त करने का सिर्फ यही एक तरीका है। इसी तरह मानव चेतना का फैलाव हो सकता है। सिर्फ इसी तरह एक इंसान उन संकीर्ण विभाजनों से ऊपर उठ सकता है, जो इंसानी समाज में उभर आए हैं।