सद्गुरु पूछते हैं, जब पूरा अस्तित्व हमारा हो सकता है, तो क्यों कम में गुज़ारा करें?आराम की चाहत और पुरानी धार्मिक सौदेबाजियों को खत्म करते हुए, वे कहते हैं कि सच्ची आध्यात्मिकता का मतलब है छोटे दायरे में न रहना और अपने सीमित स्व से परे जीवन का अनुभव करना।
प्रश्न: ऐसा क्यों है कि जीवन में हमें जो भी मिलता है, हमेशा कुछ और पाने का भाव बना रहता है? हम इसे हर जगह देखते हैं - करियर की महत्वाकांक्षाओं में, रिश्तों में, भौतिक चीजों को पाने में - फिर भी कुछ भी स्थायी संतुष्टि नहीं लाता। ऐसा क्यों है कि हम कभी महसूस नहीं कर पाते कि यह सब काफी है?
सद्गुरु: हर जीवन थोड़ा और विस्तार चाहता है। कुछ बड़े कदम उठाते हैं, कुछ छोटे कदम – यह सब निर्भर होता है उनके भीतर के डर और असुरक्षा पर। जीवन अपनी परम प्रकृति को पाना चाहता है।
विस्तार करने की यह लालसा जीवन की प्रकृति है। जिसे हम आध्यात्मिक कहते हैं वह आपके अंदर का एक गहरा आयाम है जो विस्तार चाहता है। लोग छोटी-छोटी किस्तों में अनंत तक पहुंचने की कोशिश करते हैं - एक निराशाजनक तरीका जो आपको अतृप्त छोड़ देगा।
यह जीवन की प्रकृति है। जैसे साबुन का बुलबुला जिसकी हवा उसकी सतह के द्वारा तब तक रुकी रहती है जब तक कि अंदर के तनाव से वह फट न जाए, वैसे ही आपके अंदर का असीमित जीवन आपकी भौतिकता की सीमाओं के द्वारा रुका रहता है, धीरे-धीरे तनाव बढ़ाता है।
आप चाहते हैं कि आपके जीवन में कुछ घटित हो। अगर कुछ नहीं होता, तो यह असहनीय है, क्योंकि विस्तार करने की लालसा स्वाभाविक है। चाहे आप कितना भी विस्तार करें, यह कभी पर्याप्त नहीं होगा, क्योंकि लालसा अनंत विस्तार की है। आप भौतिक साधनों के माध्यम से अनंत विस्तार की तलाश कर रहे हैं, जो कभी काम नहीं कर सकता क्योंकि भौतिक हमेशा सीमित ही हो सकता है।
अगर आप हमारी भौतिक प्रकृति को देखें, तो हम सभी छोटे शिशुओं से बढ़कर आज जो हैं, वह बन गए हैं। आपका शरीर कुछ ऐसा है जिसे आपने समय के साथ इकट्ठा किया है। चाहे आप स्वस्थ मात्रा इकट्ठा करें या अत्यधिक मात्रा, यह आप पर निर्भर है, लेकिन संग्रह निश्चित रूप से होता है। जो आप इकट्ठा करते हैं - चाहे कपड़े, धन-संपत्ति, या यहां तक कि आपका शरीर - वह ‘आप’ नहीं हो सकता। इस सत्य को पहचानने के लिए बुनियादी मानवीय बुद्धि पर्याप्त है, लेकिन अधिकांश लोग इसे स्वीकार नहीं करते।
ऐसे अस्वीकृति में रहने से निश्चित रूप से पीड़ा होती है। पीड़ा जीवन की परिस्थितियों से नहीं, बल्कि बेखबरी से पैदा होती है। कुछ कहते हैं कि अज्ञानता में आनंद है, लेकिन यह बालकनी से कूदने जैसा है – ऊपर से गिरना अद्भुत लगेगा जब तक आप ज़मीन पर नहीं टकराते। किसी भी स्काईडाइवर से पूछें - वे ऊपर से गिरने की इस शानदार अनुभूति को जानते हैं।
लोगों को पेट में तितलियों जैसा अहसास अच्छा लगता है, क्योंकि यह जीवन मानव के लिए पर्याप्त नहीं है - वे कुछ और बनना चाहते हैं। कुछ सोचते हैं कि पैसा, जीत, या शॉपिंग उन्हें वहां पहुंचा देगी। दूसरे सोचते हैं कि यह काम ज्ञान या प्रेम कर देगा। ये सभी अलग-अलग तरीके हैं जिनसे लोग खुद के विस्तार की कोशिश करते हैं। मानव जीवन में विस्तार करने की एक निरंतर लालसा मौजूद है। चाहे आप कितने भी बड़े हो गए हों, फिर भी और अधिक की लालसा बनी रहती है।
