मशहूर उद्योगपति और निवेशक नवल रविकांत ने सद्गुरु से बातचीत की। नवल रविकांत जिन्हें जीवन के गूढ़ प्रश्नों में गहरी दिलचस्पी है, वे सद्गुरु से एक जागरूक अस्तित्व के निर्माण के बारे में बात कर रहे हैं। यह दिलचस्प बातचीत इस बात की गहराई से खोज करती है कि कैसे एक जागरूक तरीका जीवन के अनुभव को बड़े पैमाने पर समृद्ध कर सकता है।
नवल रविकांत: सद्गुरु स्वागत है। विषय है - जागरूक धरती, तो हम धरती को अधिक जागरूक बनाने के बारे में बात करने वाले हैं। इसका क्या मकसद है - दुनिया को बचाना या व्यक्ति को बचाना?
सद्गुरु: यह विचार कि दुनिया खत्म हो रही है और मुझे या आपको इसे बचाना है - सोचने का बहुत ही घिसा-पिटा तरीका है। दुनिया खत्म नहीं हो रही, यहाँ-वहाँ घूमती हुई यह अपना रास्ता ढूँढ ही लेती है। कितना भटकाव कोई पीढ़ी बर्दाश्त कर सकती है? यदि आप बहुत दूर चले जाते हैं तो सब बहुत अस्त-व्यस्त हो जाएगा। यदि भटकाव कम है तो आपके जीवन का अनुभव बेहतर होगा। इससे फर्क नहीं पड़ता कि हम क्या करते हैं, चाहे वह व्यापार हो, अध्यात्म हो, खेल, कला या संगीत हो या कुछ और, यदि हम उसे जागरूकता के साथ करते हैं तो उसकी गुणवत्ता बेहतर होगी। यदि हम उसे जागरूकता के बगैर करते हैं या संयोगवश करते हैं तो हम बेवजह बेचैन रहेंगे और यहाँ तक कि हम अपनी सफलता का भी आनंद नहीं ले पाएंगे।
हम अपने जीवन में जो भी छोटी या बड़ी चीज करते हैं उन सब का मकसद सफलता प्राप्त करना होता है। लेकिन दुर्भाग्य से सफल लोग अक्सर बहुत परेशान और दुखी चेहरा लिए घूमते हैं। यह बात अगली पीढ़ी को एक गलत संदेश दे रही है। उदाहरण के लिए एक परिवार में जहाँ माता-पिता सफल हैं लेकिन हमेशा ही परेशान और बेचैन हैं तो आप देखेंगे कि बच्चे उस तरह की सफलता नहीं चाहते। इसके बदले वे धूम्रपान करने लगेंगे। ऐसा अक्सर हुआ है, क्योंकि वे सोचते हैं कि ऐसी सफलता का क्या मतलब है?
यह बहुत जरूरी है कि हमारी सफलता एक जागरूक प्रक्रिया हो। जिस तरह हम सोचते हैं, भाव व्यक्त करते हैं, जिस तरह हम होते हैं, हम जिस तरह बोलते हैं और हम जो कुछ भी करते हैं, यह सब कुछ एक जागरूक प्रक्रिया होनी चाहिए। एक बार यह सब जागरूकता से होने लगे, यदि आप अपने जीवन के अनुभव को जागरूकता के साथ गढ़ने लगें, तो आप इसे कैसा बनाना चाहेंगे - आनंदपूर्ण या दुखद? आपका चुनाव क्या होगा? आनंदपूर्ण ही ना?
नवल रविकांत: बिल्कुल।
सद्गुरु: सभी का चयन यही होगा। हर कोई अपने भीतर सबसे ऊँचे स्तर की खुशी चाहता है। फिर क्यों अक्सर वह इतनी साधारण चीज पाने में सक्षम नहीं हो पाते? बात यह है कि लोगों ने अपने भावनाओं और विचारों को सँभालना नहीं सीखा है, जो सबसे बुनियादी चीज है। यदि आपका अपना ही हाथ आपके चेहरे को मारने लगे तो इसे गंभीर बीमारी माना जाएगा। यदि आपके विचार और भावनाएं आपको भीतर से चोटिल कर रहे हैं तो यह भी वैसा ही है।
चाहे आप इसे तनाव कहें, बेचैनी कहें या कोई और मानसिक बीमारी। दरअसल इसका अर्थ यह है कि आपकी बुद्धिमता आपकी विरोधी हो गई है। आप नहीं जानते कि अपने मन को जागरूकता के साथ कैसे चलाना है। मन जो सबसे बड़ा चमत्कार है, बहुत सारे लोगों के लिए दुख पैदा करने की मशीन बन चुका है। आप इससे चमत्कार पैदा करते हैं या दुख यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप इसे जागरूकता के साथ चला रहे हैं या बिना जागरूकता के।
नवल रविकांत: तो कोई अपने मन को जागरूकता के साथ कैसे नियंत्रित कर सकता है?
