दिव्यता के पथ पर
स्वामी
नति
~विनम्रता

इस स्तंभ में ईशा ब्रह्मचारी और संन्यासी अपने व्यक्तिगत जीवन, विचार और अनुभव साझा करते हुए बताते हैं कि उनके लिए इस ‘अंतर्पथ की राह’ पर चलने के क्या मायने हैं।

‘खामोश मंदिर’

अज्ञात को पाने की मेरी इच्छा पहली बार तब महसूस हुई थी जब मैं 14 साल का था। कक्षा का मेरा एक साथी पलनी की पदयात्रा (पारंपरिक रूप से दक्षिण भारत के लोगों द्वारा की जाने वाली पलनी मुरूगन मंदिर की पैदल यात्रा) से लौटा था और व्रत (एक तरह की साधना) कर रहा था। मैंने अपने भीतर इसे अनुभव करने की एक तीव्र इच्छा महसूस की। वही शायद मेरी यात्रा की शुरुआत थी। मैं अगले 10 सालों तक पलनी पदयात्रा और ऐसे ही कई लोक परंपराओं को करता  रहा, जब तक मैंने खामोश मंदिर के बारे में नहीं सुना।

मैं 1999 में अपने दोस्तों के साथ शबरीमलई की यात्रा पर था, हम रास्ते में कई मंदिरों से होते हुए और अपने अनुभवों को साझा करते बढ़ रहे थे। मेरे एक दोस्त के भाई ने गुफा में स्थित लंबे शिवलिंग वाले खामोश मंदिर के बारे में बताया। ‘उस पवित्र स्थान के भीतर कई छोटी-छोटी गुफाएं हैं, जहाँ कोई बैठकर ध्यान कर सकता है,’ उन्होंने आगे बताया। भारत में मंदिरों के वातावरण में आवाज एक अभिन्न हिस्सा है, इसलिए मंदिर में खामोशी की बात ने मुझे आकर्षित किया। ‘यह संस्था हर तीन-चार महीने में मदुरई में 13 दिन का एक योग कार्यक्रम करवाती है,’ मंदिर में मेरी रुचि को देखते हुए उन्होंने फिर यह भी बताया। मैंने उनसे अगले कार्यक्रम में खुद को रजिस्टर करने में मदद करने को कहा। मुझे अधिक इंतजार नहीं करना पड़ा।

17 जनवरी 2000 को मैंने ईशा की 13 दिन की योग कक्षा में भाग लिया। कार्यक्रम के दौरान मैं स्वयंसेवकों द्वारा हमारी देखभाल करने के तरीके से विशेष रूप बहुत प्रभावित हुआ। वे सब अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले लोग थे जिन्होंने खुद को सिर्फ इसलिए समर्पित कर दिया था क्योंकि उन्हें ईशा योग के अनुभव ने छुआ था। कार्यक्रम की समाप्ति के दिन मैं सद्‌गुरु के साथ भाव स्पंदन कार्यक्रम में हिस्सा लेने के लिए कोयंबटूर आश्रम गया। भाव स्पंदन कार्यक्रम के बाद ईशा के साथ जुड़ने की मेरी इच्छा और गहरी हो गई। इस साल मैंने गुरु पूजा और हठयोग कार्यक्रम पूरे कर लिए और ‘प्री-सम्यमा मीट’ के लिए रजिस्टर करा लिया।

उन दिनों सम्यमा कैवल्य कुटीर में होती थी, जो उस वक्त ईशा योग केंद्र का एकमात्र हॉल था। कैवल्य कुटीर में केवल 200 लोगों की जगह थी, इसलिए गंभीर साधकों को ही प्राथमिकता दी जाती थी। क्योंकि मुझे अभ्यास करते एक साल भी पूरा नहीं हुआ था, इसलिए मुझसे अगले साल भाग लेने को कहा गया। मैंने अपने भीतर एक बेचैन करता हुआ दर्द महसूस किया, फिर भी मैंने जिद नहीं की। हालांकि मदुरई के फील्ड कोऑर्डिनेटर मेरी इस मौन किंतु तीव्र इच्छा को देख रहे थे और किसी तरह उन्होंने मुझे कार्यक्रम के लिए रजिस्टर कर दिया। सम्यमा के बाद मुझे पता चल गया कि बस यही है जो मुझे चाहिए। और तय कर लिया कि मुझे आश्रम में ही रहना होगा।

