3 सितंबर 2012 को सद्गुरु के जन्मदिन के अवसर पर हुए सत्संग के दौरान सद्गुरु ने अपना शरीर छोड़ने के बाद ईशा के भविष्य के लिए अपनी योजनाओं के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि ध्यानलिंग एक प्रमुख ऊर्जा के स्रोत के रूप में काम करेगा जिसके माध्यम से वे सभी आध्यात्मिक संभावनाएं जो अभी मौजूद हैं, आगे आने वाली कई पीढ़ियों के लिए भी मौजूद रहेंगी। उन्होंने यह भी बताया कि उनके भौतिक शरीर छोड़ने के बाद उनकी मौजूदगी खास तौर पर वर्तमान ईशा साधकों के लिए किस रूप में और कितने दिनों तक बनी रहेगी।
प्रश्नकर्ता: बौद्ध परंपरा में यह कहा जाता है कि गुरु अपने शिष्यों की सहायता के लिए बार-बार जन्म लेते हैं। ऐसी परंपरा योगिक संस्कृति में क्यों नहीं हैं? और आपने ऐसा क्यों कहा कि आप फिर वापस नहीं आएंगे?
सद्गुरु: मैं निश्चित रूप से इस बात की पुष्टि कर सकता हूँ कि मैं वापस आने वाला नहीं हूँ। क्योंकि मेरी मृत्यु की तिथि बहुत पहले ही गुजर चुकी है। यहाँ तक कि जिन लोगों का बोध बेहतर है उन्हें पता है कि मैं अस्तित्व में नहीं हूँ। मैं मानव-जाति के बही-खाते में नहीं हूँ – इसी वजह से मुझे इतनी स्वतंत्रता मिली हुई है। इसे एक और जन्म के लिए खींचना अब संभव नहीं है। ये जन्म भी इसलिए हुआ क्योंकि मैं ध्यानलिंग की प्रतिष्ठा के काम में उलझा हुआ था। नहीं तो मैं यहाँ नहीं होता।
बौद्ध परंपरा की बात करें तो गौतम बुद्ध राजाओं को रूपांतरित करने की कोशिश में लगातार घूमते रहे। वे जानते थे कि आम लोगों की जगह अगर वे राजाओं के साथ काम करेंगे तो सामाजिक रूपांतरण बहुत तेज गति से होगा। इसलिए वे अपना अधिकांश समय राजाओं के साथ बिताते थे। अपने जीवन काल के दौरान उन्होंने करीब 40,000 भिक्षुओं को आध्यात्मिक प्रक्रियाएं सिखाईं।
बौद्ध भिक्षुक घंटों जाप करते रहते हैं। एक दूसरी प्रक्रिया जो गौतम बुद्ध ने बहुत लोगों को सिखाई वो है विपश्यना, जिसमें शारीरिक संवेदनाओं और विचारों पर लम्बे समय तक ध्यान देना होता है। ये बहुत कठिन प्रक्रिया है लेकिन इन प्रक्रियाओं की यह विशेषता है कि इन्हें बिना किसी तैयारी के सिखाया जा सकता है।
आप ऐसी प्रक्रियाएं किसी को भी सिखा सकते हैं क्योंकि ये प्रक्रियाएं शारीरिक ढाँचे में बड़ा बदलाव नहीं पैदा करतीं। ईशा में ऐसी एक क्रिया है - ईशा क्रिया। ईशा की बाकी क्रियाएं जो हम सिखाते हैं वे शारीरिक स्तर पर तीव्र बदलाव लाती हैं जिनको चिकित्सकीय पैमाने पर नापा भी जा सकता है। केवल 2-3 हफ़्तों की साधना के बाद किसी की शारीरिक संरचना में महत्वपूर्ण बदलाव आ जाते हैं। जब ऐसे बदलाव आने की संभावना हो तो तैयारी जरूरी हो जाती है।