सद्गुरु: मैं मन को नियंत्रित करने की बात नहीं कर रहा। आपको मन को नियंत्रित क्यों करना चाहिए? आपको मन को आजाद कर देना चाहिए। अभी कष्ट के डर के कारण लोग हर चीज को नियंत्रित करना चाहते हैं। आपको क्या लगता है कष्ट कहाँ बनता है?
नवल रविकांत: मन में।
सद्गुरु: तो कष्ट आपके मन में बन रहा है। आपका मन आपके लिए दुख क्यों पैदा रहा है? स्पष्ट है कि आपके पास दिमाग है पर आपके पास उसका कोई की-बोर्ड नहीं है। सब कुछ संयोगवश हो रहा है। भीतरी अनुभव बनाने के लिए हम बाहरी परिस्थितियों को व्यवस्थित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसे दूसरे तरह से समझते हैं - यदि आपका शरीर खुशहाल होता है तो हम इसे स्वास्थ्य कहते हैं। ज्यादातर लोग बीमार होने पर डॉक्टर के पास जाते हैं और कुछ खास उपाय करते हैं। लेकिन रोजमर्रा के जीवन में वे इस बात का ख्याल नहीं रखते कि वे कैसे उठते-बैठते हैं, कैसे सांस लेते हैं, कैसे खाते हैं और क्या करते हैं।
बाकी सब कुछ स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। यदि आपका शरीर खुशहाल बन जाता है तो हम इसे सुख कहते हैं। यदि आपका मन खुशनुमा हो जाता है तो हम इसे शांति कहते हैं। यदि यह बहुत खुशनुमा हो जाता है तो हम इसे खुशी कहते हैं। यदि आपकी भावनाएं खुशनुमा हो जाती हैं तो हम इस प्रेम कहते हैं। यदि यह बहुत खुशनुमा हो जाती हैं तो हम इसे करुणा कहते हैं। यदि आपकी जीवन ऊर्जाएं खुशनुमा हो जाती हैं तो हम इसे आनंद कहते हैं। जब यह अधिक खुशनुमा हो जाती हैं तो हम इसे परमानंद कहते हैं।
यदि आपके आसपास का वातावरण खुशनुमा हो जाए तो हम इस सफलता कहते हैं। केवल अपने आसपास के वातावरण को खुशनुमा बनाने के लिए आपको आसपास के लोगों और शक्तियों की मदद की जरूरत होती है। अपने शरीर, मन, भावनाओं और ऊर्जा को खुशनुमा बनाना सौर प्रतिशत आपका काम है। यदि आप नहीं जानते कि आपको कैसे होना चाहिए, तो आप दुनिया में जो कुछ भी करेंगे, निराश ही होंगे।
मानव की खुशी और कल्याण के पीछे दुनिया को बर्बाद किया जा रहा है। ये कोई शैतान लोग नहीं हैं जो दुनिया को बर्बाद कर रहे हैं, ये हम सभी हैं जो खुशी की तलाश में हैं। मैं आपसे एक साधारण सा सवाल पूछता हूँ - चाहे आप खुशी का अनुभव कर रहे हों या दुख का, यह आपके भीतर घटित होता है या बाहर?