इधर घर पर मैं एक पारिवारिक दोस्त के व्यापार से जुड़ा हुआ था और उस कारोबार का नया यूनिट स्थापित करने में लगा हुआ था। मैंने सोचा कि बहन की शादी तक कारोबार को चलाना जारी रखता हूँ। इससे शायद मेरे माता-पिता भी मेरे निर्णय को सहज स्वीकार कर लेंगे।

कुछ महीनों बाद सद्‌गुरु मदुरई आए जहाँ एक सत्संग होने वाला था। जिस समय सत्संग था उसी समय कुछ जरूरी काम के लिए मुझसे यह उम्मीद थी कि मैं ऑफिस में ही रुकूँ। मैं ऑफिस के काम के लिए सद्‌गुरु के सत्संग को छोड़ना बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था और बस मैंने नौकरी छोड़ दी। इस तरह मैंने नौकरी छोड़ दी लेकिन बहन की शादी का इंतजार करते हुए मदुरई में स्वयंसेवा (वॉलिंटियरिंग) करने लगा।

सिंगानल्लूर में भोजन बनाना

जुलाई 2001 में मैं आश्रम आ गया। आश्रम में अपने पहले साल में मैं कॉरिडोर और शौचालय साफ करने की सेवा करता रहा और कार्यक्रमों के दौरान वॉलिंटियरिंग करता था। 2002 में महाशिवरात्रि उत्सव के दौरान दीक्षा की तैयारी में मैंने ब्रह्मचर्य साधना शुरू कर दी। लेकिन चिकेन पॉक्स हो जाने के कारण मुझे साधना छोड़नी पड़ी। मेरी बीमारी के दौरान ब्रह्मचारियों द्वारा की गई मेरी देखभाल को आज भी जब याद करता हूँ तो मन पुलकित हो जाता है। 2003 में मुझे दीक्षा दी गई। यह आखिरी बार था जब सद्‌गुरु ने महाशिवरात्रि के मंच से ब्रह्मचारियों को दीक्षा दी थी।

2002 की शिवरात्रि के बाद मुझे सिंगानल्लूर कार्यालय भेज दिया गया और मुझे खाना बनाने का काम मिला। मैंने घर पर कभी-कभी खाना पकाने में अपनी माँ की मदद तो की थी लेकिन कभी यह नहीं सोचा था कि मैं 4 से लेकर 20 लोगों का खाना कभी खुद बनाऊंगा। खाना बनाना एक थका देने वाला काम था क्योंकि इसे रोज करना होता था और वह भी समय पर। लेकिन मुझे इसे करने में बहुत मजा आया और अलग-अलग व्यंजनों के लिए मैंने कुछ प्रयोग भी किए - खास तौर पर रसम के साथ। हर किसी को मेरी बनाई रसम पसंद आती थी। “क्या सच में आपने यह ‘आरायथा कुलाम्बू’ बनाया है?” एक बार स्वामी अभिपाद ने मुझसे पूछा। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि मैं ऐसा स्वादिष्ट बना सकता हूँ।

चेन्नई में स्वयंसेवकों के साथ काम करना

4 महीने बाद मुझे स्वामी सुयज्ञा की मदद के लिए चेन्नई भेज दिया गया। वे चेन्नई में लोगों तक पहुंच बढ़ाने के लिए अथक काम कर रहे थे। स्वामी उस इलाके में असाधारण काम कर रहे थे और एक ही साल में स्वयंसेवकों की संख्या कई गुना बढ़ गई थी। मैं उस समय ईशा योग शिक्षक बनने की ट्रेनिंग ले रहा था, इसलिए मैंने उनकी गतिविधियों में मदद करना शुरू कर दिया। हम दोनों इतने व्यस्त रहते थे कि स्वयंसेवकों  को हमारे लिए खाना लाना पड़ता था। दिन का हमारा पहला भोजन दोपहर एक बजे के लगभग हो पाता और रात का खाना ग्यारह बजे के लगभग। लेकिन यह कड़ी मेहनत रंग ला रही थी और चेन्नई क्षेत्र से काफी अच्छे परिणाम आ रहे थे। एक साल में हमारे पास 60 कोर वालंटियर थे, जो चेन्नई के लोगों तक सदगुरु को लाने के लिए कुछ भी करने को तत्पर थे। स्वयंसेवकों की भक्ति और प्रतिबद्धता दिल को छू लेने वाली थी।