ऐसी प्रक्रियाएं जहाँ इस तरह के बदलाव शामिल न हों, जहाँ केवल जागरूकता ही मायने रखती हो, कोई तैयारी जरूरी नहीं है। आप ईशा क्रिया किसी को भी सिखा सकते हैं। अगर वे इसे करना जारी रखें तो धीरे-धीरे उनका विकास होता है। गौतम बुद्ध द्वारा बताई गई अधिकांश प्रक्रियाएं ऐसी ही थीं। केवल कुछ करीबी शिष्यों के साथ उन्होंने दूसरी तरह की प्रक्रियाएं की जो दुर्भाग्य से आज शायद ही कहीं जीवित हों।
मेरा वापस आना एक अनगढ़ तकनीक की तरह होगा। हम चीजों को करने के लिए कुछ बेहतर तरीके स्थापित कर रहे हैं।
गौतम बुद्ध ने जो आम लोगों को सिखाया वे ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रियाएं थीं जिनमें जटिलता, तैयारी और बहुत सूक्ष्मता शामिल नहीं थे। ये कुछ साधारण प्रक्रियाएं हैं जिन्हें कोई भी कर सकता है। 2500 सालों के बाद केवल यही प्रक्रियाएं जीवित हैं, लेकिन यह भी अद्भुत बात है कि इतने लम्बे समय के बाद भी ये अभी तक जीवित हैं।
ये प्रक्रियाएं कुछ ऐसी हैं कि बुद्ध ने खुद कहा था कि अनुभव और समाधि की 8 अवस्थाओं के लिए अधिकांश लोगों को कई जन्मों तक काम करना होगा। योग में भी समाधि के 8 आयाम या अवस्थाओं के बारे में कहा गया है। गौतम ने कहा कि किसी को एक जीवनकाल के दौरान समाधि की 1 अवस्था में डूब जाना होता है और फिर अगले जन्म में अगली अवस्था में, और ऐसे ही चलते-चलते अन्ततः आप मुक्त हो जायेंगे। आज की मनोदशा के लिए ‘कई जन्म’ सोच से परे लगते हैं। यहाँ तक कि किसी एक कार्यक्रम के लिए कुछ दिन देना भी लोगों के लिए मुश्किल हो जाता है। चूँकि बौद्ध परंपरा की संरचना इस तरह है, इसलिए वे बार-बार आते हैं और धीरे-धीरे विकसित होते हैं।
संभवतः आने वाले कुछ सालों में हम कुछ ऐसी प्रक्रियाएं लाएँगे जिन्हें लोग बिना किसी भी तरह की बाहरी सहायता के कर सकेंगे। उन्हें किसी ऊर्जावान क्षेत्र या किसी सहारे की जरूरत नहीं होगी। वे खुद ही इन्हें कर पाएंगे। इनमें सबसे पहले हमने ईशा-क्रिया पेश की है। हम कई अन्य क्रियाएं लेकर आएंगे जिन्हें सभी लोग बिना किसी भटकाव के डर के, आसानी से कर सकते हैं, क्योंकि ये धीमी प्रक्रियाएं हैं।
मान लीजिये आप अपने गंतव्य तक बिना GPS की मदद के जा रहे हैं। ऐसे में अगर आप पैदल चल रहे हैं तो रास्ता भटकने की सम्भावना कम से कम होगी, क्योंकि आप धीरे चल रहे हैं और आप आने-जाने वालों से सही दिशा पूछकर जरूरत के अनुसार अपनी राह बदल सकते हैं और आगे बढ़ सकते हैं। अगर आप साइकिल पर चल रहे हों तो साइकिल चलाते समय किसी राह चलते आदमी से बात करना थोड़ा कठिन होगा, आपको चिल्लाकर पूछना पड़ेगा। अगर आप मोटर-साइकिल से जा रहे हैं तो रास्ता भटकने की संभावना कही ज़्यादा है क्योंकि आप चलते हुए किसी से बात नहीं कर सकते। अगर आप उड़कर जा रहे हैं तो पूरी उम्मीद है कि GPS के बिना आप रास्ता भटक जाएँगे।