नवल रविकांत: भीतर।
सद्गुरु: भीतर। यही मुद्दा है।
एक दिन एक आलू की खेती करने वाले किसान को सेब खाने का मन किया। आलू की खेती करने वाला किसान होने के कारण अपनी आदतवश उसने सेब पाने के लिए जमीन की खुदाई शुरू कर दी। लेकिन उसे एक भी सेब नहीं मिला। वह आग बबूला हो गया और उसने और जोरों से खुदाई शुरू कर दी। वह तब तक खोदता रहा जब तक पास में खड़ा सेब का पेड़ उसके ऊपर नहीं गिर गया।
तो आज मानव जाति की यही कहानी है। खुशी की तलाश में हम दुनिया खोद रहे हैं। चाहे आप खुशी चाहते हों या दुख, आप इसे अपने भीतर ही पा सकते हैं। पाने के लिए इसकी तलाश नहीं करनी है, आप खुशी और दुख को अपने भीतर खुद ही बनाते हैं। यदि आप जागरूक होंगे तो आप निश्चित तौर पर खुशी ही बनाएंगे। लेकिन आप जीवन को संयोगवश चला रहे हैं, इसलिए यह दूसरी तमाम चीजों की तरफ चला जाता है।
नवल रविकांत: तो यह आंतरिक खुशी और शांति जिसकी आप बात कर रहे हैं इसे हम कैसे पा सकते हैं? क्या यह योग का विज्ञान है?
सद्गुरु: दुर्भाग्य से आजकल लोग यह सोचते हैं कि योग का मतलब है - नूडल्स की तरह दिखना। योग शरीर को मोड़ने-मरोड़ने के बारे में नहीं है। योग शब्द का अर्थ है एकत्व। एकत्व का अर्थ क्या है? आज आधुनिक विज्ञान आपको बता रहा है कि यह पूरा अस्तित्व एक ही ऊर्जा है जो लाखों तरीके से अभिव्यक्त हो रही है। दुनिया भर के धर्म आपको लंबे समय से यह बताने का प्रयास करते रहे हैं कि ‘भगवान हर जगह है।’ यह दो अलग-अलग सच्चाइयां नहीं है। एक तर्क से इस पर पहुंच रहा है और दूसरा भावना से। एक ही सच्चाई को देखने के ये अलग-अलग तरीके हैं। वास्तव में इसका अर्थ है - जो यहाँ है और जो वहाँ है, वह अलग नहीं है। यदि यह आपके लिए जीवंत सच्चाई बन जाता है, तो हम कहते हैं कि आप योग में हैं।
उदाहरण के लिए आप जो सांस छोड़ते हैं, वह पेड़ अंदर लेता है। पेड़ जो सांस छोड़ता है, वह आप अंदर लेते हैं। मान लीजिए, आप यह वाकई अनुभव करें कि आपके फेफड़े का एक भाग वहाँ लटका हुआ है, जो कि सच्चाई है, यदि हम सभी ये महसूस करें, तो हमने वही किया होता जिसकी जरूरत है। लेकिन हम इसका अनुभव नहीं करते। हर इंसान यह सोचता है कि वह खुद ही पूरी दुनिया है।
इस कमरे में जितने भी लोग उपस्थित हैं उनमें से हर कोई अपनी ही दुनिया में जी रहा है। यदि आप इसका अनुभव करने लगें तो आप यहाँ बैठे हुए हर चीज को अपने ही हिस्से के रूप में देखेंगे – केवल मानसिक, बौद्धिक या भावनात्मक रूप से नहीं बल्कि अनुभव के स्तर पर।
उदाहरण के लिए आज आपने भोजन में जो भी खाया वह आपकी तरह नहीं दिखता था, न ही उसकी सुगंध आपकी तरह थी और ना ही वह आपकी तरह महसूस होता था, लेकिन कुछ ही घंटे में वह ‘आप’ में बदल गया है।
नवल रविकांत: जी।
सद्गुरु: यदि आपने एक सेब खाया तो वह अब एक मनुष्य बन चुका है। कुछ ऐसा जो आप नहीं थे वह ‘आप’ बन गया है। यह हर समय सच है। लेकिन अभी आप यह सोचते हैं कि यह शरीर और मन आप हैं। खुद को एक अलग व्यक्ति के रूप में अनुभव करना - वह एक सौभाग्य है जो प्रकृति ने उदारता पूर्वक हमें दिया है। लेकिन इंसान ने इसे कुछ ज्यादा ही गंभीरता से ले लिया। आप सोचते हैं कि आप एक व्यक्ति के रूप में एक पूर्ण इकाई हैं। शायद अधिकांश लोग इसे तब तक नहीं समझ पाते जब तक उन्हें दफना नहीं दिया जाता। अभी आप यह सोच सकते हैं कि आप और वह मिट्टी जिस पर आप चल रहे हैं, अलग-अलग हैं। लेकिन जिस दिन हमें दफना दिया जाएगा हम बड़ी आसानी से मिट्टी का एक हिस्सा बन जाएंगे। अभी भी हम उसका हिस्सा हैं। लेकिन यह हमारे जीवंत अनुभव में नहीं है। यही इंसान की समस्या है।