एक बार रात के 9:00 बजे बस से एक पैकेट आ रहा था जिसे उठाने के लिए मैंने एक वालंटियर को बुलाया। वालंटियर को बस स्टैंड तक पहुंचने में कम से कम एक घंटा लगता। ‘मैं एक काम में लगा हूँ,” उन्होंने बातचीत की शुरुआत इस माफी के अंदाज में की। लेकिन जैसे ही मैंने उन्हें इस काम में उनकी आवश्यकता बताई अचानक से उनका लहजा बदल गया और वो कहने लगे, ‘मैं इसे ले आऊंगा, स्वामी।’

‘पक्का?’ मैंने उन्हें सोचने का मौका देते हुए पूछा।

‘सौ प्रतिशत पक्का। मैं ले आऊंगा।’ उन्होंने बिना किसी हिचकिचाहट के कहा। उन्होंने वह पैकेट हमारे कार्यालय में आधी रात को पहुंचा दिया। मेरे पास उन्हें शुक्रिया करने के लिए कोई शब्द ही नहीं थे। पर वालंटियर ऐसे ही थे – हमेशा पूरी तरह से तत्पर।

हमने चेन्नई में 12 से 14 केंद्र शुरू किए। हर केंद्र में एक कोऑर्डिनेटर था। इतने सारे केंद्र शुरू होने के साथ हमारे पास इतना काम आ गया कि हमारा फोन हमेशा ही व्यस्त होता। एक बार ऐसा हुआ कि मैंने फोन उठाया तो दूसरी तरफ से एक जानी पहचानी आवाज सुनाई दी – ‘नमस्कारम!’ लेकिन मैं फोन करने वाले को ठीक से पहचान नहीं पाया। ‘मैं सद्‌गुरु बोल रहा हूँ’- सद्‌गुरु ने कहा। मैं एक पल के लिए नर्वस हो गया, मैंने अपनी पूरी क्षमता के साथ सतर्क होने का प्रयास किया। ‘कृपया विश्वनाथ के घर पर कुछ एक्शन फॉर रूरल रिजूवनेशन (ARR) के ब्रोशर्स भेज दीजिए।’ ऐसा कहकर उन्होंने अपने कॉल करने की वजह बता दी।

‘लेकिन सद्‌गुरु मुझे पक्का नहीं है कि मैंने ARR ब्रोशर देखा भी है’ – अफसोस महसूस करते हुए मैंने कहा।

‘वह पक्का आपके पास होगा’- उन्होंने कहा और ब्रोशर की डिजाइन मुझे समझाने लगे। तुरंत मैंने वह ब्रोशर ढूंढ लिया।

‘मुझे वह मिल गए हैं सद्‌गुरु। मैं उन्हें पहुंचाता हूँ’ मैंने जल्दी से कहा।

‘क्या आपको विश्वनाथ का घर पता है?’- उन्होंने पूछा।

‘मैं ढूंढ लूंगा सद्‌गुरु।’

यह बहुत प्रेरित करने वाला था कि किस तरह उनको ब्रोशर की डिजाइन याद थी और यह भी कि उन्होंने कितने धैर्य से मुझे उस डिजाइन को समझाया और उसे ढूंढने में मेरी मदद की। वे आसानी से किसी और वालंटियर को कॉल करके समझाने के लिए कह सकते थे या मुझसे यह कह सकते थे कि मैं स्वामी सुयज्ञा से उनकी बात कराऊं। इन सब के बजाय उन्होंने मेरी मदद करने में समय लगाया। मैं सद्‌गुरु के साथ अपने पहले फोन कॉल को लेकर भाव-विभोर था।

साधना में उत्थान

एक समय सद्‌गुरु किसी कार्यक्रम के लिए चेन्नई आए – ‘आपकी साधना कैसी चल रही है?’ उन्होंने एक बार कार्यक्रम के बाद मुझसे पूछा।

‘अच्छी सद्‌गुरु,’ मैंने कहा।

‘और कीजिए’ - उन्होंने मेरी आंखों में देखते हुए कहा। इन साधारण शब्दों का प्रभाव अवर्णनीय था। उस दिन से मैंने सुबह की अपनी गुरु पूजा और साधना कभी भी नहीं छोड़ी। आम तौर पर मैं ब्रह्म मुहूर्त (सुबह के 3.30 बजे से सूर्योदय के पहले तक का समय) में उठ जाता हूँ, बेशक मैं रात को देर से सोया रहूँ। मेरी वर्तमान गतिविधियां भी इस तरह की हैं कि मैं अधिकांश रातों को 11:00 बजे के पहले नहीं सो पाता। तो यदि वह हमसे कुछ करने के लिए कहते हैं और यदि हम उस कार्य में अपने आप को समर्पित कर देते हैं, तो वे हमें उसे करने की शक्ति भी देते हैं।