मेरे शरीर छोड़ने के बाद अस्सी सालों तक मेरी मौजूदगी आज की तुलना में कहीं ज्यादा तीव्र होगी।
बार-बार आने का ये क्रम बहुत ही थकाऊ और धीमी प्रक्रिया की वजह से होता है। उसके पीछे की सोच यह है कि इसके लिए कोई तैयारी की आवश्यकता नहीं है। और इसका अर्थ यह है कि इसे जन-साधारण को दिया जा सकता है और फिर भी यह एक पवित्र प्रक्रिया बनी रहेगी। हम इस तरह की कई सरल प्रक्रियाएं लेकर आएंगे लेकिन जब तक मैं यहाँ शारीरिक रूप से मौजूद हूँ, मैं जन-साधारण को जटिल प्रक्रियाएं दे सकता हूँ, क्योंकि मैं लोगों के समूह के अनुसार किसी जटिल प्रक्रिया में सूक्ष्म बदलाव कर देता हूँ। लेकिन हम धीरे-धीरे जन-साधारण को देने के लिए सरल प्रक्रियाएं लेकर आएंगे क्योंकि ये लंबे समय तक बने रहने के लिए एक आश्वासन होगा।
तो मैं वापस क्यों नहीं आऊंगा? मैंने पहले भी बताया था कि एक जीवन केवल एक खास अवधि तक ही चल सकता है। आज भी मेरे आसपास के कुछ लोगों की सहायता के बिना मैं अपने शरीर को इस तरह नहीं रख पाऊंगा। वैसे मैं अपने सारे काम ठीक से कर रहा हूँ लेकिन इनकी मदद के बिना मेरे शरीर को इसी तरह बनाए रखना संभव नहीं है क्योंकि ये अपनी मृत्यु-तिथि को बहुत पहले ही पार कर चुका है।
मैं जब भी शरीर छोड़ने का निश्चय करूँगा, जो किसी भी दिन हो सकता है या किसी खास समय के बाद कभी भी हो सकता है, मैं कैसे शरीर छोड़ूँगा - किसी कार या हेलीकाप्टर क्रैश में, या किसी पहाड़ी से गिरकर या नदी में डूबकर - हम इसे प्रकृति पर छोड़ सकते हैं। मैं चीजों को मज़ाक में लेने की कोशिश नहीं कर रहा हूँ, लेकिन मैं उस पल को इतना गंभीर नहीं होने देना चाहता कि सब सोचें, ‘सद्गुरु आज शरीर छोड़ने वाले हैं।’ और फिर एक बड़ा नाटक हो। ये बेहतर होगा कि आप इसे समाचार पत्र में पढ़ें।
मेरे शरीर छोड़ने के बाद अस्सी सालों तक मेरी मौजूदगी आज की तुलना में कहीं ज्यादा तीव्र होगी। इसका मतलब यह है कि मैं अपनी उपस्थिति को मिटाने से पहले आप सबको मरा हुआ देखना चाहता हूँ। 80 साल करीब-करीब एक जीवन काल के बराबर होता है। तब मेरी उपस्थिति आज की तुलना में कहीं गहन होगी, क्योंकि तब मेरे पास एक भौतिक शरीर को ढोने का बोझ नहीं रहेगा। भौतिक उपस्थिति की पूर्ति के लिए हम कई प्रक्रियाएं स्थापित करेंगे।
इस ऊर्जा-स्थान की रक्षा के लिए हम कुछ विशेष दल बनाएंगे, खासकर ध्यानलिंग के लिए क्योंकि ये हमारे लिए मूलस्थान या कहें ऊर्जा का स्रोत होगा। केवल जब ध्यानलिंग धड़कता रहेगा, तभी आध्यात्मिक अभियान चलता रहेगा। नहीं तो केवल आध्यात्मिक बातें रह जायेंगी। लोग किताबें पढ़ेंगे और वास्तव में जाने बिना सोचेंगे कि उन्होंने जान लिया, जो कि खतरनाक है। किताबें केवल प्रेरणा के लिए होनी चाहिए, आध्यात्मिक प्रक्रिया के लिए नहीं।