जब शामिल करने या विस्तार करने की यह लालसा शारीरिक रूप से अभिव्यक्त होती है, तो हम इसे कामुकता कहते हैं। जब यह भावनात्मक स्तर पर अभिव्यक्त होती है, तो हम इसे प्रेम कहते हैं। जब यह मानसिक अभिव्यक्ति पाती है, तो हम इसे जीत, महत्वाकांक्षा, लालच, या शॉपिंग कहते हैं। जब यह सचेतन अभिव्यक्ति पाती है, तो हम इसे आध्यात्मिक प्रक्रिया या योग कहते हैं।
‘योग’ शब्द का अर्थ है जोड़ना या एकत्व। एकत्व का क्या अर्थ है? वास्तव में, आप एक व्यक्ति नहीं हैं - आप जीवन के एक समूह में साबुन के बुलबुले की तरह तैर रहे हैं। आप केवल अपने भीतर के मनोवैज्ञानिक ढाँचे की वजह से ख़ुद को एक अलग व्यक्ति के रूप में अनुभव करते हैं। इस व्यक्ति को पूर्णता पाने के लिए, आपको सार्वभौमिक बनना होगा।
आप सार्वभौमिक कैसे बनते हैं? हमारी संस्कृति में इसके बारे में अद्भुत दृष्टांत हैं। एक कहानी में, कृष्ण बाहर खेल रहे हैं, और यशोदा को लगता है कि वे मिट्टी खा रहे हैं। वह उन्हें मुंह खोलने के लिए कहती हैं, और जब वह उनके मुँह के अंदर देखती हैं, तो उन्हें वहाँ पूरा ब्रह्मांड दिखाई देता है।
यह दृष्टांत दर्शाता है कि कृष्ण कैसे पूरी तरह सब कुछ समाहित किए हुए थे। यही पूर्ण समावेश की स्थिति कुरुक्षेत्र युद्ध के दौरान विश्वरूप दर्शन [कृष्ण ने अपने भीतर सारे अस्तित्व को प्रदर्शित करते हुए, अर्जुन को अपना विश्वरूप दिखाया था] के रूप में फिर अभिव्यक्त हुई। ये कहानियां दिखाती हैं कि वे एक व्यक्ति के रूप में नहीं बल्कि एक सार्वभौमिक इकाई के रूप में रहते हैं, और हर इंसान के लिए वैसा बनना संभव है।
वह बनना, या दूसरे शब्दों में, आत्म-ज्ञान, एक उपलब्धि नहीं बल्कि एक अनुभूति है, क्योंकि यह पहले से ही वहां है - आपको बस इसकी वास्तविकता को महसूस करना है। अनुभूति मुख्य चीज है, यह कोई उपलब्धि नहीं है, यह पहाड़ की चोटी पर चढ़ने जैसा नहीं है।
कुछ लोग एक शांत जगह पर जाते हैं, जीवन के गहरे अनुभव की चाहत में। मान लीजिए आप अपने शहर में जो हो रहा है उससे तंग आ गए हैं और छुट्टी पर जाना चाहते हैं। आम तौर पर, आप एक शांत जगह चुनेंगे, शायद जंगल के किनारे पर एक रिसॉर्ट, क्योंकि आप जंगल में रहने में असमर्थ हैं।
मैं जंगल में हफ्तों अकेले रहता था - इसके लिए एक अलग शारीरिक, मानसिक और आंतरिक शक्ति की आवश्यकता होती है। आपका भौतिक शरीर इसके लिए तैयार नहीं है क्योंकि यह अप्राकृतिक स्तर के आराम का आदी हो गया है, बंद, तापमान-नियंत्रित वातावरण में रहने के लिए।
हमारी आधुनिक जीवनशैली उस बीज को कमजोर करती है जो लाखों वर्षों से विकास के माध्यम से चलता आया है। हम अब तक की सबसे कमजोर पीढ़ी हैं, और अगर हम ऐसे ही जीवन जीते रहे तो हर अगली पीढ़ी और भी कमजोर होती जाएगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि भौतिकता की प्रकृति पांच तत्वों पर आधारित है।