फ्लेक्स को ठीक करना

2003 -2004 में अपने कार्यक्रमों और आयोजनों के लिए हम फ्लेक्स बैनर पर सद्‌गुरु की तस्वीर प्रिंट करवाते थे। मैंने ध्यान दिया कि फ्लेक्स बैनर पर सद्‌गुरु के बालों का रंग स्यान हो जाता है, जबकि इस डिजाइन की ऑफसेट प्रिंटिंग में पेपर पर यह रंग नहीं होता था। मैंने कई प्रसिद्ध हस्तियों और नेताओं की तस्वीर फ्लेक्स पर देखी थी। वह अच्छे लगते थे। मैं चाहता था सद्‌गुरु की तस्वीर भी वैसी ही सच्ची और बढ़िया लगे। जब मैंने इसके बारे में प्रिंटर से पूछताछ की तो उन्होंने कहा कि यह तस्वीर के रेजोल्यूशन या फिर कैमरे की क्वालिटी की समस्या है, प्रिंटिंग की नहीं। लेकिन मैं इस बात से संतुष्ट नहीं हुआ।

एक बार मैंने प्रिंटिंग टेक्नीशियन के साथ एक खेल किया। मैं उसके साथ बैठा और देखने लगा कि वह क्या कर रहा था। वो तस्वीरों को फोटोशॉप में ठीक कर रहा था ताकि वह प्रिंट के लिए तैयार हो सके। मैंने सुझाव दिया कि वह प्रिंट पैरामीटर को फिर से सेट करें और इस रंग को हटा दे। हमने बहुत सारी कोशिश की लेकिन यदि वह रंग ठीक होता था तो कुछ और बिगड़ जाता था। हमने पूरी रात कोशिश की। तब तक मैंने भी अलग-अलग प्रिंट पैरामीटर का प्रभाव सीख लिया और प्रिंट के लिए कुछ अनुपातों के साथ प्रयास किया। ओह! यह काम कर गया। यह पहली बार था जब हमारे बैनर में वह हरापन नहीं था। तब से हमने सद्‌गुरु के फ्लेक्स को चेन्नई में प्रिंट करना शुरू कर दिया और मुझे ही इस काम को सँभालने का अवसर दिया गया।

जब पानी में धकेल दिया गया तो तैरना आया

2007 में सद्‌गुरु ने चेन्नई में एक ग्राम उत्सव की घोषणा की। तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री ने इस आयोजन में मुख्य अतिथि बनने का आमंत्रण स्वीकार कर लिया था। 5 लाख से अधिक लोगों के आने की उम्मीद थी। ईशा योग टीचर की एक टीम जिसका नेतृत्व एक ब्रह्मचारी शिक्षक कर रहे थे, वह कई महीनों पहले से चेन्नई में ही आकर रुक गए थे। मेरी भूमिका इस बड़े आयोजन में मुख्य ब्रह्मचारी की मदद करने की थी। कुछ ऐसा हुआ कि वह बीमार पड़ गए और मुझे इतने बड़े आयोजन की जिम्मेदारी के साथ अकेले छोड़ दिया - प्रिंटिंग, ऑडियो, बिजली, होर्डिंग्स, और जिस भी काम का नाम ले सकते हैं, सभी को तय करने की जिम्मेदारी मेरे कंधों पर आ गई। मुश्किल ये कि मुझे इन सब का कोई भी अनुभव नहीं था। पर ऐसा हुआ कि हमने तब तक की सबसे अच्छी शर्तों पर ठेके तय किए। उदाहरण के लिए प्रिंटिंग के लिए हमने 50% कम दाम दिए, लाइटिंग के लिए 30% और होर्डिंग के लिए 50% कम पैसे दिए। सद्‌गुरु की बढ़ती लोकप्रियता ने ठेकेदारों को उत्साहित किया। साथ ही आयोजन बड़ा होने के कारण उन्हें सेवाएं देना किफायती भी पड़ा, इसलिए उन्होंने सस्ते दामों पर काम कर दिया। वेंडर्स के साथ हमारा ऐसा तालमेल हो गया कि उनमें से कुछ आज तक हमारे साथ काम करते हैं और हर साल महाशिवरात्रि पर हमारी सहायता करते हैं।