यह जरूरी है कि ऊर्जा का स्रोत ऐसे ही बना रहे और जरूरी पवित्रता के साथ इसकी रक्षा हो। इसलिए मैं ‘क्षेत्र संन्यास’ के बारे में सोच रहा हूँ जिसका अर्थ है कि जो लोग इस तरह का संन्यास लेंगे कि वे परिसर छोड़कर नहीं जाएंगे। हम इस पवित्र स्थान की चिरकाल तक रक्षा करने के लिए ‘क्षेत्रपालक’ भी बनाना चाहते हैं।
केवल जब ध्यानलिंग धड़कता रहेगा, तभी आध्यात्मिक अभियान चलता रहेगा।
हम वित्तीय ढाँचा भी बनाना चाहते हैं जिससे ये सुनिश्चित हो कि ये स्थान लम्बे समय तक खुद को कायम रख सके। इस संस्कृति में जिसने जो भी मंदिर बनावाया, उन्होंने ये सुनिश्चित किया कि आमदनी के लिए मंदिर के पास कुछ हजार एकड़ जमीन मौजदू हो। दुर्भाग्य से इस पीढ़ी में सरकार या अतिक्रमणकारियों द्वारा ये सब कुछ ले लिया गया है। अधिकांश मंदिरों के पास कुछ नहीं बचा है।
तो हम प्रबन्धकारी ढाँचा, वित्तीय ढाँचा और क्षेत्र-रक्षक बनाएंगे जिससे ये सुनिश्चित हो सके कि ये एक ऊर्जावान स्थान के रूप में चिरकाल तक जीवित रहे।
हम ऐसा ढाँचा बना रहे हैं जो 3 से 5 हजार सालों तक चलता रहे। तो जब भौतिक ढाँचा चलता है तो ये जरूरी है कि मानवीय संरचनाएं जो उन्हें कायम रखने के लिए जरूरी हैं, वह भी करीब-करीब उतने लम्बे समय तक चलें। कम से कम 700-800 सालों तक इन सबको सँभाला जाना चाहिए। मैं इस ऊर्जा पर इतना विश्वास करता हूँ कि यह निश्चित रूप से कई अद्भुत प्राणियों को तैयार करेगी - या तो इस पीढ़ी में या आने वाली कुछ पीढ़ियों में ये निश्चित रूप से होगा।
मेरा वापस आना एक अनगढ़ तकनीक की तरह होगा। हम चीजों को करने के लिए कुछ बेहतर तरीके स्थापित कर रहे हैं। ये सोचना गलत होगा कि अगर सद्गुरु नहीं हैं तो क्या होगा?
कुछ लोग कहते हैं कि वे केवल मेरे द्वारा संचालित कार्यक्रम ही करना चाहते हैं। मैं उनसे कहता हूँ, ‘शिक्षकों के द्वारा संचालित कार्यक्रम में जाइए। निश्चित रूप से वे मुझसे ज्यादा ट्रेंड हैं।’ मैं ऐसा इसलिए कहता हूँ क्योंकि मुझे किसी ने ट्रेन नहीं किया। बाद में कई लोग आकर मुझसे कहते है कि, ‘सद्गुरु आपके शिक्षक बेस्ट शिक्षक हैं।’ और कुछ लोग कहते हैं, ‘सद्गुरु, ये शिक्षक, ईशा के शिक्षक, आपसे भी बेहतर हैं।’ मैं इतने दिनों से यही सुनना चाह रहा था कि हमारे शिक्षक, हमारे स्वयंसेवक और आश्रम के हमारे लोग मुझसे बेहतर हैं। इसका मतलब कि मैंने सही काम किया है।
तो यह मत कहिए कि ‘सद्गुरु कृपया वापस आइए।’ इसकी जरूरत नहीं है। हमारी अगली पीढ़ी जो हम तैयार करें, हमसे बेहतर होनी चाहिए। सारे युवाओं से मैं यही पूछना चाहूँगा - हमने जो किया, क्या आप उससे बेहतर करेंगे या आप उससे बदतर करेंगे?