पांच तत्वों के संपर्क में आप जितने अधिक होंगे, आपका शरीर उतना ही मजबूत और तगड़ा होगा। एक मजबूत शरीर बनाना आध्यात्मिक प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि अगर आपका शरीर एक समस्या है, तो आपकी आत्म-ज्ञान में कोई रुचि नहीं होगी। मान लीजिए आपका शरीर दुख रहा है और भगवान आपके सामने प्रकट होते हैं, तो पहली बात जो आप मांगेंगे वह यही होगी कि आपका पीठ दर्द दूर हो जाए।
आज, धरती पर 99 प्रतिशत प्रार्थनाएं ‘मुझे यह दे दो, मुझे वह दे दो, मुझे बचा लो, मुझे सुरक्षित रखो’ जैसी होती हैं। इससे परे कुछ नहीं, कोई ऊँचा आयाम नहीं खोजा जाता है।
इस संस्कृति में पूजा और प्रार्थनाओं का एक खास डिजाइन था। ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) की त्रिमूर्ति में से, सिर्फ दो मंदिर ब्रह्मा, सृष्टिकर्ता को समर्पित हैं, जो हमारी कृतज्ञता के बारे में बहुत कुछ कहता है। प्राचीन काल में विष्णु के भी बहुत मंदिर नहीं थे, वे सिर्फ पिछले 600-800 वर्षों में बने।
इससे पहले शिव को समर्पित हजारों मंदिर थे। लगभग सभी मंदिर विनाशक के लिए थे, और प्रार्थनाएं हमेशा इस तरह थीं, ‘हे महादेव, मैं जैसा हूँ उसे नष्ट कर दो, ताकि मैं आप जैसा बन सकूँ,’ क्योंकि चाहत भगवान तक पहुंचने की नहीं बल्कि दिव्य बनने की है।
दिव्य बनने का अर्थ है आपकी भौतिकता की बाध्यकारी प्रकृति द्वारा तय सीमाओं को तोड़ना। अगर आप उन सीमाओं को तोड़ देते हैं, तो आपको दिव्य माना जाता है। यह वो परंपरा है जिसका लोग अनजाने में पालन करते हैं।
जब कोई संत, ऋषि, या योगी किसी क्षेत्र का दौरा करता है, तो हर कोई उसके पैर छूने आता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि जब कोई अपनी भौतिक प्रकृति की सीमाओं को पार कर लेता है, तो लोग उसे श्रद्धा के योग्य मानते हैं, और सबसे बढ़कर, वे उनसे एक निश्चित ऊर्जा और कृपा प्राप्त करते हैं।
पूरी संस्कृति इस तरह से डिज़ाइन की गई थी कि लोग आध्यात्मिकता की तरफ़ उन्मुख हों। आध्यात्मिक रूप से उन्मुख होने का मतलब जंगल में जाना नहीं है - इसका सीधा मतलब है पूर्ण जीवन जीना। आपकी भौतिकता बनी रहती है, लेकिन उसकी बाध्यताएँ चली जाती हैं, और आप अपने अस्तित्व के दूसरे आयामों की खोज करते हैं।
हम यहां हैं, और मैं आपको लंबे जीवन का आशीर्वाद दूंगा, लेकिन अंततः, हम सभी मरेंगे। इससे पहले कि आप मर जाएं, क्या यह जानना महत्वपूर्ण नहीं है कि जीवन का यह अंश - आप स्वयं - अपनी संपूर्णता में कैसा है? आपको इसके पूरे विस्तार और गहराई का अनुभव करना चाहिए।
आपकी नौकरी, परिवार, मनोरंजन और छुट्टियां जीवन नहीं हैं। जीवन वह है जो आपके भीतर धड़क रहा है। बाकी सब कुछ सिर्फ गतिविधियां और व्यवस्थाएं हैं जो हमने इस जीवन की खुशहाली के लिए बनाई हैं। अगर आप इस जीवन की पूरी गहराई और आयाम का अनुभव किए बिना इस धरती को छोड़ देते हैं, तो आपने जीवन बर्बाद कर दिया है। आध्यात्मिक प्रक्रिया का मतलब बस यही है - आप पूरा केक चाहते हैं, आप सिर्फ एक टुकड़ा लेने के लिए तैयार नहीं हैं।