यह कार्यक्रम 23 सितंबर को आयोजित हुआ। यह सद्‌गुरु का बोधि-दिवस (आत्मज्ञान प्राप्त करने का दिवस) है। कार्यक्रम भव्य रहा, जिसमें पहली बार शहरी लोगों के लिए ग्रामीण सांस्कृतिक संगीत आयोजन हुआ, ग्रामीण ओलंपिक और ग्रामीण भोजन उत्सव भी हुआ। मुख्य अतिथि आदरणीय डॉ एम करुणानिधि (तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री) द्वारा दिया गया भाषण बहुत प्रेरक था। मैं विशेष रूप से इस बात से बहुत मुग्ध हुआ जिस तरह उन्होंने पेड़ों से हमारे संबंध को लेकर सद्‌गुरु की व्याख्या को आगे बढ़ाया। सद्‌गुरु ने कहा था कि जो सांस हम लेते हैं, वह पेड़ छोड़ते हैं। इसमें ही आगे जोड़ते हुए मुख्यमंत्री जी ने कहा यदि हम पेड़ों को बढ़ाते हैं, तो वे हमें बढ़ाते हैं। बाद में शाम को मुख्यमंत्री जी ने 2.5 करोड़ पेड़ लगाने के अभियान ‘प्रोजेक्ट ग्रीन हैण्ड’ का उद्घाटन किया। कुल मिलाकर ग्रामोत्सव 2007 का आयोजन ईशा के साथ मेरी यात्रा का सबसे यादगार पल बन गया।

ईशा ग्रामोत्सव के बाद तमिलनाडु में स्वयंसेवकों के दो दशकों के काम फल देने लगे थे। 2008 में सद्‌गुरु ने ‘आनंद अलई’ - आनंद की लहर नाम का एक और विशेष कार्यक्रम शुरू किया। यह 7 दिनों के ईशा योग कार्यक्रमों की एक श्रृंखला थी, जिसे शिक्षकों द्वारा हर शहर में चलाया गया था और इसका समापन सद्‌गुरु के साथ सत्संग से होता था। इस कार्यक्रम ने कुल मिलाकर लगभग 1,00,000 लोगों की जिंदगियों को छुआ। इस स्तर का आयोजन एक तरह से हमारी परीक्षा थी कि हम ईशा योग कक्षाओं के लिए अनुकूल वातावरण तैयार करने के लिए प्रतिबद्धता, कोशिश और लॉजिस्टिक्स सँभालने के मामले में कितने सक्षम हैं। समाप्ति पर सद्‌गुरु सत्संग के दिन 30,000 प्रतिभागियों के जूते चप्पल सँभालना भी एक मजेदार चुनौती थी। पहले कार्यक्रम के लिए हमने जूते रखने के लिए 6 अलग-अलग खंड बनाए, लेकिन एक खंड में 5000 लोगों के जूते ढूंढना मुश्किल साबित हुआ। तो अगले शहर में मैंने हर खंड को पंक्तियों में विभाजित करने का सुझाव दिया और इसने बहुत अच्छा काम किया। इसी तरह शहर-दर-शहर  हमने सीखा कि ईशा के तरीकों को कायम रखते हुए हम बड़े स्तर के प्रोग्राम किस तरह सँभाल सकते हैं।

ओह! तकनीक!

जैसे-जैसे चेन्नई में ईशा का विस्तार तेजी से हो रहा था वैसे-वैसे इस बात की जटिलता बढ़ती जा रही थी कि कैसे हर कोई जुड़ा रहे और सद्‌गुरु द्वारा भेंट किए गए साधन तक उसकी पहुँच आसान हो सके। उदाहरण के लिए चेन्नई के सभी केंद्रों में मासिक सत्संग के आयोजन के लिए हमें जरूरत थी उन लोगों को पहचानने और उन तक जानकारी पहुँचाने की, जिन्होंने उस केंद्र पर ईशा-कार्यक्रम में भाग लिया था। सुनने में यह काम आसान लगता है लेकिन उस वक्त यह इतना आसान नहीं था। दिलचस्प बात यह है कि वे प्रतिभागी जिन्होंने सद्‌गुरु के साथ ‘सहज-स्थिति’ कार्यक्रम में हिस्सा लिया था, उनकी जानकारी हमारे रिकॉर्ड्स में थी। जब मैं सिंगानेल्लूर में था तो मुझे उन कागजों को सँभालने की जिम्मेदारी मिली थी। बाद में हमने उन सभी जानकारियों को एक्सेल शीट में डाल दिया। लेकिन फिर भी प्रतिभागियों को केंद्र से मिलाना एक बड़ा काम था, जिसे हम सारी शीट्स में मैन्युअली ढूंढ-ढूंढकर करते थे।