जागरूकता का अर्थ है कि आप अपने अस्तित्व की प्रकृति के प्रति जागरूक बन गए हैं। एक बार जब आप अपने अस्तित्व की प्रकृति के प्रति जागरूक बन जाते हैं, आप जान जाते हैं कि आपको कैसा होना है। देखिए मानव ही बस इस ग्रह का वह प्राणी है जिसे ‘बीइंग’ कहा जाता है – ‘ह्यूमन बीइंग।’ हम बाघ को ‘टाइगर बीइंग’ नहीं कहते, ऊंट को ‘कैमल बीइंग’ नहीं कहते या किसी अन्य जानवर को बीइंग नहीं कहते। वे बस जीव हैं, क्योंकि उनका जीना और मरना उन दो रेखाओं के बीच घटित होता है, जो प्रकृति ने उनके लिए खींच रखी है। मनुष्य के रूप में हमारे पास उस तरह से होने की क्षमता है जैसा हम चाहते हैं।
लेकिन कितने लोग जानते हैं कि कैसा होना है?
जब आप जानते हैं कि कैसा होना है केवल तभी आपके कार्य, जो आप हैं, उसकी जागरूक अभिव्यक्ति होंगे। क्योंकि हम नहीं जानते कि कैसा होना चाहिए, इसलिए हमारे कार्य बाध्यकारी बन जाते हैं। इस बाध्यता में - चूंकि आपका अस्तित्व पर्याप्त रूप से महत्वपूर्ण नहीं है - आप दुनिया में अपनी छाप छोड़ना चाहते हैं। लेकिन जो लोग अपने कदमों के निशान छोड़ना चाहते हैं वे अपने जीवन में कभी उड़ान नहीं भर पाएंगे।
नवल रविकांत: अपने जागरूकता की बात की, आपने अस्तित्व की बात की। एक व्यक्ति को क्या करना चाहिए? यहाँ हर कोई तनाव में है, जल्दी में है, उनके पास करने को बहुत सारी चीजें हैं, बहुत कुछ हासिल करना है. . . तो वह छोटा सा बदलाव क्या है जो वे कर सकते हैं?
सद्गुरु: क्या वे तब खुश होंगे जब उनके पास करने को कुछ नहीं होगा? नहीं।
नवल रविकांत: तो क्या इसका मतलब यह है कि जो कुछ भी आप कर रहे हैं वह अच्छा है?
सद्गुरु: नहीं मैं कह रहा हूँ कि यदि आप जानते हैं कि कैसे होना है, तो आप वह करेंगे जिसकी जरूरत होगी। हर परिस्थिति में आप अपना सर्वश्रेष्ठ करेंगे। अपनी क्षमताओं के अनुसार अलग-अलग लोग अलग-अलग स्तर के कार्य करते हैं, और यह अच्छा है। लेकिन अभी कुछ बनने के लिए आपको सारी चीज करनी होती हैं। क्योंकि आप नहीं जानते कि आपको कैसे होना है। यदि आप कुछ छोटा करते हैं तो आप तनाव में रहते हैं। यदि आप कुछ बड़ा करते हैं तो भी आप तनाव में रहते हैं। हर तरीके से आप तनाव में हैं।
लोग हर चीज के लिए तनाव में है। यदि वह गरीब हैं तो अपनी गरीबी को लेकर तनाव में हैं। आप उन्हें अमीर बना दें तो वह टैक्स को लेकर तनाव में आ जाएंगे। यदि वे पढ़े लिखे नहीं है तो उसको लेकर तनाव में है। यदि आप उन्हें स्कूल में डाल दें तो भी वह तनाव में है। यदि उनकी शादी नहीं हुई है तो उसको लेकर तनाव में हैं, यदि आप उनकी शादी करा दें तो भी वह तनाव में हैं। इस तरह यह अंतहीन रूप से चलता रहता है। समस्या यह है कि लोगों ने अपनी क्षमताओं को सँभालना नहीं सीखा है।