एक बार एक वालंटियर ने एक साधारण सा क्वेरी प्रोग्राम बना दिया जो प्रतिभागियों की थोड़ी सी जानकारी डालने पर केंद्र के विकल्प देने लगा। यह मेरे लिए यूरेका-पल था। आज हम ईशा योग केंद्र में एक पूरा CRM (एक संस्था के सभी आपसी संवादों और संबंधों को सँभालने की टेक्नोलॉजी) चला रहे हैं लेकिन मैं उस खुशी को बयां नहीं कर सकता, जो मुझे उस समय मिली थी, जब मैं कुछ ही अक्षरों को टाइप करके प्रतिभागियों के लिए सबसे बढ़िया केंद्र को जान पाता था। उसी समय से मैं टेक्नोलॉजी का फैन हो गया। आज भी, जो भी काम मैं करता हूँ, मेरा दिमाग अपने आप ही सोचने लगता है कैसे टेक्नोलॉजी की मदद से इसे और बेहतर तरीके से किया जा सकता है। ईशा सेक्रेड वॉक के दौरान कोयंबटूर में स्वयंसेवकों की मदद से हम पहली बार ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन को संभव बना सके। और फाइनेंस टीम की सहायता से हमने ई-रसीद भी जारी की। उस समय भारत में कॉर्पोरेट क्षेत्र में भी ई-रसीद इतनी आम बात नहीं थी।

इस प्रक्रिया में मैंने यह भी सीखा कि जब हम कुछ बदलना चाहते हैं तो हमें छोटे कदम उठाने चाहिए ताकि सबको साथ लेकर चला जा सके। उदाहरण के लिए जब ऑनलाइन यात्रा रजिस्ट्रेशन और ई-रसीद के बदलाव की बात आई, मैंने यह तय किया कि ऑनलाइन प्रारूप का डिजाइन, प्रिंटेड फॉर्म की तरह ही हो। इससे बहुत सारे दूसरे विभागों को इस बदलाव को स्वीकार करने में मदद मिली। साथ ही रसीद के लिए हमने पहले वाली रसीद को ही कंप्यूटर की मदद से बनाया। ई–रसीद के उपयोग ने दान देने की प्रक्रिया को बड़े स्तर पर बदला। पहले जब कोई दानकर्ता दान देता था, तो उसे रसीद कोरियर करना - समय और पैसे दोनों की दृष्टि से एक महँगा काम साबित होता था। साथ ही दानकर्ता अक्सर रसीद न मिलने पर शिकायत भी करते थे। अब लोगों से प्राप्त हर तरह के दान और भुगतान के लिए ई-रसीद का उपयोग होता है।

जीवन का उच्चतम पल

2009 में मुझे ‘सेक्रेड वॉक’ विभाग में भेज दिया गया। सभी जिम्मेदारियों के साथ मुझे विशेष रूप से कैलाश यात्रा की खुशी और चुनौतियां बहुत पसंद आईं। एक साल पहले ही औपचारिक रूप से मैं विभाग में जुड़ा था। मुझे कैलाश यात्रा को संचालित करने में मदद करने की जिम्मेदारी दी गई। उस साल यात्रा के हमारे नियत समय पर ही उस क्षेत्र में एक राष्ट्रीय आयोजन होने की वजह से जारी होने वाले वीजा की संख्या सीमित कर दी गई थी। सद्‌गुरु के समूह में से केवल आधे प्रतिभागियों को वीजा मिला। और उनमें से 40 प्रतिभागियों को यह दो दिन की देरी से मिला। पहला समूह सद्‌गुरु के साथ पहले ही जा चुका था। मुझे नेपाल में दूसरे समूह के देखभाल की जिम्मेदारी दी गई। दो दिनों के बाद इमीग्रेशन की औपचारिकताओं के बाद हमने नेपाल और चीन सीमा पर स्थित मैत्री सेतु को पार किया। दोपहर हो चुकी थी। सागा जाने के लिए इलाके और समय को देखते हुए मुख्य तिब्बती गाइड ने हमें सागा पहुंचने से पहले झोंगहे में दिन बिताने का सुझाव दिया।

सद्‌गुरु के साथ पहला बैच पहले ही सागा पहुंच चुका था। हमारा बैच सद्‌गुरु के पास पहुंचने के लिए बेताब था। इसे समझते हुए सद्‌गुरु ने माँ गंभीरी के माध्यम से हमें सुझाव भेजा कि हम तुरंत सागा के लिए निकल सकते हैं। तिब्बती गाइड हिचकिचाहट के साथ मान गया। हम 10 टोयोटा लैंड क्रूज़र पर सवार होकर चल पड़े। शाम 6:00 बजे तक सब कुछ ठीक चल रहा था। अचानक सारी कारें रुक गईं। ड्राइवर ने हमसे कारों से बाहर आने को कहा, जिससे वे वापस जाकर उन दो कारों की मदद कर सकें जो पीछे कहीं छोटे नदी तटों में फंस गई थीं। तिब्बती गाइड भी उनके साथ वापस गया। हम बीच रास्ते में फंसे हुए थे। जैसे ही सूरज डूबने लगा प्रतिभागी नर्वस होने लगे। उस क्षेत्र में मोबाइल काम नहीं कर रहे थे, इसलिए मैं तिब्बती गाइड और माँ गंभीरी से बात भी नहीं कर पा रहा था। मैंने प्रतिभागियों को खुश और व्यस्त रखने की कोशिश की। खैर आखिरकार 9:00 बजे सभी कारें वापस आईं और हम सागा के लिए आगे बढ़ सके। हम आधी रात के बाद सागा पहुंचे। वहाँ पहुंचकर स्वयंसेवकों को गर्म पेय, नाश्ते और गर्म जोशी की मुस्कान के साथ हमारा इंतजार करते देखकर खुशी हुई। रिसेप्शन के पीछे एक बैनर लगा था जिसपर लिखा था - ‘हैप्पी बर्थडे सद्‌गुरु।’ इस सारी जद्दोजहद में हम यह भूल ही गए थे कि हम सद्‌गुरु से उनके जन्मदिन के दिन मिलने वाले थे।

प्रतिभागियों की खुशी और बढ़ गई। कुछ घंटे के आराम के बाद हमने सद्‌गुरु के साथ एक सत्संग किया और मुझे गुरु पूजा करने को कहा गया। यह पहली बार था जब मैं सद्‌गुरु की साक्षात उपस्थिति में गुरु पूजा कर रहा था। आज भी उस पल को यादकर मेरे रोंगटे खड़े हो जाते हैं। वह मेरी जिंदगी का उच्चतम पल था।

जब हम मानसरोवर पहुंचे तो सद्‌गुरु ने सभी प्रतिभागियों को दीक्षा से पहले कुछ मिनट के लिए झील में डुबकी लगाने के लिए कहा। वो नहीं चाहते थे कि प्रतिभागी 3-5 मिनट से ज्यादा झील में रहें, क्योंकि वहाँ तापमान शून्य से भी नीचे था। अचानक उन्होंने मुझे बुलाया और कहा कि मैं झील में अंदर थोड़ा आगे जाकर खड़ा हो जाऊँ और यह देखता रहूँ कि कोई भी प्रतिभागी मुझसे आगे न जाए और झील से जल्दी बाहर आ जाए। मैं वहाँ जाकर खड़ा हो गया। मैं कमर तक के पानी में झील में एक घंटे खड़ा रहा। लेकिन मुझे ठंड महसूस नहीं हुई। कैलाश यात्रा के दौरान सद्‌गुरु के आसपास ऐसी बहुत सारी जादुई चीजें होती हैं।

2015 में मुझे ईशा एडमिनिस्ट्रेशन (प्रशासन) विभाग में भेज दिया गया। अपने नाम ‘प्रशासन’ के विपरीत यह बहुत जीवंत विभाग है। हम आश्रम में होने वाले हर एक आयोजन और घटनाओं में शामिल होते हैं। आश्रमवासियों को कोविड के दौरान बचाने से लेकर अतिथियों, वॉलिंटियर और सेवादारों की सुरक्षा सभी कुछ हमारे लिए जरूरी होता है। हर दिन हमारे पास सुलझाने के लिए एक नई समस्या होती है, जो हमें उत्साहित रखती है।

संस्कृति विद्यार्थियों के साथ रहने का सौभाग्य

मैं संस्कृति के विद्यार्थियों को पढ़ाने के साथ और भी कई गतिविधियों में इस विभाग की मदद करता हूँ। संस्कृति के विद्यार्थियों के साथ रहना बहुत संतुष्टिदायक होता है। जैसा सद्‌गुरु द्वारा बनाया गया है, संस्कृति के विद्यार्थी बहुत कम उम्र से एक विशेष अनुशासन में रहते हैं, ताकि उनके शरीर और मन पूर्ण अभिव्यक्ति को पाने में उनकी मदद कर सकें। इसका अर्थ यह भी है कि उनकी जीवनचर्या शहरों में स्कूल जाने वाले किसी बच्चे से बहुत अलग होती है। यह देखकर बहुत खुशी होती है कि बहुत सारे संस्कृति के बच्चे अपनी इच्छा से संस्कृति के तरीकों को अपना लेते हैं। पिछले साल जब हम 7 से 9 साल के बच्चों के प्रवेश के लिए साक्षात्कार ले रहे थे, तब सद्‌गुरु जो दे रहे हैं उसे पाने की उनकी इच्छा को देखना आश्चर्यजनक था। हम ज्यादातर उन्हें यह कहकर निराश करते हैं कि यहाँ उनका भोजन अलग होगा, उन्हें सूर्योदय से पहले उठना पड़ेगा और हो सकता है सद्‌गुरु उन्हें मिलें भी नहीं। लेकिन फिर भी उनमें से कई तो केवल यहाँ रहना चाहते हैं, जबकि उनके माता-पिता उन्हें शहर के स्कूल में भेजकर खुश हैं।

मेरे अनुभव में संस्कृति के विद्यार्थी जीवन के साथ धड़क रहे हैं और मैं जितने भी दूसरे बच्चों से मिला हूँ उन सबसे कहीं ज्यादा ये बच्चे जीवंत होते हैं। इनमें से अधिकांश इतने फिट हैं कि जब हम ट्रेक पर जाते हैं तब हमारे लिए उनकी रफ्तार से चलना मुश्किल हो जाता है। भारत दर्शन (पूरे भारत के आध्यात्मिक स्थलों की यात्रा) के दौरान यात्रा शुरू करने के बिल्कुल पहले मुझे फूड प्वाइजनिंग हो गई थी। उस समय मैंने अनुभव किया कि वह यात्रा में कितने तेज थे। मेरा पेट लगातार गुड़गुड़ कर रहा था, लेकिन उनकी ऊर्जा इतनी जोशीली थी कि बिना रुके 5 घंटे मैं किसी तरह उनके साथ चलने में कामयाब रहा। स्वाभाविक तौर पर जब हम बेस कैंप पहुँचे तब तक मुझे बुरी तरह डायरिया हो गया।

कक्षा में उन्हें पढ़ाना कठिन हो सकता है। यहाँ तक कि जब लगता है कि वह ध्यान नहीं दे रहे हैं, तब भी वे हर बात के प्रति पूरी तरह से सतर्क होते हैं। कहना पड़ेगा कि वो मुझे भी पूरा सतर्क रखते हैं। एक बार मैंने एक भारतीय लड़के की कहानी सुनाई जिसने एक किसान की मदद के लिए विशेष तरह का ड्रोन डिजाइन किया। मैंने वह कहानी सुबह ही व्हाट्सएप पर देखी थी और मुझे वह बहुत प्रेरक लगी। जैसे ही मैंने अपनी कहानी खत्म की, एक विद्यार्थी खड़ा हुआ और उसने अचानक पूछा कि क्या यह कहानी सच्ची है? मैं पक्का नहीं था क्योंकि मैंने उसे व्हाट्सएप पर पाया था। मुझे उसकी पूछने की तत्परता देख कर कहना पड़ा, ‘मैं इसके बारे में पता लगाकर बताऊंगा।’ जब मैंने खोजा तो पाया वह कहानी सच्ची नहीं थी। फिर दूसरे दिन मैंने विनम्र भाव से उन्हें यह बात बताई।

मैं यहाँ क्यों हूँ?

मैं यहाँ सद्‌गुरु के साथ होने के लिए आया था और आज तक मैं यहाँ सद्‌गुरु के साथ होने के लिए ही हूँ। यह अजीब है कि मैंने सद्‌गुरु के साथ सत्संग में शामिल होने के लिए नौकरी छोड़ी थी, लेकिन वह आखिरी पब्लिक सत्संग ही था जिसमें मैं पूरी तरह से बैठ पाया था। उसके बाद से मैं हमेशा सत्संग के आयोजन को संभव बनाने के लिए वॉलिंटियरिंग कर रहा होता हूँ। लेकिन अपने अनुभव में मैं हमेशा सद्‌गुरु के साथ हूँ। इन 23 सालों में मेरे दिमाग में कभी यह नहीं आया कि ‘मैं यहाँ क्यों हूँ?’ मैंने कभी शंका नहीं की, न अपनी राह पर, न उस पर जो वे दे रहे हैं। हर दिन एक नया दिन है, बेशक पहले जैसा ही। लेकिन मैं खुश हूँ।